ज़रा सोचिए… जन्माष्टमी की रात है। मंदिर की घंटियां इतनी जोर से बज रही हैं कि कानों में गूंजती आवाज़ सीधा दिल तक उतर जाती है। धूप और अगरबत्ती की सुगंध हवा में घुली हुई है। हजारों लोग भजन और कीर्तन में डूबे हैं, उनके चेहरे पर भक्ति और उत्साह झलक रहा है। हर तरफ रोशनी, हर कोने में सजावट, हर आंगन में प्रसाद की महक।
लोग कहते हैं यह भक्ति है… लेकिन मन के किसी कोने में अचानक एक सवाल उठता है—क्या यह सब सिर्फ भक्ति है? या इसके पीछे अरबों की कमाई का एक तंत्र भी छिपा है? यही सवाल हमें ISKCON की उस रहस्यमयी दुनिया की ओर ले जाता है, जहां आस्था और अर्थव्यवस्था दोनों का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
ISKCON यानी इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस—आज यह नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसकी नींव भारत में नहीं, बल्कि हजारों किलोमीटर दूर अमेरिका की धरती पर रखी गई थी? जी हाँ, साल 1966 में न्यूयॉर्क की व्यस्त गलियों में एक भारतीय साधु ए सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने इसका बीजारोपण किया।
उनके पास न पैसा था, न ही कोई बड़ा संगठन। सिर्फ एक चटाई, कुछ किताबें और अटूट विश्वास कि श्रीकृष्ण का संदेश दुनिया को बदल सकता है। शायद उस समय किसी ने सोचा भी नहीं था कि यही आंदोलन आगे चलकर 650 से ज्यादा मंदिरों का जाल बिछा देगा, और करोड़ों की कमाई करने वाला एक अंतरराष्ट्रीय आध्यात्मिक साम्राज्य बन जाएगा।

प्रभुपाद की यात्रा अपने आप में एक प्रेरणा है। 69 साल की उम्र में उन्होंने समुद्र पार किया, जहाज पर बीमार हुए, तकलीफें झेलीं, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। अमेरिका पहुंचने के बाद भी कोई रेड कार्पेट वेलकम नहीं था। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। न्यूयॉर्क की गलियों में बैठकर कीर्तन किया, भगवद गीता बांटी, और धीरे-धीरे वहां के युवा उनके भक्त बनते चले गए। यह वही समय था जब अमेरिका में हिप्पी कल्चर चरम पर था। नशे और भटकाव से जूझते युवाओं को प्रभुपाद ने कृष्ण भक्ति में एक नया रास्ता दिखाया। यही वह मोड़ था, जहां से ISKCON की कहानी ने एक नया अध्याय शुरू किया।
आज दुनिया भर में 650 से ज्यादा मंदिर और सैकड़ों सेंटर ISKCON की शक्ति का प्रमाण हैं। भारत में दिल्ली का ISKCON मंदिर, वृंदावन का भव्य परिसर, मुंबई का जुहू मंदिर—ये सब इस संगठन की चमक को दिखाते हैं। वहीं विदेशों में लंदन का ISKCON मंदिर, अमेरिका के लॉस एंजेलिस और न्यूयॉर्क के सेंटर, रूस और ऑस्ट्रेलिया तक फैला इसका नेटवर्क। हर मंदिर करोड़ों की लागत से बना है और हर साल लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं। लेकिन इतना सब कुछ बनाए रखने के लिए पैसा कहां से आता है? यही है इस्कॉन की असली कमाई का खेल।
ISKCON की कमाई का पहला और सबसे बड़ा स्रोत है—दान। भक्त भगवान को प्रसन्न करने के लिए चढ़ावा चढ़ाते हैं। कोई नकद देता है, कोई सोना-चांदी, तो कोई अपनी जमीन और संपत्ति तक दान कर देता है। जन्माष्टमी जैसे पर्व पर तो यह दान बाढ़ की तरह बहता है। मंदिर प्रशासन के पास गिनने तक की फुर्सत नहीं होती। लाखों-करोड़ों रुपये का चढ़ावा एक ही रात में इकट्ठा हो जाता है। यह पैसा मंदिर के रखरखाव, सजावट, आयोजन और भविष्य की परियोजनाओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
