Cashless Treatment Crisis: देश के अस्पतालों ने क्यों रोकी सुविधा और मरीजों के लिए क्या है उम्मीद? 2025

ज़रा सोचिए… रात के दो बजे का समय है। आपके परिवार का कोई सदस्य अचानक बीमार पड़ जाए। आप उसे भागते-भागते नज़दीकी बड़े प्राइवेट अस्पताल में लेकर पहुँचते हैं। रिसेप्शन पर पहुँचते ही आप अपनी हेल्थ इंश्योरेंस कार्ड दिखाते हैं और उम्मीद करते हैं कि, कैशलेस सुविधा के तहत भर्ती की प्रक्रिया तुरंत शुरू हो जाएगी। लेकिन रिसेप्शन से ठंडी आवाज़ आती है—“सॉरी सर, अब आपकी पॉलिसी पर Cashless Treatment उपलब्ध नहीं है, आपको एडवांस कैश जमा करना होगा।”

उस वक्त आपके पैरों तले ज़मीन खिसक जाती है। जिस बीमा पॉलिसी के लिए आपने सालों प्रीमियम भरा, जिस पर भरोसा करके सोचा था कि मुश्किल वक्त में जेब से पैसा नहीं देना पड़ेगा, वही पॉलिसी अचानक बेकार हो चुकी है। यह कोई काल्पनिक दृश्य नहीं है, बल्कि आज भारत के लाखों पॉलिसीधारकों के सामने खड़ी असली हकीकत है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

देशभर के 15,000 से ज्यादा अस्पतालों ने एक झटके में बीमा कंपनियों के साथ अपने कैशलेस इलाज के कॉन्ट्रैक्ट खत्म कर दिए हैं। यह फैसला 1 सितंबर से लागू हो चुका है। और इसका असर सबसे ज्यादा उन आम लोगों पर पड़ा है जो हेल्थ इंश्योरेंस लेते हैं, ताकि अस्पताल का भारी-भरकम खर्च उन्हें अपनी जेब से न चुकाना पड़े। लेकिन अब उन्हें इलाज के लिए पहले अपनी जेब ढीली करनी होगी और बाद में क्लेम की लंबी प्रक्रिया से गुजरना होगा। सवाल उठता है—आखिर ऐसा क्यों हुआ? आखिर क्यों अस्पताल और बीमा कंपनियाँ आम मरीज को बीच का शिकार बना रही हैं?

इस पूरे विवाद की असली वजह है अस्पतालों और बीमा कंपनियों के बीच गहराता संघर्ष। अस्पतालों का कहना है कि बीमा कंपनियाँ 10 साल पुराने रेट पर इलाज कराने पर ज़ोर दे रही हैं। यानी साल 2014 में जो रेट तय हुए थे, आज 2025 में भी वही लागू हैं। लेकिन क्या स्वास्थ्य सेवाओं की लागत पिछले दस सालों में जस की तस रही? दवाइयों की कीमतें, टेस्ट के चार्ज, स्टाफ़ की सैलरी, मेडिकल इक्विपमेंट्स और इंफ्रास्ट्रक्चर का खर्च लगातार बढ़ा है। अस्पतालों का तर्क है कि इलाज की वास्तविक लागत बीमा कंपनियों द्वारा दिए जा रहे पैकेज से कहीं ज्यादा है।

हरियाणा प्राइवेट अस्पताल एसोसिएशन के सदस्य डॉक्टर मनीष मधुकर ने साफ कहा—“बीमा कंपनियाँ मरीजों का इलाज 10 साल पुराने रेट पर कराना चाहती हैं। जबकि इलाज की लागत हर दो साल में अपडेट होनी चाहिए। लेकिन बीमा कंपनियाँ दवाइयों और जांचों के दाम घटा रही हैं, कमरे का किराया कम कर रही हैं, और डिस्चार्ज के बाद बिल पास करने में हफ़्तों लगा रही हैं। इससे अस्पतालों पर आर्थिक बोझ बढ़ रहा है। यही वजह है कि हमने मजबूरी में कैशलेस सुविधा बंद कर दी।”

