ज़रा सोचिए… आधी रात का समय है। वॉल स्ट्रीट की चमकती इमारतों के बीच सन्नाटा पसरा हुआ है, और अचानक खबर फैलती है कि अमेरिकी सरकार अपने ही कर्ज़ का ब्याज चुकाने में फँस गई है। डॉलर, जिसे पूरी दुनिया सबसे सुरक्षित करेंसी मानती थी, अब डगमगाने लगा है। Investors के बीच अफरातफरी मच जाती है। कोई अपने शेयर बेच रहा है, कोई सोना खरीद रहा है, कोई यूरो की ओर भाग रहा है। इस हड़बड़ाहट के बीच एक देश चुपचाप मुस्कुरा रहा है—चीन।
क्योंकि चीन ने पहले ही इस खतरे को भांपकर अपने कदम खींच लिए थे। उसने वह अमेरिकी खजाना बेचना शुरू कर दिया था, जिसे कभी सुरक्षित Investment समझा जाता था। यह कोई साधारण आर्थिक फैसला नहीं था, बल्कि एक गहरा राजनीतिक संदेश भी था—America की बादशाहत अब पहले जैसी मज़बूत नहीं रही। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
आपको बता दें कि आज America पर 35 से 36 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज़ है। यह आंकड़ा सुनने में जितना बड़ा लगता है, असलियत उससे भी ज्यादा भयावह है। सोचिए, अगर एक इंसान सालाना 10 लाख रुपये कमाता हो और उस पर 15 लाख का कर्ज़ हो, तो उसका जीवन कितना कठिन हो जाएगा। उसे अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा सिर्फ ब्याज चुकाने में लगाना पड़ेगा।
यही हाल आज America का है। उसकी सालाना जीडीपी लगभग 27 ट्रिलियन डॉलर है, लेकिन कर्ज़ उससे भी ज्यादा। यानी पूरा देश एक ऐसे मकान मालिक की तरह जी रहा है, जिसने महल तो बना लिया है, लेकिन हर महीने ब्याज की किस्तें चुकाते-चुकाते उसके पास खुद खाने तक के पैसे नहीं बचते।
यूएस ट्रेज़री को समझना जरूरी है। ये दरअसल सरकारी बॉन्ड्स हैं। जब कोई देश या Investor अमेरिकी ट्रेज़री खरीदता है, तो इसका मतलब है कि उसने अमेरिका को कर्ज़ दिया है। बदले में अमेरिकी सरकार वादा करती है कि तय समय पर वह ब्याज और मूलधन लौटा देगी। लंबे समय तक ये बॉन्ड सबसे सुरक्षित माने जाते थे। पूरी दुनिया को लगता था कि अगर कोई देश कभी धोखा नहीं देगा तो वह America है। लेकिन अब यह भरोसा टूट रहा है।
चीन को डर है कि अगर America अपने कर्ज़ चुकाने में असफल रहा, तो सबसे पहले उसे नुकसान होगा। क्यों? क्योंकि America चीन को दुश्मन की तरह देखता है। ऐसे में अगर कभी अमेरिकी सरकार कहे कि हमारे पास पैसे नहीं हैं, तो सबसे पहले चीन का पैसा डूब जाएगा। यही वजह है कि चीन अब धीरे-धीरे अपना पैसा वापस खींच रहा है। मई में उसकी हिस्सेदारी घटकर 756 अरब डॉलर रह गई, जो 2009 के बाद सबसे कम है। यह उस समय से बहुत नीचे है जब चीन के पास 1.3 ट्रिलियन डॉलर का अमेरिकी खजाना था।
लेकिन यह संकट अचानक पैदा नहीं हुआ। इसकी जड़ें दशकों पुरानी हैं। America ने हमेशा अपने सपनों और अपनी ताक़त को कर्ज़ पर बनाया। वियतनाम युद्ध के दौरान उसने अरबों डॉलर उधार लिए। खाड़ी युद्ध और अफगानिस्तान पर चढ़ाई में भी उसने यही किया। यहां तक कि 2008 के वित्तीय संकट के बाद भी अमेरिकी सरकार ने बड़े पैमाने पर बैंकों को बचाने के लिए ट्रिलियन डॉलर का पैकेज दिया। उस समय भी यह पैसा उसने कर्ज़ उठाकर जुटाया। और इन सबका सबसे बड़ा Investor रहा—चीन।
चीन ने लंबे समय तक America को कर्ज़ इसलिए दिया क्योंकि डॉलर को सबसे सुरक्षित मुद्रा माना जाता था। लेकिन अब चीन को लग रहा है कि यह सुरक्षा केवल एक भ्रम है। अमेरिकी अर्थशास्त्री रिचर्ड वोल्फ तक कह चुके हैं कि चीन ने सही कदम उठाया है। उनका कहना है कि जब कोई आपसे बार-बार कर्ज़ लेता है, तो आपको डर लगने लगता है कि कहीं वह डूब न जाए। यही स्थिति आज America की है।
