शांत पहाड़ों के बीच एक झील है… चारों ओर रंग-बिरंगे घर, यूरोप जैसा नज़ारा… और बीच में बना एक शहर, जो न तो किसी सरकार ने बसाया, न ही किसी राजनेता ने सपना देखा। ये शहर किसी जादू की तरह अचानक उभरा था—लवासा। लेकिन अब वही शहर वीरान पड़ा है, सुनसान सड़कों पर न इंसान हैं, न ही रौशनी।
सिर्फ हवाओं की आवाज़ है, जो कभी किसी सपने के टूटने की गवाही देती है। क्या आपने कभी सोचा है कि एक पूरा शहर… इटली जैसा खूबसूरत शहर… कुछ सालों में ‘भुतहा’ कैसे बन सकता है? आज की कहानी उसी रहस्यमयी शहर की है—Lavasa। एक ऐसा सपना, जो अपनी ही चमक में जल गया। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
भारत में जब भी शहरों की बात होती है, तो भीड़भाड़, अव्यवस्था और ट्रैफिक से जुड़ी तस्वीरें सामने आती हैं। टूटी सड़कें, बिजली के झूलते तार, आवारा जानवर और हर कोने पर जाम… लेकिन Lavasa इससे बिल्कुल अलग था। ये भारत का पहला प्राइवेट प्लांड हिल स्टेशन था, जो भारत में इटली लाने का दावा करता था। यह ऐसा शहर था, जहां पैदल चलने के लिए खूबसूरत रास्ते थे, पानी के लिए सेंट्रल सप्लाई सिस्टम था, घरों में ओवरहेड टंकी नहीं थी, और हर गली में यूरोपीय आर्किटेक्चर की झलक थी।
लवासा पुणे से महज़ दो-ढाई घंटे की दूरी पर और मुंबई से तीन घंटे के रास्ते पर था। इसे पश्चिमी घाट के खूबसूरत मुलशी घाटी में बसाया जाना था। चारों ओर पहाड़, बीच में वरसगांव झील, और उसी झील के किनारे बसा जाना था Lavasa। इसे भारत का पहला ऐसा शहर कहा गया जो स्वतंत्र भारत में अंग्रेज़ों के बनाए हिल स्टेशनों के बाद बसाया जा रहा था—शिमला, ऊटी, मसूरी के बाद अब Lavasa।
इस शहर का सपना देखा था अजित गुलाबचंद ने। वही गुलाबचंद जो वालचंद ग्रुप के मालिक और हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (HCC) के चेयरमैन थे। उन्होंने Lavasa को एक ऐसे शहर के रूप में देखा था जो भविष्य के भारत को एक नई दिशा देगा। इस शहर को बसाने के लिए उन्होंने 100 वर्ग किलोमीटर जमीन पर सात पहाड़ियों में पांच अलग-अलग शहर बनाने की योजना बनाई थी। यहां तीन लाख लोगों को बसाने का प्लान था। और जब प्लान सामने आया, तो पूरे देश ने देखा—भारत में भी एक “Portofino” बन सकता है।
जी हां, Lavasa का डिज़ाइन इटली के पोर्टोफिनो गांव से प्रेरित था। इतना ही नहीं, शहर की एक सड़क का नाम भी ‘Portofino Street’ रखा गया था। रंग-बिरंगे घर, घुमावदार गलियां, पैदल सैर के रास्ते, ग्रीन स्पेस, कैफे और बुटीक—हर चीज़ वैसी ही थी जैसी यूरोप के किसी तटीय शहर में होती है। और Lavasa सिर्फ दिखने में ही आधुनिक नहीं था, बल्कि इसके संचालन का तरीका भी अनोखा था। इसे चलाने के लिए अमेरिका से एक प्रोफेशनल एडमिनिस्ट्रेटर बुलाया गया था—Scot Wrighton।
Scot ने एक बार फोर्ब्स को इंटरव्यू देते हुए कहा था कि उनके लिए सबसे मुश्किल काम था – आसपास के गांववालों को समझाना कि अपने जानवरों को शहर में न छोड़ें। क्योंकि Lavasa कोई सामान्य भारतीय शहर नहीं था। यहां न बैलगाड़ी थी, न गलियों में घू्मते जानवर। यहां था यूरोपीय अनुशासन, अमीरी की चमक और प्राइवेट मैनेजमेंट की ताकत।
इतना ही नहीं, Lavasa में एक इंटरनेशनल हॉस्पिटल था—Apollo Hospital। एक इंटरनेशनल स्कूल था—Christel House। और होटल मैनेजमेंट के लिए Swiss school Ecole Hoteliere Lavasa की शाखा भी यहीं खुली थी। Manchester City Football Club ने यहां फुटबॉल एकेडमी शुरू की थी। Sir Nick Faldo यहां गोल्फ कोर्स बना रहे थे। Sir Steve Redgrave के साथ रोइंग अकादमी शुरू हो चुकी थी। कहने का मतलब, Lavasa केवल रहने की जगह नहीं था, यह एक इंटरनेशनल लाइफस्टाइल का भारत में बसेरा था।
शहर इतना हाई-एंड था कि वहां के सबसे सस्ते अपार्टमेंट की कीमत 14 से 30 लाख रुपए के बीच थी—और ये साल 2010 की बात है। उस समय भारत में ऐसे दाम सिर्फ मेट्रो सिटीज़ में देखने को मिलते थे। Lavasa ने अमीरों के लिए एक नया ठिकाना बनाने की कोशिश की थी, जहां वे यूरोप की यादों को भारत में ही जी सकें।
