कभी-कभी दुनिया की सबसे ताकतवर कुर्सी पर बैठा एक इंसान, कुछ शब्दों या एक हस्ताक्षर से इतिहास की दिशा बदल देता है। क्या आपने कल्पना की है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एक फैसले से भारत के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से एक, गौतम Adani की किस्मत बदल सकती है? क्या एक कानून की ढील, रिश्वत और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर आरोपों को धुंधला कर सकती है?
और अगर ऐसा हो गया, तो क्या ये पूरी दुनिया में कारोबारी नैतिकता के लिए खतरे की घंटी नहीं होगी? ये कहानी सिर्फ एक निर्णय की नहीं, बल्कि उस छुपे हुए global system की है जहां सत्ता, पैसा और राजनीति आपस में मिलकर तय करते हैं कि किसे सजा मिलेगी और किसे माफी। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
अमेरिका में सत्ता संभालने के बाद से ही डोनाल्ड ट्रंप के फैसले अक्सर विवादों और सरप्राइज़ से भरे रहे हैं। एक ओर वो चीन पर टैरिफ लगाकर व्यापार युद्ध छेड़ते हैं, तो दूसरी ओर कुछ ऐसी नीतियों पर भी काम करते हैं जो सीधे तौर पर उनके सहयोगियों और राजनीतिक डोनर्स को फायदा पहुंचा सकती हैं।
हाल ही में ट्रंप प्रशासन ने एक ऐसा फैसला लिया है, जिसने न सिर्फ वॉल स्ट्रीट बल्कि अंतरराष्ट्रीय न्याय व्यवस्था तक में हलचल मचा दी है। यह फैसला उन सफेदपोश अपराधों—जिनमें विदेशी रिश्वतखोरी, सार्वजनिक भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग जैसे अपराध शामिल हैं—पर अमेरिका की सख्ती को नरम कर देता है।
इस फैसले के पीछे ट्रंप का वो कार्यकारी आदेश है, जिस पर उन्होंने दो महीने पहले हस्ताक्षर किए थे। इस आदेश में अमेरिकी न्याय विभाग को यह निर्देश दिया गया था कि वे ऐसे मामलों में अभियोजन ना करें, जहां अमेरिकी नागरिक या कंपनियां किसी विदेशी अधिकारी को रिश्वत देकर कोई व्यापारिक सौदा हासिल करने की कोशिश कर रहे हों।
ट्रंप का तर्क है कि ऐसी प्रथाएं दुनिया के कई हिस्सों में आम हैं और सिर्फ अमेरिकी कंपनियों को ही दंडित करने से वे Global competition में पिछड़ जाती हैं। लेकिन यही बात अब सवालों के घेरे में है—क्या ये फैसला अमेरिकी मूल्यों से समझौता है?
इस आदेश का सबसे बड़ा फायदा उन कंपनियों को मिल सकता है, जो पहले से रिश्वतखोरी या भ्रष्टाचार के मामलों में जांच के घेरे में थीं। और ऐसी ही एक प्रमुख कंपनी है भारत की अडानी ग्रुप। वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार, अडानी ग्रुप से जुड़ी कुछ फर्मों पर अमेरिकी जांच एजेंसियों ने विदेशी रिश्वत स्कीम में शामिल होने का आरोप लगाया था।
रिपोर्ट में कहा गया कि अडानी ग्रुप के कुछ शीर्ष अधिकारियों के खिलाफ अमेरिकी अदालतों में आपराधिक मामले चल रहे हैं। लेकिन ट्रंप के इस नए आदेश के बाद अब इन मामलों की प्रकृति ही बदल सकती है। ये सिर्फ एक राहत नहीं, बल्कि एक बड़ा राजनीतिक संदेश भी हो सकता है।
रिपोर्ट बताती है कि Azure Power नाम की कंपनी, जिसने अडानी ग्रुप की एक फर्म के साथ सौर ऊर्जा परियोजना के लिए कॉन्ट्रैक्ट किया था, अब इस नीति से राहत पा सकती है। यानी अडानी ग्रुप पर लगे संभावित आरोप न केवल कमजोर हो सकते हैं, बल्कि पूरी तरह रद्द भी हो सकते हैं।
इस मामले में सबसे रोचक बात ये है कि अडानी ग्रुप ने इन सभी आरोपों को शुरू से ही ‘निराधार’ बताया है। अब, जब अमेरिकी प्रशासन ही इन मामलों को लागू करने से पीछे हट रहा है, तो अडानी ग्रुप की स्थिति और भी मजबूत हो जाती है।
ट्रंप सरकार के इस फैसले का असर केवल अडानी तक सीमित नहीं रहेगा। एक और नाम सामने आया है—Cognizant। ये एक अमेरिकी IT कंपनी है, जिसका बड़ा ऑपरेशन भारत में भी है। रिपोर्ट के अनुसार, न्यू जर्सी की नवनियुक्त अमेरिकी वकील अलीना हब्बा, जो पहले ट्रंप की कानूनी टीम में थीं, ने भारत में रिश्वत देने के आरोपी Cognizant के पूर्व अधिकारियों के खिलाफ केस रद्द करने का प्रस्ताव रखा है। यह भी दिखाता है कि ट्रंप प्रशासन किस हद तक इन मामलों को नरम बनाने में जुटा हुआ है।