राजस्थान में हालात और भी गंभीर हैं। वहाँ RGHS योजना के तहत 701 प्राइवेट अस्पतालों ने कैशलेस इलाज बंद कर दिया है। वजह—सरकार पर लगभग 1000 करोड़ रुपये का बकाया भुगतान। इसका असर सीधे-सीधे 35 लाख से ज्यादा सरकारी कर्मचारियों और उनके परिवारों पर पड़ा है। कल्पना कीजिए, एक सरकारी टीचर या पुलिसकर्मी जो पूरी ज़िंदगी ईमानदारी से नौकरी करता है, जब उसके परिवार को इलाज की ज़रूरत होती है तो उसे अस्पताल से जवाब मिलता है—“सरकार ने हमें पैसे नहीं दिए, इसलिए हम इलाज नहीं कर सकते।” यह स्थिति केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मानवीय संकट भी है।

हेल्थ इंश्योरेंस सेक्टर की असली तस्वीर क्लेम रिजेक्शन से साफ होती है। वित्त वर्ष 2024 में बीमा कंपनियों ने 26,000 करोड़ रुपये के क्लेम खारिज कर दिए। यह पिछले साल से 19% ज्यादा है। यानी हर साल लाखों लोग प्रीमियम भरते हैं, लेकिन जब उन्हें मदद की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है, तो बीमा कंपनियाँ किसी न किसी बहाने उनका क्लेम ठुकरा देती हैं। आंकड़े बताते हैं कि 36.5 करोड़ पॉलिसियाँ जारी हुईं, लेकिन जिन क्लेम को मंजूरी मिली, उनकी राशि सिर्फ़ 7.66 लाख करोड़ रही। जबकि 3.53 लाख करोड़ के क्लेम खारिज कर दिए गए। यह आँकड़ा अपने आप में बीमा सेक्टर की सच्चाई बयान करता है।

आम पॉलिसीधारक के सामने अब सवाल है—क्या करें? लोगों ने बीमा इसलिए लिया था ताकि संकट की घड़ी में राहत मिले। लेकिन अब उन्हें खुद अपनी जेब से पैसे खर्च करने होंगे और बाद में बीमा कंपनी से रिफंड के लिए लंबी लड़ाई लड़नी होगी। सोचिए, एक मध्यमवर्गीय परिवार, जिसकी Monthly income 30,000 से 40,000 रुपये है, अगर अचानक 3 से 4 लाख रुपये का ऑपरेशन करना पड़ जाए, तो वह कहाँ से लाएगा यह पैसा? यह संघर्ष सिर्फ़ पैसों का नहीं, बल्कि ज़िंदगी और मौत का हो सकता है।

बीमा कंपनियों का भी अपना पक्ष है। उनका कहना है कि अस्पताल मनमाने दाम वसूलते हैं। मरीज को ज़रूरत न होने पर भी टेस्ट लिखे जाते हैं, दवाइयाँ महँगी ब्रांड की दी जाती हैं, और पैकेज से ज्यादा चार्ज वसूला जाता है। ऐसे में अगर बीमा कंपनियाँ अस्पतालों को पूरी छूट दे दें, तो उनका बिज़नेस मॉडल ही टूट जाएगा। बीमा कंपनियों का तर्क है कि वे केवल वही खर्च मानेंगी, जो “मेडिकली जस्टिफाइड” हो। लेकिन असली नुकसान किसका हो रहा है? आम मरीज का। वह न तो अस्पताल से लड़ सकता है, न बीमा कंपनी से।

भारत में हेल्थ इंश्योरेंस सेक्टर तेजी से बढ़ा है। आज लगभग 40 करोड़ लोग किसी न किसी रूप में बीमा कवरेज के दायरे में हैं। लेकिन असली कवरेज और वास्तविक लाभ बहुत सीमित है। भारत की कुल स्वास्थ्य देखभाल पर होने वाले खर्च का लगभग 55% हिस्सा अभी भी लोग अपनी जेब से देते हैं। यानी बीमा कवरेज होने के बावजूद लोग कर्ज लेते हैं, गहने गिरवी रखते हैं, जमीन बेचते हैं और फिर इलाज कराते हैं। यह विडंबना है कि दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के नागरिकों को अभी भी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए अपनी जेब पर इतना भारी बोझ उठाना पड़ता है।

विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को स्वास्थ्य बीमा सेक्टर में व्यापक सुधार की जरूरत है। सबसे पहले, अस्पतालों और बीमा कंपनियों के बीच एक संतुलन होना चाहिए। न अस्पतालों को यह छूट मिले कि वे मनमाना बिल बनाएं, न बीमा कंपनियाँ इस स्थिति में हों कि वे क्लेम को अनुचित तरीके से रिजेक्ट कर दें। इसके लिए एक Independent regulatory body को सख्ती से निगरानी करनी होगी।

दूसरा, मरीजों के हितों को प्राथमिकता देनी होगी। आज की व्यवस्था में मरीज बीच का सबसे कमजोर धागा है। अस्पताल और बीमा कंपनियाँ दोनों अपनी-अपनी शर्तें थोपते हैं, और मरीज मजबूरी में भुगतता है। अगर भारत को वास्तव में एक “हेल्दी नेशन” बनाना है, तो स्वास्थ्य बीमा पॉलिसियों को पारदर्शी और न्यायपूर्ण बनाना होगा।

तीसरा, सरकार को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। आयुष्मान भारत जैसी योजनाएँ लाखों गरीबों को कवरेज देती हैं। लेकिन मिडिल क्लास, जो प्राइवेट बीमा पर निर्भर है, उसके लिए कोई ठोस सुरक्षा जाल नहीं है। यही वजह है कि इस बार कैशलेस सुविधा बंद होने का सबसे ज्यादा झटका मिडिल क्लास को लगा है।

सोचिए, अगर किसी शहर में 100 लोग एक साथ बीमार पड़ें और 70 के पास बीमा हो, लेकिन अस्पताल उन्हें कह दे कि कैशलेस नहीं है—तो हालात कितने भयावह होंगे। एडमिशन के वक्त कैश जमा करो, वरना इलाज रोक दो। इस स्थिति ने लाखों लोगों को असुरक्षित और बेबस बना दिया है।

अस्पतालों और बीमा कंपनियों की यह जंग केवल पैसों की नहीं, भरोसे की भी है। आम नागरिक ने बीमा पर भरोसा किया था। अस्पताल पर भरोसा किया था। लेकिन जब ज़रूरत पड़ी, तो दोनों ने हाथ खड़े कर दिए। यह भरोसे का संकट है, जो भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था को कमजोर कर सकता है।

अब वक्त आ गया है कि भारत में हेल्थ इंश्योरेंस की परिभाषा बदली जाए। इसे केवल बिज़नेस न माना जाए, बल्कि इसे सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में देखा जाए। क्योंकि स्वास्थ्य केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं है, यह राष्ट्रीय संपत्ति का सवाल है। एक बीमार समाज कभी मजबूत अर्थव्यवस्था नहीं बना सकता।

यह कहानी हमें एक कठोर सच बताती है—बीमा और अस्पतालों के बीच का यह विवाद अगर जल्दी सुलझाया नहीं गया, तो लाखों परिवार दिवालिया हो सकते हैं। यह केवल इलाज की समस्या नहीं होगी, बल्कि आने वाले समय में सामाजिक असंतोष का कारण भी बन सकती है।

भारत को अब एक मजबूत और संतुलित व्यवस्था बनानी होगी। ताकि अगली बार जब कोई पिता अपने बच्चे को अस्पताल लेकर पहुँचे, तो रिसेप्शन पर उसे यह सुनाई न दे—“कैशलेस सुविधा बंद है।” बल्कि यह सुने—“चिंता मत कीजिए, आपका इलाज शुरू हो रहा है।” यही वह भरोसा है, जिसकी तलाश हर भारतीय कर रहा है। यही वह बदलाव है, जिसकी देश को सबसे ज्यादा जरूरत है।

Conclusion

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