Lakmé की शाही कहानी: नेहरू और टाटा ने बनाया भारत का पहला ब्यूटी ब्रांड, फिर क्यों बेचना पड़ा? 2025

दिल्ली की सर्द सुबह थी। प्रधानमंत्री आवास के बाहर धुंध की हल्की चादर फैली थी, और भीतर पंडित जवाहरलाल नेहरू अपनी मेज़ पर झुके हुए थे। फाइलें एक के ऊपर एक रखी थीं—किसी में देश की नई औद्योगिक नीति, तो किसी में विदेशी व्यापार के आंकड़े। लेकिन उनकी आंखें उस समय किसी और चीज़ पर टिकी थीं। वह सोच में डूबे थे—देश को आत्मनिर्भर बनाना ज़रूरी है, लेकिन क्या आत्मनिर्भरता सिर्फ इस्पात, कोयला और मशीनों में होगी? या फिर उन चीज़ों में भी, जिन्हें लोग रोज़ अपने जीवन का हिस्सा बनाते हैं? उनकी सोच में आज एक अलग ही बात थी—भारत की महिलाएं, और उनका हक़। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

आजादी के बाद का भारत अभी अपनी पहचान बना रहा था। उद्योग धंधे खड़े हो रहे थे, लेकिन कई चीज़ें अभी भी विदेश से आती थीं—खासकर ब्यूटी प्रोडक्ट्स। उस दौर की शहरी महिलाएं पेरिस, लंदन और न्यूयॉर्क से मंगाई हुई लिपस्टिक, पाउडर और परफ्यूम इस्तेमाल करती थीं। लेकिन इसका मतलब था भारी विदेशी मुद्रा खर्च, जो उस समय भारत के पास बहुत सीमित थी। नेहरू को ये बात चुभ रही थी—“एक तरफ हम विदेशी मुद्रा बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और दूसरी तरफ… ये गैर-ज़रूरी सामान बाहर से आ रहा है।”

मामला तब गंभीर हुआ जब सरकार ने विदेशी ब्यूटी प्रोडक्ट्स के Import पर बैन लगा दिया। इसके कुछ दिन बाद, दिल्ली के एक भव्य बंगले में एक मीटिंग हुई—कुछ प्रभावशाली घरानों की महिलाएं सीधे प्रधानमंत्री से मिलने आईं। उनकी आंखों में नाराज़गी और शिकायत थी। एक महिला ने लगभग रूठते हुए कहा,

“पंडित जी, आपने हमारा सब छीन लिया। हम महिलाएं सजना-संवरना चाहती हैं, और अब हमारे पास कुछ नहीं। ये तो नाइंसाफी है।” नेहरू ने उनकी बातें ध्यान से सुनीं। उनकी आवाज़ में दृढ़ता थी, “अगर विदेश से नहीं आएगा… तो भारत में बनेगा। और ऐसा बनेगा कि दुनिया देखेगी।”

लेकिन सवाल ये था—कौन करेगा ये काम? कोई ऐसा जो बड़े पैमाने पर उत्पादन कर सके, गुणवत्ता में कोई समझौता न करे, और जो इसे एक व्यवसाय नहीं, बल्कि देश सेवा माने। नेहरू ने बिना देर किए फैसला किया—ये जिम्मेदारी देंगे जेआरडी टाटा को। टाटा परिवार पहले से ही देश की औद्योगिक रीढ़ थे, और जेआरडी अपनी दूरदर्शिता और निडर फैसलों के लिए जाने जाते थे।

नेहरू और टाटा की मुलाकात में, प्रधानमंत्री ने विस्तार से समस्या समझाई—“हमारे पास विदेशी मुद्रा कम है, लेकिन हमारे लोग अब भी विदेश से सामान खरीद रहे हैं। हमें अपना ब्रांड चाहिए, जो हमारी महिलाओं को वही गुणवत्ता दे, लेकिन हमारा पैसा देश में रहे।” जेआरडी टाटा ने कुछ पल सोचा, फिर मुस्कुराए, “पंडित जी, अगर आप भरोसा करते हैं, तो हम इसे कर दिखाएंगे। लेकिन ये सिर्फ एक फैक्ट्री नहीं होगी—ये भारत की पहचान होगी।”

यहीं से शुरू हुई एक यात्रा—भारत का पहला बड़ा ब्यूटी ब्रांड बनाने की। नाम चुनना भी एक बड़ी चुनौती थी। टाटा ने अपनी एक टीम को पेरिस भेजा, ताकि वहां के फैशन और ब्यूटी इंडस्ट्री से सीख मिल सके। पेरिस में उनकी मुलाकात प्रसिद्ध संगीतकार लियो डेलिबेस से हुई, जो उस समय एक ओपेरा पर काम कर रहे थे—एक भारतीय लड़की की कहानी, जिसका नाम देवी लक्ष्मी के नाम पर था। फ्रेंच में लक्ष्मी का उच्चारण था ‘Lakmé’। टीम को उसी क्षण महसूस हुआ—यही नाम चाहिए। इसमें भारतीय देवी की सुंदरता और समृद्धि का भाव था, और साथ ही एक अंतरराष्ट्रीय आकर्षण।