वॉल स्ट्रीट जर्नल द्वारा देखे गए न्याय विभाग के एक आंतरिक ज्ञापन में यह साफ-साफ कहा गया है कि पाम बोंडी—जो इस समय अमेरिकी अटॉर्नी जनरल हैं—ने अभियोजन पक्ष को निर्देश दिया है कि वे FCPA यानी Foreign Corrupt Practices Act के अंतर्गत तब तक कोई नई जांच या कार्रवाई न करें जब तक कि ट्रंप प्रशासन एक नया “revised enforcement guidance” जारी नहीं करता। यानी अब से विदेशी रिश्वत के मामलों की जांच भी राजनीतिक मंशा के आधार पर तय होगी।
एफसीपीए एक ऐसा कानून है जो 1977 में बना था और इसका मकसद था कि, अमेरिकी कंपनियां विदेशी अधिकारियों को रिश्वत देकर अनुचित लाभ न लें। लेकिन अब ट्रंप प्रशासन का तर्क है कि यह कानून अमेरिकी कंपनियों को नुकसान पहुंचाता है, क्योंकि विदेशी कंपनियां बिना रोक-टोक ऐसे सौदे करती हैं। यानी जहां पहले नैतिकता और पारदर्शिता का बोलबाला था, अब वहां प्रतियोगिता और प्रॉफिट का तर्क ज्यादा हावी हो गया है।
2024 में अमेरिकी न्याय विभाग और Securities and Exchange Commission (SEC) ने FCPA से जुड़ी 26 प्रवर्तन कार्रवाइयां दर्ज की थीं। साल के अंत तक कम से कम 31 कंपनियों के खिलाफ जांच चल रही थी। इन सभी मामलों पर अब एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है, क्योंकि ट्रंप प्रशासन ने इन कार्रवाइयों की समीक्षा के लिए पूरी नई रणनीति तैयार की है। यह रणनीति न केवल अमेरिकी कंपनियों को राहत देने वाली है, बल्कि उन्हें Moral competition के बजाय व्यावसायिक आक्रामकता के लिए प्रोत्साहित करती है।
ट्रंप के इस फैसले से एक और बड़ा असर यह हुआ है कि अब उन कंपनियों को भी छूट मिल रही है, जिन्हें पहले कोर्ट द्वारा दोषी ठहराया जा चुका था। उदाहरण के तौर पर, स्विट्जरलैंड की कमोडिटी ट्रेडिंग कंपनी Glencore, जिसने 2022 में विदेशी रिश्वतखोरी और बाजार हेरफेर के मामलों में दोष स्वीकार किया था, उसे अब दो compliance monitors से मुक्ति मिल गई है। इसका सीधा मतलब है कि कंपनी को लगभग 140 मिलियन डॉलर के नुकसान से राहत मिल गई। यानी पहले जो मामला आपराधिक था, वह अब एक बिजनेस रिव्यू में तब्दील हो चुका है।
ट्रंप का माफीनामा यहीं खत्म नहीं होता। उन्होंने मार्च के अंत में Nikola कंपनी के संस्थापक ट्रेवर मिल्टन को भी माफ कर दिया। यह वही व्यक्ति था, जिसने अपनी कंपनी के जीरो-एमिशन ट्रकों और तकनीक के बारे में झूठ बोलकर Investors को धोखा दिया था। मज़े की बात ये है कि वह ट्रंप का डोनर भी रहा है। क्या यह सिर्फ एक इत्तेफाक है? या फिर ट्रंप के फैसलों में व्यक्तिगत नजदीकियां और राजनीतिक फायदे का गणित छिपा हुआ है?
इसी तरह BitMEX क्रिप्टो एक्सचेंज के तीन संस्थापकों को भी माफ कर दिया गया। इन पर मनी लॉन्ड्रिंग के खिलाफ नियंत्रण न रखने का आरोप था और वे दोषी भी पाए गए थे। लेकिन ट्रंप ने न केवल इन व्यक्तियों को माफ किया, बल्कि कंपनी को 100 मिलियन डॉलर के जुर्माने से भी बचा लिया। यह फैसला साफ करता है कि ट्रंप की नजर में जब बात अमेरिकी कंपनियों की प्रतिस्पर्धात्मकता की आती है, तो कानून की किताब को एक तरफ रखा जा सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या इन सभी फैसलों के पीछे सिर्फ अमेरिकी आर्थिक हित हैं? या फिर यह एक राजनीतिक योजना है जिसमें कानून को झुका कर अपने करीबी व्यापारियों, सहयोगियों और डोनर्स को फायदा पहुंचाया जा रहा है? और अगर यह ट्रेंड यूं ही जारी रहा, तो आने वाले समय में क्या किसी भी सफेदपोश अपराध पर कार्रवाई हो पाएगी? क्या दुनिया की सबसे ताकतवर न्याय प्रणाली भी अब सत्ता के दबाव में कमजोर पड़ रही है?
इस पूरी कहानी में एक बात तो साफ है—ट्रंप के फैसले ने दुनिया भर के कारोबारियों को एक मैसेज दे दिया है कि अगर आप अमेरिका के साथ हैं, तो आप पर लगे गंभीर आरोप भी सिर्फ ‘बिजनेस डील’ बन सकते हैं। और यही बात आज गौतम अडानी जैसे उद्योगपतियों के लिए राहत लेकर आई है।
जहां एक ओर भारत में उनके खिलाफ राजनीतिक विपक्ष लगातार सवाल उठा रहा है, वहीं अमेरिका में उन्हें अब कानूनी सुरक्षा की नई परत मिल गई है। पर सवाल ये भी है कि क्या ऐसे फैसलों से Global व्यापार और Investment को सही दिशा मिलेगी? या फिर यह एक ऐसी लहर की शुरुआत है, जो नैतिकता और न्याय की नींव को ही हिला देगी?
Conclusion
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