एक बंद कमरे में बैठे कुछ सबसे ताकतवर लोग… एक गोपनीय बैठक… और फिर अचानक व्हाइट हाउस से आई एक गूंजती चेतावनी—”अगर किसी ने डॉलर को चुनौती दी.. तो अंजाम भुगतने को तैयार रहे!” ये शब्द किसी साधारण नेता के नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे विवादित और आक्रामक राष्ट्राध्यक्षों में से एक—डोनाल्ड ट्रंप के थे। उन्होंने BRICS देशों की उस कोशिश पर हमला बोला, जो दुनिया की आर्थिक व्यवस्था को ‘डॉलर-मुक्त’ बनाने की दिशा में एक छोटा लेकिन साहसी कदम था। पर क्या ट्रंप की यह धमकी सिर्फ शब्दों का खेल थी, या इसके पीछे छुपा था एक नया वैश्विक व्यापार युद्ध? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अब सिर्फ टैरिफ की भाषा बोल रहे हैं। उनका कहना है कि जो देश डॉलर को दरकिनार करने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। और ये धमकी उन्होंने सिर्फ कागज़ पर नहीं दी—बल्कि साफ-साफ शब्दों में व्हाइट हाउस के मंच से बोल दी। उन्होंने सीधे-सीधे BRICS देशों को निशाने पर लिया—ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका, और अब इसके साथ जुड़े नए सदस्य—मिस्र, इथियोपिया, इंडोनेशिया, ईरान, सऊदी अरब और यूएई।
डोनाल्ड ट्रंप की बातों में एक अलग ही तीखापन था। उन्होंने कहा, “वे डॉलर पर कब्जा करना चाहते हैं… लेकिन हम ऐसा नहीं होने देंगे।” ये शब्द उन्होंने उस मौके पर कहे जब अमेरिका एक नए क्रिप्टोकरेंसी कानून पर दस्तख़त कर रहा था। असल में तो यह कानून डिजिटल असेट्स से जुड़ा था, लेकिन ट्रंप ने इस मंच को BRICS देशों को धमकाने का ज़रिया बना लिया। साफ था—अमेरिका अब किसी भी आर्थिक विद्रोह को बर्दाश्त नहीं करेगा।
ऐसा नहीं है कि ये चेतावनी अचानक आई हो। ट्रंप पहले भी इस मुद्दे को उठाते रहे हैं। पिछले साल उन्होंने कहा था कि अगर BRICS देश डॉलर के खिलाफ कोई संयुक्त करेंसी बनाने की कोशिश करेंगे, तो अमेरिका उन पर 100 फीसदी टैरिफ लगा देगा। और अब, उन्होंने उस चेतावनी को और कड़ा कर दिया है—1 अगस्त तक अगर कोई व्यापार समझौता नहीं होता, तो BRICS देशों को आधिकारिक रूप से नया टैरिफ सिस्टम थमा दिया जाएगा। यानी एक आर्थिक जंग की पूरी तैयारी कर ली गई है। लेकिन सवाल उठता है—क्या सच में ब्रिक्स देश अमेरिकी डॉलर से पीछा छुड़ाना चाहते हैं? क्या ये सिर्फ आर्थिक रणनीति है या अमेरिका के वर्चस्व के खिलाफ बगावत?
दरअसल, BRICS देशों के कई नेता लंबे समय से यह कहते आ रहे हैं कि, अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर का वर्चस्व उनकी अर्थव्यवस्थाओं को कमजोर करता है। रूस और ईरान जैसे देश तो पश्चिमी प्रतिबंधों की वजह से पहले ही डॉलर से अलग रास्ता तलाशने में जुटे हैं। पिछले कुछ सालों में ईरान और रूस ने मिलकर एक नई गोल्ड-सपोर्टेड क्रिप्टोकरेंसी लाने की घोषणा की थी, जो राजनीतिक रूप से तटस्थ रिजर्व करेंसी के तौर पर काम करेगी।
यह सब एक बड़ी तस्वीर की ओर इशारा करता है—एक ऐसी दुनिया जहां डॉलर अब अकेला ‘राजा’ नहीं रहेगा। लेकिन इसी डर से अमेरिका की नींद उड़ी हुई है। और ट्रंप जैसे नेता अब खुलकर धमकी की भाषा में बात कर रहे हैं।
भारत की स्थिति इस पूरे घटनाक्रम में काफी दिलचस्प है। क्योंकि एक ओर वो BRICS का संस्थापक सदस्य है, और दूसरी ओर अमेरिका से मजबूत कारोबारी रिश्ते भी रखता है। जब ट्रंप की धमकी सामने आई, तो भारत ने तुरंत सफाई दी—“हम डी-डॉलराइजेशन की किसी मुहिम में शामिल नहीं हैं।” विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा कि BRICS देशों ने लोकल करेंसी को लेकर ज़रूर चर्चा की है, लेकिन डॉलर को कमजोर करने की कोई साजिश नहीं चल रही। ये बयान साफ तौर पर भारत की कूटनीतिक संतुलन नीति को दर्शाता है।
इस तरह के विरोधाभास BRICS की रणनीति में साफ दिखाई देते हैं। कुछ देश खुलकर डॉलर के विकल्प तलाशना चाहते हैं, तो कुछ देश, खासकर भारत, इसे धीरे-धीरे और संतुलन के साथ करना चाहते हैं। क्योंकि अमेरिका के साथ व्यापारिक रिश्ता किसी भी देश के लिए अचानक खत्म करना आसान नहीं है। और ट्रंप की धमकियों ने इस प्रक्रिया को और भी जोखिम भरा बना दिया है।
