एक छोटे से बक्से में अपने कपड़े, एक बिस्तर जो शायद आधा भी न बिछ सके, और आंखों में सपनों का तूफान लेकर जब एक 19 साल का लड़का पटना से मुंबई के लिए निकला, तो किसी ने नहीं सोचा था कि ये लड़का एक दिन दुनिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी में खड़े होकर, हजारों छात्रों को सपनों का पीछा करने की सीख देगा। न तो उसकी जेब में पैसे थे, न पास कोई बड़ी डिग्री, और न ही कोई फैशनेबल ड्रेसिंग सेंस। बस एक चीज थी—जिद… कुछ कर दिखाने की। यही जिद उसे उस मुकाम तक ले गई जहां सिर्फ ताकतवर इरादे पहुंचते हैं। नाम है—Anil Aggarwal। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
बिहार के एक छोटे से गांव में 24 जनवरी 1954 को जन्मे Anil Aggarwal की जिंदगी आसान नहीं थी। उनके पिता की आय महीने में मात्र 400 रुपये थी। इस मामूली रकम में पूरे परिवार का गुज़ारा होता था—चार बच्चों की परवरिश, शिक्षा, घर का राशन, और हर रोज़ का संघर्ष। ये वो वक्त था जब बच्चों को पढ़ाने से ज्यादा ज़रूरी माना जाता था कि वे घर का हाथ बंटाएं। अनिल भी कुछ अलग नहीं थे। उन्होंने स्कूल की पढ़ाई तो किसी तरह पूरी की, लेकिन कॉलेज जाना मुमकिन नहीं हो पाया। घर की हालत ऐसी थी कि उन्होंने पढ़ाई छोड़कर अपने पिता के साथ काम करना शुरू कर दिया।
लेकिन जो चीज Anil Aggarwal को बाकी लोगों से अलग बनाती थी, वो थी उनका सोचने का तरीका। बचपन से ही उनके अंदर एक बिजनेस माइंड था। वे चीज़ों को सिर्फ “काम” के नज़रिये से नहीं, बल्कि “मौका” मानकर देखते थे। यही सोच उन्हें उस मोड़ पर लेकर आई, जब उन्होंने तय किया कि वो नौकरी नहीं, कुछ अपना शुरू करेंगे। लेकिन कहां? कैसे?
सिर्फ 19 साल की उम्र में, वो मुंबई आ गए। साथ में था एक टिफिन बॉक्स, एक छोटा सा बिस्तर और ढेर सारे सपने। जैसे ही मुंबई पहुंचे, पहली बार उन्होंने काली-पीली टैक्सी देखी, ऊंची-ऊंची इमारतें देखीं। वो सब कुछ जो उन्होंने पहले सिर्फ फिल्मों में देखा था, अब उनकी आंखों के सामने था। लेकिन इन बड़ी इमारतों की चमक के पीछे उनके लिए कोई जगह नहीं थी। न रहने को छत थी, न कोई जान-पहचान। लेकिन उन्हें भरोसा था—अगर सपने बड़े हैं, तो रास्ते खुद बनेंगे।
मुंबई पहुंचने के बाद उन्होंने छोटी-सी दुकान किराए पर ली—भोईवाड़ा के मेटल मार्केट में। यही उनकी पहली प्रयोगशाला बनी, जहां उन्होंने मेटल का कबाड़ बेचना शुरू किया। उनके पास न पैसा था, न अनुभव, लेकिन उनमें जज्बा था, जो हर दिन उन्हें आगे बढ़ने की ताकत देता रहा। साल 1970 में उन्होंने मेटल की ट्रेडिंग शुरू की—देश के अलग-अलग हिस्सों से सामान खरीदते और मुंबई में बेचते। धीरे-धीरे कारोबार बढ़ा। मेहनत रंग लाई और उन्होंने अपनी खुद की कंपनी की नींव रखी।
साल 1976 में एक मौका आया, जब एक दिवालिया कंपनी—शमशेर स्टर्लिंग केबल कंपनी—बेचने के लिए उपलब्ध थी। Anil Aggarwal को लगा कि यही वो वक्त है जब वो असली गेम में उतर सकते हैं। लेकिन चुनौती ये थी कि उनके पास पैसे नहीं थे। उन्हें डाउन पेमेंट के लिए 16 लाख रुपये चाहिए थे। आज की तारीख में 16 लाख उतने भारी नहीं लग सकते, लेकिन तब वो रकम किसी मध्यमवर्गीय इंसान के लिए जीवन भर की बचत होती थी।
तब अनिल ने लोन लेने की ठानी। और इस मुश्किल वक्त में दो लोग उनकी मदद के लिए आगे आए—एक टॉप वकील नितिन कांटावाला और सिंडिकेट बैंक के मैनेजर दिनकर पाई। Anil Aggarwal बताते हैं कि जब उन्होंने कंपनी के कागज़ों पर साइन किया, तो उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे। वो खुशी के नहीं थे, वो डर और उम्मीद का मिला-जुला भाव था। क्योंकि उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि अब एक रोलरकोस्टर की सवारी शुरू हो चुकी है।
