Trade War: Tariff पर बौखलाएंगे ट्रंप! अगर 140 करोड़ भारतीयों ने मान ली मोदी की बात तो बदल जाएगा खेल।

ज़रा सोचिए… अगर कल सुबह आप अखबार खोलें और उसमें मोटे-मोटे अक्षरों में छपा हो—“भारत ने अमेरिकी कंपनियों का बहिष्कार शुरू कर दिया है!” अचानक आपके मन में सवाल उठेंगे—क्या वाकई यह संभव है? क्या 140 करोड़ भारतीय सचमुच मिलकर अमेरिकी कंपनियों के खिलाफ खड़े हो सकते हैं? और अगर ऐसा हुआ, तो उन 30 अमेरिकी कंपनियों का क्या होगा जो हर भारतीय के घर तक अपनी पकड़ बना चुकी हैं?

मोबाइल से लेकर मैगी तक, कपड़ों से लेकर कोल्ड ड्रिंक तक, हर जगह मौजूद अमेरिकी ब्रांड अगर एक झटके में भारत से बाहर हो जाएँ, तो क्या अमेरिका की इकोनॉमी काँप जाएगी? यह सवाल ही इतना बड़ा है कि वॉशिंगटन से लेकर वॉल स्ट्रीट तक हलचल मच सकती है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 50% का एकतरफा Tariff लगाया। हैरानी की बात यह है कि चीन जैसे सबसे बड़े दुश्मन पर उन्होंने सिर्फ़ 34% Tariff लगाया, लेकिन भारत को सीधा 50% की मार दी। भारत ने इसे अनुचित करार दिया।

और अब यह मामला सिर्फ़ Tariff तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारत की आर्थिक अस्मिता, आत्मनिर्भरता और वैश्विक राजनीति की कहानी बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही कई बार मंचों से कह चुके हैं—“वोकल फ़ॉर लोकल बनिए।” यानी विदेशी ब्रांड छोड़िए, और भारतीय उत्पाद अपनाइए। लेकिन सवाल यह है कि अगर इस बार वाकई 140 करोड़ लोग उनकी इस बात को जीवन में उतार लें, तो भारत में अमेरिकी कंपनियों का क्या होगा? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

आपको बता दें कि भारत में अमेरिकी कंपनियों का साम्राज्य कोई छोटा-मोटा नहीं है। Amazon से लेकर Apple, Microsoft से लेकर Google, Pepsi से लेकर Coca-Cola, और McDonald’s से लेकर Nike तक—हर सेक्टर में अमेरिकी कंपनियाँ गहरी पकड़ बना चुकी हैं। ई-कॉमर्स, IT, सोशल मीडिया, बैंकिंग, फास्ट-फूड, FMCG, कपड़े, घड़ियाँ, दवाइयाँ—आप नाम लीजिए, और वहाँ अमेरिका मौजूद है। हर भारतीय घर की रसोई में, हर अलमारी में, हर जेब में, हर स्मार्टफोन में कहीं न कहीं अमेरिकी कंपनियाँ धड़क रही हैं। और यही वजह है कि अगर भारत ने बदला लेना चाहा, तो अमेरिका के सीने पर सीधा बोझ पड़ेगा।

पहले जरा अमेज़न को ही देखिए। यह अमेरिकी दिग्गज भारत के 97% पिनकोड तक पहुँच चुका है। यानी लगभग हर घर तक। लाखों लोग रोज़ इससे सामान खरीदते हैं। अगर कल से भारतीय उपभोक्ता अमेज़न को छोड़कर फ्लिपकार्ट, मिंत्रा, टाटा क्लिक, रिलायंस डिजिटल जैसे प्लेटफॉर्म्स पर चले जाएँ, तो अमेज़न इंडिया का बिज़नेस ताश के पत्तों की तरह बिखर सकता है। यह नुकसान सिर्फ़ भारत तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसकी गूंज अमेरिका तक सुनाई देगी।

अब Apple को लीजिए। iPhone भारत में एक स्टेटस सिंबल बन चुका है। भारत Apple के लिए दुनिया का सबसे बड़ा उभरता हुआ बाजार है। हाल ही में कंपनी ने भारत में प्रोडक्शन बढ़ाना शुरू किया है। लेकिन यह कंपनी अमेरिकी है। अगर भारतीय उपभोक्ता Apple से मुंह मोड़ लें और Samsung, OnePlus, Xiaomi या भारत में बने स्मार्टफोन्स की ओर मुड़ जाएँ, तो Apple को सीधा झटका अमेरिका की इकोनॉमी पर पड़ेगा।

Google और Microsoft का नाम कौन नहीं जानता? आज हर भारतीय गूगल सर्च करता है, एंड्रॉइड इस्तेमाल करता है, जीमेल से मेल भेजता है। Microsoft का विंडोज़ और ऑफिस सॉफ़्टवेयर लगभग हर कंप्यूटर में चलता है। अगर भारत ने डेटा पॉलिसी कड़ी कर दी, या लोकल अल्टरनेटिव्स को प्रमोट करना शुरू कर दिया, तो इन कंपनियों की कमाई में सीधी गिरावट होगी।

सोशल मीडिया पर नज़र डालें तो Facebook यानी Meta और X (पूर्व में Twitter) का दबदबा है। करोड़ों भारतीय रोज़ इन पर समय बिताते हैं। अगर भारतीय सरकार ने डिजिटल स्वदेशी विकल्पों जैसे कू ऐप या Share Chat को प्रमोट करना शुरू कर दिया, और जनता ने इन्हें अपनाना शुरू कर दिया, तो Meta और X की Advertising revenue पर सीधा असर होगा।

