कल्पना कीजिए… सुबह-सुबह ऑफिस की भागदौड़ से पहले एक मां अपने बच्चे की स्कूल यूनिफॉर्म प्रेस कर रही है। पिता ब्रेकफास्ट छोड़कर फीस की आखिरी तारीख याद कर रहा है, और बच्चा… वो बस बैग में भारी किताबें डाल रहा है, जिसे उठाने में उसके कंधे झुक जाते हैं।
लेकिन उस मासूम को क्या पता… उसे स्कूल भेजने के लिए उसके माता-पिता ने इस महीने अपनी बचत तोड़ दी है, फर्नीचर की किश्त टाल दी है, और यहां तक कि कुछ जरूरी मेडिकल टेस्ट भी टाल दिए हैं। ये कहानी सिर्फ एक घर की नहीं, बल्कि भारत के करोड़ों मध्यमवर्गीय परिवारों की है, जहां शिक्षा अब एक अवसर नहीं, एक बोझ बनती जा रही है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
आपको बता दें कि कभी शिक्षा को सबसे पवित्र Investment माना जाता था। लेकिन आज वो Investment, हर महीने एक किस्त की तरह घर के बजट को तोड़ रहा है। बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना अब सिर्फ अकैडमिक फैसला नहीं रहा, ये एक फाइनेंशियल जंग है—जहां मां-बाप को हर दिन अपनी उम्मीदों और हकीकत के बीच झूलते रहना पड़ता है। सवाल ये है—क्या सच में ये स्कूल उस कीमत के लायक हैं जो हम चुका रहे हैं?
दिल्ली की एक चार्टर्ड अकाउंटेंट मीनल गोयल ने इस आर्थिक पहेली को आंकड़ों के जरिए सामने लाया। उन्होंने अपने एक पोस्ट में साफ बताया कि कैसे मिडिल क्लास माता-पिता की सालाना income का 40 से 80% हिस्सा केवल स्कूल की फीस, किताबें, ड्रेस और ट्रांसपोर्ट पर खर्च हो जाता है। और ये तब है जब बच्चे को हॉस्टल या कोचिंग क्लास जैसी चीजें नहीं करनी पड़तीं। सिर्फ स्कूल की बुनियादी जरूरतें ही इतनी महंगी हो गई हैं कि लोग अपना भविष्य गिरवी रखकर बच्चों का भविष्य बनाने में लगे हैं।
अब आप कहेंगे, “इतना खर्च होता है क्या?” आइए ज़रा गौर करें इन आंकड़ों पर—एडमिशन फीस 35,000 रुपये, ट्यूशन फीस 1.4 लाख रुपये, एनुअल चार्ज 38,000 रुपये, ट्रांसपोर्टेशन चार्ज 44,000 से लेकर 73,000 रुपये, और किताबें व ड्रेस का खर्च 20,000 से 30,000 रुपये। ये सब जोड़ दें, तो एक औसत स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे पर सालाना खर्च 2.5 से 3.5 लाख रुपये तक पहुंच जाता है। और अगर बच्चा किसी बड़े शहर के प्रतिष्ठित स्कूल में हो, तो ये आंकड़ा 4 लाख रुपये से ऊपर चला जाता है।
अब सवाल उठता है कि क्या ये शिक्षा केवल ज्ञान का माध्यम रह गई है, या फिर एक कॉर्पोरेट मॉडल का हिस्सा बन चुकी है? पहले जहां स्कूल समाजसेवा और शिक्षा का मंदिर माने जाते थे, आज वही स्कूल फीस वसूली के मैनेजमेंट सिस्टम बनते जा रहे हैं। बच्चों को दाखिला दिलाने के लिए पैरवी करनी पड़ती है, और फिर EMI की तरह फीस भरनी होती है। कई फिनटेक कंपनियां तो अब स्कूल फीस पर लोन और किस्तें देने लगी हैं—जैसे कार या मोबाइल खरीदने पर मिलती हैं।
एक आम भारतीय की औसत सालाना आय लगभग 4.4 लाख रुपये है। अब अगर उसमें से 2.5 से 3.5 लाख रुपये शिक्षा पर चले जाएं, तो क्या बचेगा घर चलाने को? और यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि हकीकत है। बहुत से माता-पिता मजबूरी में अपने बच्चों के लिए पर्सनल लोन तक ले लेते हैं। और ये लोन सिर्फ रकम नहीं, एक मनोवैज्ञानिक दबाव बन जाता है, जो उन्हें हर महीने चुपचाप खा जाता है।
कई अभिभावकों को अपने मेडिकल खर्च टालने पड़ते हैं, कहीं घूमने नहीं जा पाते, कुछ तो त्योहारों पर नए कपड़े तक नहीं खरीद पाते, ताकि स्कूल की फीस समय पर भर सकें। बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलाने का सपना इतना भारी हो गया है कि उसके नीचे परिवार की बाकी ज़रूरतें कुचल जाती हैं।
और ये खर्च सिर्फ एक साल का नहीं है। अगर आप 12 सालों की स्कूली शिक्षा का कुल जोड़ लगाएं, तो ये आंकड़ा 30 से 40 लाख रुपये तक चला जाता है। अब सोचिए, जो पैसा एक घर खरीदने या रिटायरमेंट फंड बनाने में लगना चाहिए था, वो अब स्कूल की चारदीवारी में समा जाता है। क्या ये सही दिशा है?