अब बात करते हैं कि आखिर डॉलर इतना ताकतवर बना कैसे? इसके पीछे एक लंबा ऐतिहासिक सफर है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद अमेरिका दुनिया की बड़ी शक्तियों में उभरकर आया। 1920 के दशक में डॉलर ने पाउंड स्टर्लिंग को चुनौती देना शुरू किया। फिर 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौता हुआ, जिसमें डॉलर को दुनिया की प्रमुख रिजर्व करेंसी के रूप में मान्यता दी गई। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने आर्थिक, सैन्य और तकनीकी क्षेत्रों में जो बढ़त बनाई, उसने डॉलर को वैश्विक व्यापार का आधार बना दिया।
आज भी दुनिया के लगभग 90% अंतरराष्ट्रीय लेन-देन अमेरिकी डॉलर में होते हैं। तेल, सोना, इलेक्ट्रॉनिक्स, खाद्य पदार्थ—हर क्षेत्र में डॉलर की मौजूदगी है। ऐसे में अगर कोई देश इस सिस्टम से अलग होना चाहता है, तो वह अमेरिका की आंखों में सीधा कांटा बन जाता है।
लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। यूक्रेन-रूस युद्ध, ईरान-इज़राइल तनाव, और अमेरिका की लगातार पॉलिसी से दुनिया भर के देशों को एक संदेश गया—अगर आप डॉलर पर निर्भर हैं, तो अमेरिका के फैसले आपकी अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकते हैं। यही कारण है कि सऊदी अरब, चीन, भारत, मलेशिया, फ्रांस जैसे देश लोकल करेंसी या अन्य विकल्पों पर काम कर रहे हैं।
उदाहरण के तौर पर, भारत और मलेशिया ने कुछ लेनदेन भारतीय रुपए में शुरू किए हैं। चीन ने फ्रांस के साथ युआन में नेचुरल गैस का व्यापार किया। सऊदी अरब ने भी संकेत दिए हैं कि वे अन्य मुद्राओं में व्यापार को तैयार हैं। ये संकेत छोटे हैं, लेकिन इनका महत्व बहुत बड़ा है—ये एक ऐसे बदलाव की शुरुआत है जो डॉलर के वर्चस्व को चुनौती दे सकता है। ट्रंप को इसी बदलाव से डर है। उनकी रणनीति साफ है—डराओ, धमकाओ, और टैरिफ का चाबुक चलाकर रास्ता साफ करो। लेकिन क्या यह रणनीति सफल होगी?
ट्रंप ने यह भी दावा किया कि जब उन्होंने चेतावनी दी, तो BRICS की अगली बैठक में उपस्थित प्रतिनिधियों की संख्या कम हो गई। उन्होंने कहा कि “वे टैरिफ नहीं चाहते थे… वे मुझसे मिलने से भी डरते हैं।” ये शब्द ट्रंप के आत्मविश्वास को दर्शाते हैं, लेकिन साथ ही यह भी दिखाते हैं कि अमेरिका अब ब्रिक्स को एक गंभीर चुनौती के रूप में देख रहा है।
पर इस धमकी की असली सच्चाई क्या है? क्या वाकई अमेरिका BRICS देशों पर 10% एक्स्ट्रा टैरिफ लगाएगा? अगर ऐसा हुआ, तो इसका असर सिर्फ उन देशों पर नहीं, बल्कि खुद अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा। महंगे Import का मतलब है—अमेरिकी उपभोक्ता को ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी, और व्यापार घाटा और बढ़ सकता है।
यानी यह एक दोधारी तलवार है। एक तरफ ट्रंप दुनिया को अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं, दूसरी तरफ अमेरिका के अंदर भी इस नीति के विरोध की आवाज़ें उठ रही हैं। क्योंकि ग्लोबल व्यापार एक जटिल जाल है, जहां एक बदलाव पूरी व्यवस्था को हिला सकता है।
इसलिए भारत जैसे देशों के लिए यह समय बहुत नाज़ुक है। एक तरफ वो BRICS के साथ मिलकर नए रास्ते तलाशना चाहता है, दूसरी तरफ उसे अमेरिका से रिश्ते भी बनाए रखने हैं। यही वजह है कि भारत ने “डी-डॉलराइजेशन” शब्द से दूरी बनाकर, कूटनीतिक संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है।
लेकिन सवाल यही है—क्या ट्रंप की धमकियों से ये आंदोलन थम जाएगा? या दुनिया वाकई अब उस मोड़ पर खड़ी है, जहां अमेरिकी डॉलर का एकाधिकार टूट सकता है? शायद इसका जवाब समय देगा। लेकिन यह तय है कि अब वो दौर नहीं रहा जब अमेरिका के कहने पर पूरी दुनिया चलती थी। अब हर देश अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर फैसले ले रहा है। और यही बात ट्रंप को सबसे ज्यादा परेशान कर रही है।
आखिर में, यह कहानी सिर्फ डॉलर की नहीं है। यह कहानी है ताकत और नियंत्रण की, स्वतंत्रता और विकल्प की। एक तरफ वो देश हैं जो अपनी आर्थिक संप्रभुता चाहते हैं। दूसरी तरफ वो शक्ति है जो नियंत्रण छोड़ने को तैयार नहीं। यह टकराव अभी खत्म नहीं हुआ है। बल्कि यह तो शुरुआत है—एक नई वैश्विक आर्थिक व्यवस्था की शुरुआत। और अगर आपको लगता है कि यह सिर्फ BRICS और अमेरिका की लड़ाई है… तो दोबारा सोचिए। क्योंकि इस लड़ाई का असर हम सब की जेब, बाजार, और भविष्य पर पड़ेगा।
Conclusion
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