दूसरा बड़ा स्त्रोत है—पुस्तकें। प्रभुपाद ने अपने जीवन में सैकड़ों ग्रंथ लिखे और अनुवाद किए। भगवद गीता और श्रीमद्भागवतम के उनके संस्करण आज दुनिया भर में बिकते हैं। सड़क पर खड़े होकर भक्त इन किताबों को बेचते हैं, एयरपोर्ट पर यात्रियों को मुफ्त भेंट करते हैं, और बड़े पैमाने पर प्रचार करते हैं। यह किताबें सिर्फ धार्मिक साहित्य नहीं हैं, बल्कि ISKCON की विचारधारा फैलाने का सबसे मजबूत साधन हैं। और इनकी बिक्री से हर साल करोड़ों रुपये आते हैं।
तीसरा और बेहद दिलचस्प स्रोत है—भोजन। “Govinda’s” नाम से चलने वाले ISKCON के रेस्टोरेंट्स में सात्विक और शुद्ध शाकाहारी भोजन मिलता है। इन रेस्टोरेंट्स की खासियत यह है कि यहां परोसा जाने वाला हर निवाला भगवान को पहले भोग लगाया जाता है, और फिर लोगों को दिया जाता है। इस भावना के साथ लोग इसे खाने के लिए उत्सुक रहते हैं। दिल्ली, मुंबई, लंदन, न्यूयॉर्क—हर जगह इन रेस्टोरेंट्स की धूम है। लाखों की कमाई यहां से भी होती है।
अब सवाल उठता है—क्या ISKCON अमेरिकी संस्था है? क्योंकि इसकी शुरुआत अमेरिका में हुई थी। लेकिन सच्चाई यह है कि यह किसी देश की संस्था नहीं, बल्कि एक वैश्विक आंदोलन है। अमेरिका ने इसे जन्म दिया, लेकिन इसकी आत्मा भारत से जुड़ी है। यह संगठन कृष्ण चेतना को पूरी दुनिया तक ले जाने का काम करता है। न्यूयॉर्क की एक छोटी सी शुरुआत आज भारत के वृंदावन और मायापुर जैसे शहरों को आध्यात्मिक केंद्र बना चुकी है।
इस्कॉन की ताकत सिर्फ पैसों तक सीमित नहीं है। यह संगठन एक ब्रांड की तरह काम करता है। इसके मंदिरों की सजावट, प्रबंधन और कार्यक्रम इतने भव्य होते हैं कि लोग आकर्षित हुए बिना नहीं रहते। यहां पर आधुनिक मैनेजमेंट तकनीकों का इस्तेमाल होता है। दान के लिए ऑनलाइन सिस्टम, डिजिटल पेमेंट से लेकर सोशल मीडिया पर प्रचार—सब कुछ प्रोफेशनल अंदाज़ में किया जाता है। यही कारण है कि ISKCON आज सिर्फ मंदिरों का जाल नहीं है, बल्कि एक इंटरनेशनल मूवमेंट है, जो युवाओं, विदेशी भक्तों और यहां तक कि गैर-हिंदुओं को भी आकर्षित करता है।
जन्माष्टमी जैसे मौके ISKCON के लिए किसी मेगा फेस्टिवल से कम नहीं होते। एक-एक मंदिर में लाखों लोग उमड़ते हैं। झांकियां, भजन, भव्य रथयात्राएं, प्रसाद वितरण—इन सबके बीच दान का अंबार लग जाता है। यह पैसा सिर्फ मंदिरों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि इससे स्कूल, अस्पताल, और चैरिटी प्रोजेक्ट भी चलाए जाते हैं। “Food for Life” नामक प्रोजेक्ट के जरिए ISKCON ने करोड़ों भूखे लोगों को खाना खिलाया है।
हालांकि आलोचना भी कम नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि भक्ति को बिज़नेस बना दिया गया है। मंदिर अब आस्था का केंद्र कम और कमाई का साधन ज्यादा लगते हैं। दान और फंडिंग को लेकर पारदर्शिता पर सवाल उठते हैं। लेकिन ISKCON का कहना है कि उनकी हर कमाई भगवान और समाज की सेवा में लगती है। शिक्षा, भोजन और चैरिटी पर खर्च किया गया हर रुपया इसका सबूत है।
युवाओं के बीच ISKCON की लोकप्रियता का कारण भी दिलचस्प है। आधुनिक जीवन की भागदौड़ में जहां लोग शांति ढूंढ रहे हैं, वहीं इस्कॉन का कीर्तन और भक्ति उन्हें एक नई ऊर्जा देता है। विदेशी भी “हरे कृष्ण” मंत्र से इतने प्रभावित होते हैं कि जीवनभर के लिए भक्त बन जाते हैं। उनके लिए यह सिर्फ धर्म नहीं, बल्कि एक जीवनशैली है।
यानी, ISKCON केवल एक मंदिर नहीं है। यह आस्था और अर्थव्यवस्था का संगम है। यह दिखाता है कि कैसे भक्ति को एक वैश्विक ब्रांड बनाया जा सकता है। और यही वजह है कि हर जन्माष्टमी पर जब आप मंदिर की भीड़ देखते हैं, तो उसके पीछे छिपा यह पूरा आर्थिक तंत्र आपको और ज्यादा रोमांचित करता है।
Conclusion
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