सोचिए, अगर आप किसी से बराबरी का रिश्ता चाहते हों—सम्मान, संतुलन और समझौते के आधार पर। लेकिन सामने वाला ताक़त के नशे में चूर हो, और बार-बार अपनी शर्तें थोपने लगे। जब आप झुकने से मना कर दें, तो वो आपको धमकाए, आपकी तुलना उन देशों से करे, जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं, सिर्फ इसलिए कि आप उसके दबाव में नहीं आ रहे।
और फिर अचानक वो उन्हीं पिछड़े देशों को राहतें देने लगे, ताकि आपकी ताक़त को कमजोर दिखाया जा सके। यह कोई कल्पना नहीं—बल्कि हाल ही की हकीकत है, जहां अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को 25% टैरिफ से दंडित किया, और उसी के तुरंत बाद Pakistan और बांग्लादेश को तरजीह देते हुए कम टैरिफ की घोषणा कर दी। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
आपको बता दें कि ट्रंप की 1 अगस्त की डेडलाइन पहले से तय थी। लेकिन इस डेडलाइन का मतलब भारत के लिए एक नई सजा बन गया—एकतरफा टैरिफ, और ऊपर से पेनल्टी की चेतावनी। ट्रंप ने भारत पर 25%, Pakistan पर 19%, बांग्लादेश और श्रीलंका पर 20%, और अफगानिस्तान पर 15% टैरिफ लगाया। टैरिफ तो लगे, लेकिन सबकी नजरें ठहर गईं उस एक बात पर—पाकिस्तान और बांग्लादेश को भारत से ज्यादा छूट क्यों?
इस फैसले के पीछे की राजनीति गहरी है। यह सिर्फ व्यापार का मसला नहीं है, यह अमेरिका के भू-राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा है। ट्रंप को भारत से दिक्कत तब से है जब से भारत ने रूस से सस्ता तेल लेना शुरू किया, और अमेरिका की तमाम चेतावनियों के बावजूद अपनी ऊर्जा नीति में कोई बदलाव नहीं किया। ट्रंप को यह अखर रहा था कि भारत उसकी शर्तों पर नहीं चल रहा, और यही नाराज़गी अब टैरिफ के रूप में सामने आई।
लेकिन बात सिर्फ भारत की नहीं है। असली खेल Pakistan के इर्द-गिर्द रचा गया है। Pakistan—एक ऐसा देश जो खुद कर्ज़ में डूबा है, जिसकी अर्थव्यवस्था ICU में है, और जहां आतंकवाद से लेकर राजनीतिक अस्थिरता तक हर संकट एक साथ मौजूद है—उसे अमेरिका राहत क्यों दे रहा है? इसका जवाब छुपा है अमेरिका की रणनीतिक मजबूरियों में।
साल 2001 को याद कीजिए। अमेरिका ने अफगानिस्तान में सैन्य कार्रवाई शुरू की थी। उसे Pakistan की ज़मीन और हवाई मार्गों की जरूरत थी। यही मजबूरी आज भी अमेरिका को पाकिस्तान से जोड़े हुए है। इसके अलावा Pakistan के पास परमाणु हथियार हैं—और अमेरिका किसी भी कीमत पर नहीं चाहता कि ये हथियार असुरक्षित हाथों में जाएं। इसलिए वह पाकिस्तान को थोड़ी राहत देकर, उसे पूरी तरह चीन की झोली में गिरने से रोकने की कोशिश कर रहा है।
CPEC—चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर—एक ऐसी योजना है, जिसमें चीन Pakistan के भीतर गहराई तक Investment कर रहा है। अमेरिका को डर है कि अगर वह Pakistan को बिल्कुल नजरअंदाज करेगा, तो वहां चीन का पूरा वर्चस्व हो जाएगा। और यही कारण है कि ट्रंप जैसे नेता भी Pakistan को थोड़ी राहत देने पर मजबूर हो जाते हैं। ये राहत, भारत के मुकाबले ‘इनाम’ की तरह नहीं, बल्कि ‘बांधकर रखने’ की रणनीति का हिस्सा है।
अब बांग्लादेश की बात करें, तो उसकी आर्थिक हैसियत इतनी मजबूत नहीं कि वो अमेरिका के सामने खड़ा हो सके। उसका अमेरिकी बाजार में व्यापार भी सीमित है, इसलिए टैरिफ राहत देकर अमेरिका ज्यादा कुछ खो नहीं रहा। पर भारत—भारत अब वो मुल्क है, जिससे बात करने के लिए अमेरिका को अपनी कुर्सी सीधी करनी पड़ती है। भारत सिर्फ उपभोक्ता नहीं, एक वैश्विक साझेदार बन चुका है।