लेकिन अजित गुलाबचंद ने एक और वादा किया था—कि वो यहां मिडल क्लास युवाओं के लिए भी घर बनाएंगे, और मजदूरों के लिए सस्ते रेंटल अपार्टमेंट भी होंगे। पर फिर क्या हुआ? ऐसा क्या हुआ कि भारत का सबसे सुंदर, सबसे अनोखा शहर अब उजड़ा पड़ा है? जवाब है—एक के बाद एक झटके, कानूनी लड़ाइयां, और एक अनदेखा ऋण का तूफान।
सबसे बड़ा झटका तब आया जब पर्यावरण मंत्रालय ने इस शहर को “गैरकानूनी” करार दे दिया। साल 2010 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने Lavasa के निर्माण को रोक दिया। वजह? HCC ने जरूरी पर्यावरणीय मंजूरी नहीं ली थी। इसके अलावा आरोप लगे कि स्थानीय आदिवासियों से सस्ती दरों पर ज़मीन ली गई, और उसकी वैल्यू कई गुना बढ़ाकर प्रोजेक्ट में झोंक दी गई।
CAG ने 2012 में Lavasa पर सख्त टिप्पणियां कीं। रिपोर्ट में कहा गया कि महाराष्ट्र सरकार ने बिना कैबिनेट मंजूरी और पर्यावरणीय क्लियरेंस के इस प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दी। साथ ही यह भी चर्चा में आया कि यह प्रोजेक्ट राजनीतिक परिवारों—खासतौर पर शरद पवार के करीबियों से जुड़ा है। मामला इतना उलझ गया कि एक साल के लिए निर्माण पूरी तरह रुक गया। और वहीं से Lavasa का पतन शुरू हुआ।
जब प्रोजेक्ट रुकता है, तो ब्याज नहीं रुकता। Lavasa पर धीरे-धीरे कर्ज का बोझ बढ़ता गया। शुरुआत में जो कंपनी IPO की तैयारी कर रही थी, अब उसे कर्ज के लिए बैंक दर बैंक जाना पड़ा। फिर एक दिन—2018 में कंपनी दिवालिया घोषित कर दी गई। और यहीं से शुरू हुई नीलामी की कहानी।
2018 के बाद कई कोशिशें हुईं Lavasa को फिर से जिंदा करने की। लेकिन दो नाकाम बोली प्रक्रिया के बाद अब तीसरी कोशिश चल रही है। और इस बार लवासा को खरीदने के लिए सबसे बड़ी बोली दी है वैलोर एस्टेट नाम की कंपनी ने—771 करोड़ रुपये की। पहले इसी कंपनी को DB Realty कहा जाता था। इससे पहले Darwin Platform ने 1,814 करोड़ की पेशकश की थी, लेकिन पैसा समय पर नहीं दे सके।
वैलोर की बोली के बाद अब एक उम्मीद की किरण फिर से चमकी है। लवासा के अधूरे प्रोजेक्ट को पूरा करना, घर खरीदारों को उनका मकान देना और Investors को उनकी रकम लौटाना—अब इन सभी पर फिर से काम हो सकता है। लेकिन यह आसान नहीं होगा। क्योंकि लवासा के सामने अब भी बहुत सी चुनौतियां हैं—जैसे कि पर्यावरणीय मंजूरी, पुराने Investors का विश्वास और सबसे बड़ा – इस बार सपने को जमीन पर उतारने का साहस।
वैलोर के इस अधिग्रहण के बाद कई सवाल उठ रहे हैं—क्या लवासा फिर से जिंदा हो पाएगा? क्या भारत में फिर से एक प्लांड यूरोपीयन स्टाइल हिल स्टेशन खड़ा होगा? या ये फिर से किसी कॉरपोरेट फाइल में दफन हो जाएगा?
हालांकि महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में लवासा को लेकर एक नई घोषणा भी की है—यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाने की योजना है। यह मूर्ति दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमाओं में शामिल होगी। ये घोषणा उम्मीद तो देती है, लेकिन यह तय नहीं कि मूर्ति पहले बनेगी या शहर जिंदा होगा।
लवासा आज भी मौजूद है। लेकिन उसका वो रौनक, वो आवाजें, वो खिलखिलाती गलियां नहीं रहीं। वहां अब बस झील की लहरें हैं, जिन पर कभी यूरोपीयन नावें तैरा करती थीं। वहां अब सिर्फ सूनी बालकनियां हैं, जिनसे कभी सपनों की तस्वीरें झांका करती थीं।
और जब आप अगली बार किसी शहर की अफरातफरी से परेशान हों… जब आप सोचें कि भारत में क्यों कोई व्यवस्थित, खूबसूरत और शांत शहर नहीं बन सकता… तो लवासा को याद कीजिएगा। क्योंकि कभी एक भारतीय ने सपना देखा था कि हम भी यूरोप जैसे शहर बना सकते हैं। लेकिन उस सपने को पूरा करने के लिए सिस्टम, ईमानदारी, और इंसानियत—तीनों की ज़रूरत होती है।
शायद लवासा फिर से खड़ा होगा। शायद कोई और अजित गुलाबचंद फिर से सपना देखेगा। लेकिन तब तक, लवासा एक अधूरी कविता की तरह, भारत के पहाड़ों में गूंजता रहेगा। और हर कोई जो इसे देखेगा, यही कहेगा—”क्या ये वही लवासा है? जो एक सपना हुआ करता था?”
Conclusion
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