European Union और अमेरिका ट्रेड डील: भारत के लिए बड़ा सबक और नया मौका! 2025

ज़रा सोचिए… अगर दुनिया की दो सबसे ताक़तवर अर्थव्यवस्थाएँ आपस में हाथ मिला लें, तो बाक़ी दुनिया पर इसका कितना गहरा असर पड़ेगा? मान लीजिए, वैश्विक व्यापार की दो बड़ी नदियाँ—अमेरिका और European Union—एक ही धारा में बहने लगें, तो छोटे देश, उभरते बाज़ार और विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ किस तरह खुद को इस तेज़ बहाव में संभालेंगी?

यही कहानी आज हमारे सामने है। अमेरिका और European Union, जो मिलकर दुनिया की 44% अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्होंने 27 जुलाई 2025 को एक ऐसे व्यापार समझौते की घोषणा की है, जिसे “फ्रेमवर्क एग्रीमेंट” कहा जा रहा है। इस समझौते ने न सिर्फ़ अमेरिका और यूरोप की दिशा तय की है, बल्कि भारत जैसे देशों के लिए भी इसमें कई सबक छिपे हैं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

कहते हैं कि जब बड़े हाथ मिलाते हैं, तो छोटे देशों को अपनी रणनीति नए सिरे से लिखनी पड़ती है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस दिन इस समझौते की घोषणा की, उसी दिन से दुनिया के थिंक टैंक, व्यापार विश्लेषक और नीति विशेषज्ञ यह अनुमान लगाने लगे कि इसका असर किस-किस पर पड़ेगा। गुरुवार को जब इस समझौते की औपचारिक पुष्टि हुई, तो साफ़ हो गया कि अब वैश्विक व्यापार की दिशा बदलने वाली है। ट्रंप के बयान के बाद जिस तरह से यूरोपियन संसद और अमेरिकी प्रशासन ने तेज़ी से कदम बढ़ाए, वह दिखाता है कि यह सिर्फ़ काग़ज़ी समझौता नहीं, बल्कि भविष्य की आर्थिक राजनीति का रोडमैप है।

समझौते के तहत European Union ने एक बड़ा कदम उठाया है। उसने ऐलान किया कि वह अमेरिकी औद्योगिक वस्तुओं और कई Agricultural and marine products पर Import duty पूरी तरह हटा देगा। इसका मतलब यह हुआ कि अब अमेरिकी मेवे, डेयरी उत्पाद, फल, सब्जियाँ, प्रोसेस्ड फूड, सोयाबीन ऑयल और पोर्क सीधे यूरोपियन बाज़ार में बिना अतिरिक्त tax के पहुँचेंगे। ज़रा सोचिए, यूरोप का बाज़ार कितना विशाल है, और अगर वहाँ अमेरिकी उत्पाद सस्ते में पहुँचेंगे तो बाकी देशों के Producers के लिए Competition कितनी कठिन हो जाएगी। भारत जैसे देशों के किसानों और exporters को यह सीधा-सीधा झटका लग सकता है।

लेकिन यह कहानी सिर्फ़ यूरोप की तरफ़ से रियायत देने तक सीमित नहीं है। अमेरिका ने भी यूरोपियन Products के लिए अपने दरवाज़े खोले हैं। उसने कहा कि European Union से आने वाले Products पर या तो MFN (Most Favoured Nation) दर लागू होगी या 15% टैरिफ, जो भी ज़्यादा होगा। यानी यूरोपियन कंपनियों को अमेरिका में भी एक स्थिर और अनुमानित बाज़ार मिलेगा। इसके अलावा अमेरिका ने 1 सितंबर 2025 से European Union के विमानों, उनके पुर्जों और जेनेरिक दवाओं पर सिर्फ़ MFN दर लगाने का ऐलान किया है। इससे एयरबस जैसी कंपनियों को सीधे-सीधे फायदा होगा, जो अब अमेरिकी बाज़ार में और गहराई से उतर पाएँगी।

ऑटोमोबाइल्स पर भी एक बड़ा ऐलान हुआ। अभी अमेरिका यूरोपियन कारों पर 27.5% टैरिफ लगाता है। यह दर इतनी ऊँची है कि यूरोपियन कार निर्माताओं को अमेरिकी बाज़ार में सस्ते दाम पर उतरना लगभग नामुमकिन हो जाता था। लेकिन इस समझौते के बाद, European Union अपने यहाँ टैरिफ सुधार करेगा और इसके बदले अमेरिका अपनी कारों पर टैरिफ घटाकर 15% कर देगा। ज़रा सोचिए, BMW, Audi, Volkswagen जैसी कंपनियाँ अब अमेरिका में कितनी तेज़ी से विस्तार कर पाएँगी। और इसका मतलब यह भी होगा कि जापानी और कोरियन कार निर्माताओं के साथ-साथ भारत के संभावित ऑटो एक्सपोर्टर्स के लिए Competition और कठिन हो जाएगी।

इस समझौते का एक और अहम हिस्सा ऊर्जा क्षेत्र है। European Union ने वादा किया है कि वह 2028 तक 750 अरब डॉलर मूल्य के अमेरिकी LNG, कच्चे तेल और परमाणु ऊर्जा उत्पाद खरीदेगा। इसका सीधा असर रूस, मध्य-पूर्व और अफ्रीकी देशों पर पड़ेगा, जो अब तक यूरोप को Energy supply में बड़े खिलाड़ी रहे हैं। लेकिन भारत के लिए भी यह एक चेतावनी है। भारत, जो अब तक सस्ते क्रूड और ऊर्जा डील्स की तलाश में रहा है, उसे समझना होगा कि यूरोप जैसे बड़े उपभोक्ता अगर अमेरिकी बाज़ार पर झुकेंगे, तो वैश्विक कीमतें और सप्लाई चेन पूरी तरह बदल जाएगी।