1952 में LAKME का जन्म हुआ। शुरुआत में इसके प्रोडक्ट्स में लिपस्टिक, पाउडर और बुनियादी मेकअप आइटम शामिल थे। लेकिन पैकेजिंग, खुशबू और टेक्सचर में यह बिल्कुल विदेशी ब्रांड जैसा था। एक युवा दिल्ली की गृहिणी ने अपने पड़ोसन से कहा था, “पहली बार लग रहा है कि ये हमारे देश में बना है… और फिर भी उतना ही अच्छा है जितना पेरिस से आता था।”

धीरे-धीरे Lakmé भारत के शहरी घरों में जगह बनाने लगा। लिपस्टिक सिर्फ रंग नहीं, बल्कि आत्मविश्वास का प्रतीक बन गई। टीवी और पत्रिकाओं में इसके विज्ञापन आने लगे—मॉडल्स की मुस्कुराहट, हाथ में चमकदार पैकेजिंग, और बैकग्राउंड में वो स्लोगन जो हर महिला की चाहत को शब्द देता था।

1961 में सिमोन टाटा इस कहानी में आईं। एक शांत लेकिन मजबूत व्यक्तित्व वाली महिला, जिनकी सोच आधुनिक और नज़रें दूर तक जाती थीं। उन्होंने Lakmé की मार्केटिंग और प्रोडक्ट रेंज को पूरी तरह बदल दिया। कीमतें इस तरह तय कीं कि मध्यम वर्ग की महिलाएं भी खरीद सकें, लेकिन गुणवत्ता पर कोई समझौता न हो। उन्होंने नए शेड्स, नए प्रोडक्ट और फैशन ट्रेंड्स के हिसाब से बदलाव किए। उनके नेतृत्व में Lakmé का नाम न सिर्फ प्रोडक्ट्स में, बल्कि एक ‘लाइफस्टाइल’ में बदल गया।

70 और 80 के दशक में Lakmé की चमक चरम पर थी। उस दौर में ‘Lakmé गर्ल’ बनना कई मॉडलों का सपना था। ब्रांड के फोटोशूट्स, फैशन शो और टीवी विज्ञापन में आना एक तरह से बॉलीवुड में कदम रखने का पहला रास्ता बन जाता था। छोटे कस्बों की लड़कियां शहरों में आतीं, और अपने बैग में Lakmé की लिपस्टिक रखना उनके लिए गर्व की बात होती थी।

लेकिन 90 का दशक अलग था। भारत में Economic liberalization आ चुका था। विदेशी ब्रांड खुलकर भारत में आने लगे। Competition बढ़ रही थी, और टाटा ग्रुप अपने मुख्य क्षेत्रों—स्टील, ऑटोमोबाइल, केमिकल—में ज्यादा Investment करना चाहता था। Lakmé अच्छा कर रहा था, लेकिन टाटा को लगा कि इसका असली विस्तार एक ऐसी कंपनी कर सकती है, जो FMCG बिजनेस में माहिर हो।

1996 में टाटा ने फैसला लिया—Lakmé को हिंदुस्तान यूनिलीवर को बेच दिया जाएगा। यह खबर सुनकर देशभर में हलचल मच गई। एक वरिष्ठ कर्मचारी ने कहा था, “हमारे लिए Lakmé सिर्फ नौकरी नहीं था… ये हमारी पहचान थी।” लेकिन बिजनेस के लिहाज से यह सौदा सही था। यूनिलीवर के पास मार्केटिंग, डिस्ट्रीब्यूशन और ग्लोबल नेटवर्क था, जिससे Lakmé और बड़े पैमाने पर पहुंच सकता था।

और हुआ भी यही—यूनिलीवर के अधीन Lakmé ने नए प्रोडक्ट्स, फैशन वीक और ग्लोबल मार्केट में विस्तार किया। आज इसके 300 से ज्यादा प्रोडक्ट्स 70 से अधिक देशों में बिकते हैं। 100 रुपये से लेकर 1000 रुपये तक, हर महिला के लिए कुछ न कुछ है।

टाटा लगभग 18 साल तक ब्यूटी इंडस्ट्री से दूर रहे, लेकिन 2016 में वे फिर लौटे—‘स्टूडियोवेस्ट’ और बाद में ‘जूडियो ब्यूटी’ के साथ। उनका मकसद था—मास मार्केट सेगमेंट में उतरना और HUL, शुगर, कलरबार जैसे ब्रांडों को चुनौती देना।

नेहरू और टाटा की उस पहली मुलाकात से शुरू हुई कहानी आज भी जीवित है। जब कोई महिला Lakmé की लिपस्टिक लगाती है, तो उसमें सिर्फ रंग और खुशबू नहीं होती—उसमें एक इतिहास की गूंज होती है, जब एक प्रधानमंत्री ने कहा था, “अगर विदेश से नहीं आएगा… तो भारत में बनेगा।”

Conclusion

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