कंपनी तो खरीद ली, लेकिन असली चुनौती अब शुरू हुई। वर्कर्स की सैलरी, कच्चे माल की खरीद, बिजली, मशीनरी—हर चीज के लिए पैसे चाहिए थे। और पैसे थे नहीं। बैंक के चक्कर लगते रहते, लेकिन कोई आसान रास्ता नहीं दिख रहा था। इस परिस्थिति से निकलने के लिए उन्होंने एक के बाद एक 9 अलग-अलग बिजनेस शुरू किए—एल्युमिनियम रॉड, केबल्स, मैग्नेटिक वायर, सब कुछ आजमाया। लेकिन हर बार असफलता हाथ लगी। कोई बिजनेस नहीं चला।
लगातार मिल रही असफलताओं ने अनिल को अंदर से तोड़ना शुरू कर दिया। वे डिप्रेशन में चले गए। तीन साल तक वे इस मानसिक अवस्था में फंसे रहे। न फिल्मों में दिल लगता, न ज़िंदगी में। सिनेमा “शोले” उनका फेवरेट था, लेकिन वे टिकट खरीदने तक की हालत में नहीं थे। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने मेडिटेशन और व्यायाम से खुद को मजबूत किया, खुद को खड़ा किया और तय किया—अब नहीं रुकना है।
1980 के दशक में भारत सरकार ने टेलीफोन केबल बनाने की मंज़ूरी प्राइवेट कंपनियों को दी। यह Anil Aggarwal के लिए जैसे किसी बंद दरवाज़े के खुलने जैसा था। उन्होंने इसी मौके को भुनाया और Sterlite Industries की नींव रखी। यह कंपनी बाद में भारत की पहली निजी कंपनी बनी जो कॉपर रिफाइनिंग का काम करती थी।
एक वक्त ऐसा भी आया जब उनकी कंपनी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छा गई। Vedanta Resources Limited के नाम से उन्होंने जो साम्राज्य खड़ा किया, वो सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि लंदन स्टॉक एक्सचेंज तक लिस्टेड हुआ। और यही नहीं, आज वे दुनिया के सबसे अमीर भारतीयों में शुमार हैं। उनकी कुल संपत्ति 3.6 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा है।
पर Anil Aggarwal सिर्फ एक बिजनेस टायकून नहीं हैं, वे एक समाजसेवी भी हैं। कोरोना काल में उन्होंने 150 करोड़ रुपए दान किए। उन्होंने यह भी घोषणा की कि वे अपनी संपत्ति का 75 प्रतिशत हिस्सा समाज के नाम करेंगे। महिला दिवस के मौके पर भी उन्होंने करोड़ों रुपए दान कर महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में एक मिसाल कायम की।
लेकिन जो बात सबसे प्रेरणादायक है, वो ये कि Anil Aggarwal ने अपनी जिंदगी को कभी सीधा रास्ता नहीं माना। उन्होंने हर मोड़ को अपनाया, हर गिरावट से सीखा, और हर दर्द को ताकत में बदला। आज वे सोशल मीडिया पर भी अपने संघर्ष और सफलता की कहानियां साझा करते हैं, ताकि देश का युवा समझ सके कि सपने सिर्फ देखे नहीं जाते, उनके पीछे दौड़ना भी पड़ता है।
हाल ही में उन्हें कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी ने आमंत्रित किया—वहां उन्होंने छात्रों को ‘अपने सपनों का पीछा कैसे करें’ इस विषय पर संबोधित किया। सोचिए, एक इंसान जो कभी कॉलेज तक नहीं गया, वह आज दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में भाषण देता है। यह इस बात का प्रमाण है कि डिग्री नहीं, जज़्बा ज़रूरी होता है। सपना देखने की ताकत होनी चाहिए, और फिर उसे पूरा करने की भूख।
Anil Aggarwal की कहानी एक आईना है—जो हमें दिखाता है कि जब आपके पास कुछ भी नहीं होता, तब भी अगर आपके पास “कुछ कर गुजरने की चाहत” है, तो आप सब कुछ पा सकते हैं। गरीबी, असफलता, डिप्रेशन, अकेलापन—इन सबसे लड़कर उन्होंने अपनी तकदीर खुद लिखी।
आज भी अगर आप मुंबई के किसी छोटे से कमरे में बैठे हैं, किसी गली में अपने सपनों के लिए जूझ रहे हैं, तो याद रखिए—एक दिन ऐसा आएगा जब यही गली आपको गर्व से देखेगी। यही सपने आपको कामयाबी की ऊंचाइयों तक ले जाएंगे। बस शर्त इतनी है—सपनों को छोड़ना मत, चाहे कितनी भी ठोकरें क्यों न खानी पड़े। क्योंकि Anil Aggarwal जैसे लोग हमें ये सिखाते हैं—कि असफलता एक पड़ाव है, मंज़िल नहीं। और सपने वो नहीं होते जो नींद में आते हैं… सपने वो होते हैं जो नींद नहीं आने देते।
Conclusion
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