सिर्फ़ ऊर्जा ही नहीं, बल्कि टेक्नोलॉजी में भी अमेरिका और यूरोप ने हाथ मिला लिया है। European Union ने ऐलान किया कि वह अपने कंप्यूटिंग सेंटरों के लिए कम से कम 40 अरब डॉलर के अमेरिकी AI चिप्स खरीदेगा। यह सिर्फ़ एक व्यापारिक प्रतिबद्धता नहीं है, बल्कि टेक्नोलॉजी में अमेरिका के नेतृत्व को स्वीकार करना है। सोचना होगा कि जब यूरोप जैसे उन्नत देश भी अमेरिकी AI चिप्स पर निर्भर होंगे, तब भारत जैसे देश, जो अपनी सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री खड़ी करने की कोशिश कर रहे हैं, उनके लिए यह चुनौती और कठिन हो जाएगी।

इसके अलावा यूरोपियन कंपनियों ने अमेरिका के रणनीतिक क्षेत्रों में 600 अरब डॉलर का Investment करने का वादा किया है। इसका मतलब यह है कि आने वाले समय में अमेरिकी टेक्नोलॉजी, ऊर्जा, रक्षा और डिजिटल क्षेत्रों में यूरोपियन पूँजी का और प्रवाह होगा। यह Investment उन जगहों पर होगा, जहाँ भारत जैसी अर्थव्यवस्थाएँ अभी एंट्री पाने की कोशिश कर रही हैं। यानी भारत को अब और मेहनत करनी होगी कि वह अपने लिए अलग रास्ते बनाए, वरना यह डील वैश्विक Investment का बड़ा हिस्सा अमेरिका की तरफ़ खींच ले जाएगी।

डील का एक दिलचस्प हिस्सा है यूरोप का “कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म” यानी CBAM। यूरोप ने घोषणा की है कि वह 1 जनवरी 2026 से कार्बन टैक्स लगाएगा। इसका मतलब है कि जो भी देश यूरोप को सामान भेजेंगे, उन्हें यह साबित करना होगा कि उनके Products में Carbon emissions कम है। लेकिन इस फ्रेमवर्क समझौते में यूरोप ने अमेरिका को रियायत दी है। यानी अमेरिकी छोटे और मध्यम उद्यमों को कार्बन टैक्स से छूट मिलेगी। सोचिए, जब अमेरिकी उत्पाद इस टैक्स से बचेंगे, तो भारत जैसे देशों के Products पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। भारतीय SME और Exporter पहले ही अनुपालन की लागत से जूझ रहे हैं, और अब उनके सामने यह एक और नई मुश्किल होगी।

यही नहीं, यूरोप ने अपने कॉर्पोरेट सस्टेनेबिलिटी रूल्स—CSDDD और CSRD—को लेकर भी अमेरिका को लचीलापन दिया है। यह वे नियम हैं जिनके तहत कंपनियों को अपने पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव की रिपोर्टिंग करनी होती है। यूरोप ने संकेत दिया है कि अमेरिकी कंपनियों को इसमें छूट दी जा सकती है, खासकर वे कंपनियाँ जो पहले से अपने देश में सख़्त नियमों का पालन कर रही हैं। लेकिन सवाल उठता है—क्या भारत भी ऐसी छूट पा सकेगा? अगर भारत ने अपने FTA (Free Trade Agreement) में इस मुद्दे पर सख्ती से बातचीत नहीं की, तो भारतीय कंपनियों को यूरोपियन बाज़ार में भारी दिक्कतें आएँगी।

यही कारण है कि ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (GTRI) के संस्थापक अजय श्रीवास्तव ने कहा कि, भारत के लिए यह घटनाक्रम एक स्पष्ट सबक है। भारत इस समय European Union के साथ अपने FTA के अंतिम चरण में है। अगर भारत ने CBAM और स्थिरता नियमों में छूट की माँग नहीं की, तो भारतीय SME और exporters को भारी अनुपालन खर्च उठाना पड़ेगा। जबकि अमेरिकी कंपनियाँ आराम से छूट का लाभ लेती रहेंगी। यानी खेल असमान हो जाएगा।

भारत के लिए यह समझना ज़रूरी है कि वैश्विक व्यापार केवल टैरिफ या टैक्स का खेल नहीं है, बल्कि यह “नियम बनाने की ताक़त” का खेल है। अमेरिका और यूरोप जब मिलकर नियम तय करते हैं, तो बाकी दुनिया को मजबूरी में उन नियमों को मानना पड़ता है। भारत अगर समय रहते अपनी रणनीति नहीं बनाएगा, तो उसके exporters पर बोझ बढ़ेगा और उसकी Competition घटेगी।

लेकिन हर चुनौती में एक अवसर भी छिपा होता है। भारत के पास अभी समय है। अगर वह अपने FTA में स्मार्ट तरीके से बातचीत करे, तो वह भी अमेरिका जैसी छूट ले सकता है। भारत यह कह सकता है कि उसकी कंपनियाँ भी स्थिरता और कार्बन उत्सर्जन में सुधार कर रही हैं, और उन्हें भी छूट मिलनी चाहिए। इसके अलावा भारत अपनी टेक्नोलॉजी और ऊर्जा साझेदारियों को और मज़बूत कर सकता है, ताकि भविष्य में वह अमेरिकी और यूरोपियन दबाव के बिना भी आगे बढ़ सके।

Conclusion

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