FMCG सेक्टर तो अमेरिकी कंपनियों का गढ़ है। PepsiCo, Coca-Cola, Procter & Gamble, Johnson & Johnson, Colgate, Kellogg’s, Mars, Mondelez—इनका नाम लीजिए और आपको एहसास होगा कि हम रोज़ाना कितने अमेरिकी प्रोडक्ट्स खा-पी और इस्तेमाल कर रहे हैं। हर घर में कोलगेट का टूथपेस्ट, टाइड का डिटर्जेंट, कुरकुरे का पैकेट, मैगी या कैडबरी की चॉकलेट जरूर होती है। लेकिन अगर भारतीय उपभोक्ता यह तय कर लें कि अब वे पतंजलि, अमूल, हमदर्द, ITC, मैरीको और पारले जैसे देसी विकल्प चुनेंगे, तो अमेरिकी कंपनियों की बुनियाद हिल जाएगी।

फास्ट फूड सेक्टर में अमेरिकी कंपनियों की धाक और भी बड़ी है। McDonald’s, KFC, Domino’s, Pizza Hut, Starbucks—इनका कारोबार अरबों का है। लेकिन अगर भारत इन पर शिकंजा कस दे, और भारतीय उपभोक्ता हल्दीराम, बिकाजी, सरवणा भवन, या देसी चाट-पकौड़ी की ओर लौट जाएँ, तो यह अमेरिकी दिग्गज एक झटके में ध्वस्त हो जाएंगे।

लाइफस्टाइल और फैशन की दुनिया में भी अमेरिकी कंपनियाँ युवाओं का दिल जीत चुकी हैं। Nike, Levi’s, Skechers, Fossil, Gap, Guess—ये सारे ब्रांड भारतीय युवाओं की अलमारी में जगह बना चुके हैं। लेकिन अगर लोग इन्हें छोड़कर खादी, फैबइंडिया, रिलायंस ट्रेंड्स, टाटा का वेस्टसाइड या भारतीय स्टार्टअप्स को अपनाएँ, तो अमेरिकी ब्रांड्स भारत में टिक नहीं पाएंगे।

अब सवाल है—क्या यह संभव है? क्या भारतीय उपभोक्ता वास्तव में ऐसा करेंगे? प्रधानमंत्री मोदी का बार-बार दिया गया संदेश “स्वदेशी अपनाओ” सिर्फ़ भावनात्मक अपील नहीं है, बल्कि यह रणनीतिक हथियार भी बन सकता है। अगर भारत ने यह रास्ता चुना, तो अमेरिका को सिर्फ़ आर्थिक नहीं, बल्कि कूटनीतिक झटका भी लगेगा।

भारत और अमेरिका का व्यापारिक रिश्ता बेहद बड़ा है। 2024 में दोनों देशों के बीच कुल व्यापार 132 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचा। भारत ने 87 बिलियन डॉलर का Export किया और 45 बिलियन डॉलर का Import किया। यानी संतुलन भारत के पक्ष में है। और यही कारण है कि अगर भारत अमेरिकी कंपनियों पर चोट करता है, तो असर सीधा अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर होगा।

इतिहास गवाह है कि भारत ने जब भी स्वदेशी की राह अपनाई है, उसने वैश्विक ताकतों को हिलाकर रख दिया है। याद कीजिए महात्मा गांधी का “स्वदेशी आंदोलन”—विदेशी कपड़ों का बहिष्कार और चरखा कातने का अभियान ब्रिटिश हुकूमत के लिए सबसे बड़ा आर्थिक झटका था। आज वही कहानी दोहराई जा सकती है, लेकिन इस बार मुकाबला अमेरिका से है।

अगर 140 करोड़ भारतीय मिलकर यह तय कर लें कि वे अमेज़न से सामान नहीं खरीदेंगे, Pepsi और Coke नहीं पिएंगे, McDonald’s और Domino’s के बजाय हल्दीराम और देसी ठेला अपनाएँगे, Apple की जगह देसी स्मार्टफोन ब्रांड्स को चुनेंगे, तो अमेरिकी कंपनियों की जड़ें हिल जाएंगी। और यह झटका इतना बड़ा होगा कि वॉशिंगटन की राजनीति तक बदल सकती है।

लेकिन यहाँ एक चेतावनी भी है। यह रास्ता आसान नहीं है। अमेरिकी कंपनियाँ भारत में सिर्फ़ बेचती ही नहीं, बल्कि लाखों भारतीयों को रोजगार भी देती हैं। Amazon, Microsoft, Google, Apple—इनके दफ़्तरों में लाखों भारतीय काम कर रहे हैं। Pepsi और Coke की फैक्ट्रियों में हज़ारों लोग नौकरी कर रहे हैं। McDonald’s और Domino’s के आउटलेट्स में युवाओं को रोजगार मिलता है। यानी अमेरिकी कंपनियों का बहिष्कार करने का असर सिर्फ़ अमेरिका पर ही नहीं, बल्कि भारत की नौकरी और रोज़गार पर भी पड़ेगा। यही वजह है कि सरकार को भावनात्मक नहीं, बल्कि रणनीतिक कदम उठाने होंगे।

भारत चाहे तो काउंटर टैरिफ लगा सकता है। यानी अमेरिकी प्रोडक्ट्स पर ज्यादा टैक्स लगाकर उन्हें महँगा कर सकता है, ताकि उपभोक्ता अपने आप देसी ब्रांड्स की ओर बढ़ें। साथ ही, भारत अपने लोकल ब्रांड्स को सब्सिडी और सपोर्ट देकर उन्हें मज़बूत बना सकता है। यही असली जवाब होगा ट्रंप के टैरिफ टेरर का।

Conclusion

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