अब यहां एक और सवाल उठता है—क्या वाकई इन स्कूलों से निकलने वाले बच्चे उस स्तर की शिक्षा और नैतिकता लेकर निकलते हैं, जिसकी कीमत माता-पिता चुका रहे हैं? क्या वाकई ये स्कूल बच्चों को सिर्फ मार्क्स और एग्जाम में नंबर लाने के अलावा जीवन के मूल्यों की भी शिक्षा दे रहे हैं? बहुत बार जवाब ‘ना’ में होता है। क्योंकि आजकल स्कूल एजुकेशन से ज्यादा मार्केटिंग और ब्रांडिंग पर जोर देते हैं।
सीए मीनल गोयल ने एक और अहम बात कही—ये खर्च आने वाले सालों में और बढ़ेगा। हर साल फीस में 10 से 15% तक की बढ़ोतरी हो रही है। यानी अगर आपने अभी एक स्कूल चुन लिया है, तो अगले 10 सालों में वही स्कूल आपकी जेब से दोगुना पैसा निकाल लेगा। और आप चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाएंगे, क्योंकि बच्चों को एक स्कूल से दूसरे में शिफ्ट करना भी आसान नहीं है।
मिडिल क्लास परिवारों के पास बहुत सीमित विकल्प हैं। सरकारी स्कूलों की हालत कई जगहों पर अब भी बहुत खराब है, और किफायती प्राइवेट स्कूलों में या तो सीटें नहीं मिलतीं, या फिर शिक्षा का स्तर कमजोर होता है। ऐसे में ज्यादातर माता-पिता मजबूरी में उन स्कूलों की तरफ जाते हैं, जो उनका बजट तोड़ देते हैं, लेकिन उम्मीद जगाते हैं कि बच्चे का भविष्य बेहतर होगा।
क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम इस पूरे मॉडल पर दोबारा विचार करें? क्या वाकई हमें इतने पैसे खर्च करने की ज़रूरत है, जब विकल्प मौजूद हैं—ऑनलाइन एजुकेशन, होम स्कूलिंग, या फिर कुछ बेहतर सरकारी मॉडल्स जो आज भी ईमानदारी से बच्चों को पढ़ा रहे हैं? अगर आज यह बहस शुरू नहीं हुई, तो आने वाले समय में शिक्षा केवल अमीरों का अधिकार बनकर रह जाएगी।
ये केवल आंकड़ों की बात नहीं है, ये भावनाओं की लड़ाई है। वो माता-पिता जो अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनते देखना चाहते हैं, वो इस सपने के लिए सब कुछ कुर्बान कर रहे हैं—अपनी जिंदगी, अपनी सेहत, अपने सपने। और यही बात इस पूरे मुद्दे को इतना मानवीय बनाती है।
अगर हम चाहते हैं कि हर बच्चा अच्छी शिक्षा पाए, तो हमें सिर्फ स्कूलों से ही नहीं, नीति-निर्माताओं से भी सवाल पूछने होंगे—कि शिक्षा सिर्फ एक प्रॉडक्ट बनकर क्यों रह गई है? क्यों नहीं ये एक सेवा बनी रह सकती, जो हर बच्चे तक पहुंचे, हर जेब की पहुंच में हो? आज की शिक्षा प्रणाली हमें यही सोचने पर मजबूर कर रही है कि क्या हम सही रास्ते पर हैं। और अगर नहीं, तो बदलाव की शुरुआत कहां से होगी? क्या हम फिर से ऐसा सिस्टम बना सकते हैं जहां शिक्षा सम्मान से दी जाए, न कि भारी फीस वसूलकर?
शायद अब वो समय आ चुका है, जब हम स्कूल का मतलब सिर्फ इमारतों और यूनिफॉर्म से नहीं, बल्कि बच्चों के भविष्य से जोड़ें—और माता-पिता को उस तनाव से मुक्त करें, जो उन्हें हर महीने उस एक SMS से मिलता है—”Please pay the next installment of your child’s school fees…”
Conclusion
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