भारत की आज की ताक़त आंकड़ों से साफ दिखाई देती है। दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था। 140 करोड़ की आबादी में से 70 करोड़ से ज्यादा कृषि पर निर्भर। भारत आज टेक्नोलॉजी, डिफेंस, एनर्जी, और डिजिटल फाइनेंस जैसे क्षेत्रों में अमेरिका के साथ बराबरी की साझेदारी कर रहा है। इंडो-पैसिफिक रणनीति, क्वाड, क्लाइमेट एक्शन—हर वैश्विक मुद्दे पर भारत एक निर्णायक शक्ति बन चुका है। लेकिन शायद यही ताक़त कुछ लोगों को चुभती है।
डोनाल्ड ट्रंप को 2019 में ही एहसास हो गया था कि भारत अब ‘रियायतों’ वाला देश नहीं रहा। और तब उन्होंने भारत को GSP—Generalized System of Preferences—से बाहर कर दिया। वो GSP जिसके तहत भारत को अमेरिका जैसे देशों में अपने उत्पाद भेजने पर शून्य या कम टैरिफ की सुविधा मिलती थी। 2018 में भारत ने इसी स्कीम के तहत 6.35 अरब डॉलर के उत्पाद एक्सपोर्ट किए थे।
लेकिन 2019 में ट्रंप ने कहा—अब भारत काफी विकसित हो चुका है, उसे GSP जैसी रियायतों की जरूरत नहीं। यानी, अमेरिका ने उस वक्त भी स्वीकार किया कि भारत को अब ‘तरस’ की नहीं, ‘समानता’ की नीति की ज़रूरत है। लेकिन आज जब भारत वही बराबरी मांगता है, तो उसे ‘टैरिफ किंग’ कहकर नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है।
भारत ने अपनी तरफ से अमेरिका के साथ संतुलन बनाने की हर कोशिश की है। चाहे वो रक्षा सौदे हों, क्लीन एनर्जी इनिशिएटिव हो या डिजिटल सहयोग। लेकिन ट्रंप की राजनीति अक्सर संतुलन नहीं, नियंत्रण की तरफ झुकती है। और यही वजह है कि उन्होंने अब टैरिफ के ज़रिए दबाव बनाने की कोशिश की है।
भारत ने इस बार भी संयम के साथ प्रतिक्रिया दी है। ना उग्र भाषा, ना भावनात्मक प्रतिक्रिया—बल्कि आंकड़ों, तर्कों और राष्ट्रहित के आधार पर। भारत ने साफ कहा है कि वह किसी भी समझौते में अपनी खाद्य सुरक्षा, किसानों और छोटे व्यापारियों के हितों से समझौता नहीं करेगा। ट्रंप भले ही दबाव बनाएं, लेकिन भारत के पास अब विकल्प हैं—और आत्मविश्वास भी।
भारत अब अपने हितों के लिए किसी भी देश के सामने घुटने टेकने वाला नहीं। और यह बदलाव अचानक नहीं आया, इसके पीछे है दशकों की मेहनत, नीतिगत सुधार और वैश्विक भूमिका का विस्तार। यही कारण है कि भारत अब व्यापारिक समझौतों के दौरान अपनी शर्तों पर बात करता है—और अमेरिका, जापान, यूरोप जैसे देशों के लिए भी अब भारत एक ‘बाजार’ नहीं, एक ‘समानधर्मी’ बन चुका है।
ट्रंप की ‘पाकिस्तान नीति’ भले ही फिलहाल भारत के लिए चुभने वाली हो, लेकिन उससे भारत की साख पर कोई फर्क नहीं पड़ा। दुनिया जानती है कि भारत और Pakistan की तुलना नहीं की जा सकती। आज भारत एक वैश्विक सप्लाई चेन का हिस्सा है, एक टेक्नोलॉजी हब है, और सबसे बड़ी बात—वो लोकतंत्र है, जहां संस्थाएं मजबूत हैं, और आर्थिक नीति का आधार जनता का भला है, न कि सत्ता का लाभ।
जहां ट्रंप जैसे नेता Pakistan को झूठी उम्मीदों के पुल पर चढ़ा रहे हैं, वहीं भारत को अब उम्मीदों की नहीं, ठोस रणनीति की ज़रूरत है। भारत जानता है कि आज उसकी ताक़त सिर्फ आर्थिक नहीं, कूटनीतिक भी है। और यही वजह है कि वो हर वैश्विक मंच पर अपना पक्ष मजबूती से रखता है।
अमेरिका आज भी दुनिया का सबसे ताक़तवर देश है—इसमें कोई शक नहीं। लेकिन भारत अब उसकी आंखों में आंखें डालकर कह सकता है—हां, हम दोस्त हैं, लेकिन बराबरी के साथ। और यही बात शायद ट्रंप जैसे नेताओं को सबसे ज़्यादा परेशान करती है।
आज जब टैरिफ, व्यापार घाटा और वैश्विक पॉलिटिक्स की जंग चल रही है, भारत अपना रास्ता साफ़ कर चुका है। वो सम्मान चाहता है, पर दया नहीं। वो साझेदारी चाहता है, पर दबाव नहीं। और सबसे बड़ी बात—वो नीतियां चाहता है, जो उसके 140 करोड़ लोगों के जीवन को बेहतर बनाएं, चाहे अमेरिका माने या ना माने।
Conclusion
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