इतिहास गवाह है कि इतना कर्ज़ America पर पहले सिर्फ युद्धकाल में ही हुआ करता था। द्वितीय विश्व युद्ध के समय अमेरिका ने भारी-भरकम कर्ज़ लिया था। लेकिन वह युद्ध के बाद खत्म हो गया और अमेरिका फिर से पटरी पर आ गया। मगर आज जो हालात हैं, वे शांति काल में कभी नहीं देखे गए। यह पूरी स्थिति टिकाऊ नहीं है।
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियाँ भी America की इस गिरावट को पहचान चुकी हैं। स्टैंडर्ड एंड पुअर्स, मूडीज़ और फिच—तीनों ने अमेरिका की रेटिंग AAA से घटाकर नीचे कर दी है। यह Investors को साफ संदेश है कि America अब उतना भरोसेमंद नहीं रहा जितना पहले था।
अगर कल बाकी देश भी चीन की तरह अमेरिकी बॉन्ड्स बेचने लगे, तो अमेरिकी सरकार की हालत उस दुकानदार जैसी होगी जो रोज़ उधार पर सामान लेता है, लेकिन एक दिन उसका सप्लायर कह दे—अब और उधार नहीं मिलेगा। ऐसे में सरकार को मजबूर होकर ब्याज दरें बढ़ानी होंगी। ब्याज दरें बढ़ेंगी तो आम अमेरिकी नागरिक की जिंदगी पर सीधा असर पड़ेगा। कार की EMI महंगी होगी, मकान का लोन चुकाना मुश्किल हो जाएगा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पहले से ज्यादा महंगी हो जाएगी। यानी अमेरिकी परिवारों का बजट पूरी तरह बिगड़ जाएगा।
रिचर्ड वोल्फ का मानना है कि हालात और बिगड़े तो अमेरिकी सरकार को अपने खर्च में भारी कटौती करनी होगी। और सबसे पहले चोट पड़ेगी सोशल सिक्योरिटी जैसे कार्यक्रमों पर। इसका मतलब है कि बुजुर्गों को पेंशन नहीं मिलेगी, गरीबों को मेडिकल बेनिफिट्स नहीं मिलेंगे और मिडिल क्लास की सुरक्षा छिन जाएगी। सोचिए, वह देश जो पूरी दुनिया को लोकतंत्र और पूंजीवाद का मॉडल बताता है, वहाँ के नागरिकों को अपने बुढ़ापे की सुरक्षा भी नहीं मिलेगी।
यही वह जगह है जहाँ भारत की भूमिका अहम हो जाती है। भारत आज दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। उसकी 140 करोड़ की आबादी, तेजी से बढ़ता मध्यम वर्ग और मज़बूत टेक्नोलॉजी सेक्टर उसे नई ताक़त बना रहे हैं। America और भारत के बीच हाल ही में खटास आई है। टैरिफ युद्ध, वीज़ा विवाद और रूस-यूक्रेन युद्ध पर अलग-अलग स्टैंड ने दोनों देशों के बीच तनाव पैदा किया है। ऐसे में चीन को मौका मिल रहा है कि वह भारत को अपने पाले में करे।
ब्रिक्स और ग्लोबल साउथ जैसे मंचों पर चीन बार-बार भारत को बराबरी का दर्जा देने की कोशिश कर रहा है। चीन जानता है कि अगर भारत उसके साथ खड़ा हो गया, तो अमेरिका को सबसे बड़ा झटका लगेगा। भारत भी यह समझता है कि अब उसके पास ताक़त है। वह चाहे तो America और चीन दोनों से फायदा ले सकता है।
लेकिन भारत के लिए यह फैसला आसान नहीं है। अमेरिका उसका सबसे बड़ा रक्षा और टेक्नोलॉजी पार्टनर है। वहीं चीन उसका सबसे बड़ा पड़ोसी और सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी। भारत को बहुत सोच-समझकर कदम उठाना होगा। एक तरफ अमेरिका की डूबती हुई अर्थव्यवस्था है, दूसरी तरफ चीन की चालाकी। और इनके बीच भारत है, जो खुद को एक नई वैश्विक ताक़त के रूप में देख रहा है।
यह कहानी हमें बताती है कि दुनिया की राजनीति और अर्थव्यवस्था अब पूरी तरह बदल रही है। अमेरिका, जो कभी अजेय दिखता था, अब अपने ही कर्ज़ में दबा हुआ है। चीन, जिसने लंबे समय तक अमेरिका पर भरोसा किया, अब उससे बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है। और भारत, जो कभी सिर्फ़ एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था माना जाता था, अब इस खेल का निर्णायक खिलाड़ी बन चुका है। दुनिया की नज़रें अब भारत पर हैं।
Conclusion
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