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ASEAN से क्यों हार गया भारत? चीन की ‘बी-टीम’ पर पीयूष गोयल का बड़ा खुलासा – अब शुरू होगी असली तैयारी! 2025

ASEAN

जिस दिन यह सच्चाई सामने आई, उस दिन देश का हर सोचने वाला नागरिक चौंक गया। क्या हमने ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी? क्या भारत ने अपने सबसे बड़े दुश्मन को खुद अपने ही दरवाजे से अंदर आने दिया था? और क्या जो आज हमारी मंडियों में, दुकानों में, मोबाइल स्क्रीन से लेकर घरेलू सामान तक चीनी उत्पादों की भरमार है, वो सिर्फ एक गलती का नतीजा है? जवाब मिला—हां। और ये जवाब दिया खुद देश के वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने। उन्होंने खुलकर स्वीकार किया कि भारत की पुरानी व्यापारिक रणनीति—विशेषकर ASEAN देशों के साथ जो समझौता हुआ—वो ‘बेवकूफी’ थी। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

पीयूष गोयल ने यह बयान उस समय दिया जब वे ब्रिटेन के इंडिया ग्लोबल फोरम में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि यह सोच ही गलत थी कि भारत को अपने Competitors के साथ व्यापार समझौते करने चाहिए। उन्होंने सीधे तौर पर UPA सरकार का नाम नहीं लिया, लेकिन निशाना साफ था। उन्होंने कहा कि ASEAN देशों के साथ जो AIFTA समझौता 2010 में हुआ, वो इस गलत सोच का सबसे बड़ा उदाहरण है।

गोयल ने उदाहरण देते हुए कहा—”अगर मैं इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, वियतनाम, कंबोडिया और लाओस जैसे देशों के साथ समझौता करता हूँ, तो इसका मतलब है कि मैं अपने ही बाजार को अपने Competitors के लिए खोल रहा हूँ।” यह ऐसा था जैसे कोई व्यापारी अपने दुकान के सामने खुद ही अपने दुश्मन की दुकान खोल दे। नतीजा ये हुआ कि हमारे देश की फैक्ट्रियां धीरे-धीरे बंद होने लगीं, उत्पादन घटने लगा और बाजार चीनी माल से पट गया।

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे ज्यादा चिंता की बात यह रही कि ASEAN देशों को चीन ने एक ‘बी-टीम’ के रूप में इस्तेमाल किया। मतलब यह कि चीन ने अपने माल को इन देशों के जरिए भारत में घुसा दिया। AIFTA समझौते की शर्तों के अनुसार ASEAN देशों से आने वाला माल कस्टम ड्यूटी में छूट पाता है। लेकिन हुआ क्या? इन देशों के नाम पर चीनी माल भारत आने लगा, जिससे चीन ने न सिर्फ अपने प्रोडक्ट्स को भारत के बाजार में उतारा, बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था को भी चोट पहुंचाई।

सोचिए, क्या हम इतने ही भोले थे? क्या हमारी रणनीति में इतनी बड़ी चूक हो गई थी? या फिर ये एक सोची-समझी चूक थी, जिसके पीछे तत्कालीन सरकारों की लापरवाही या दबाव था? पीयूष गोयल ने इस समझौते को ‘बेवकूफी’ कहकर दरअसल भारत की दशकों पुरानी नीति पर सवाल खड़ा कर दिया है। उनका यह बयान राजनीतिक से ज्यादा रणनीतिक है। क्योंकि अब केंद्र सरकार की सोच यह है कि भारत को उन देशों के साथ व्यापार करना चाहिए जो हमारे लिए फायदेमंद हों, न कि नुकसानदेह।

इसी सोच के तहत अब भारत ने अपने फोकस को बदला है। अब सरकार ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अमेरिका, यूरोपीय संघ, UAE और UK जैसे विकसित देशों के साथ समझौते कर रही है। इनमें से कुछ समझौते हो चुके हैं और कुछ पर बातचीत चल रही है। लक्ष्य स्पष्ट है—सिर्फ व्यापार नहीं, रणनीतिक साझेदारी।

इस बदलाव की सबसे बड़ी वजह यह है कि भारत अब सिर्फ एक बाजार नहीं, बल्कि एक ग्लोबल प्लेयर बनना चाहता है। और इसके लिए जरूरी है कि वह अपने व्यापारिक दरवाजे उन लोगों के लिए खोले, जो उसे सशक्त बनाएं, न कि कमजोर।

ASEAN देशों के साथ किया गया 2010 का AIFTA समझौता अब एक चेतावनी की तरह हमारे सामने खड़ा है। ये बताता है कि अगर आप बिना पूरी रणनीति और आत्मनिर्भरता की सोच के व्यापार समझौते करते हैं, तो आपको उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है और भारत ने भुगता। घरेलू उत्पादकों को नुकसान हुआ। चीनी प्रोडक्ट्स ने बाज़ार पर कब्ज़ा किया। टेक्सटाइल से लेकर खिलौनों तक, फर्नीचर से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स तक—हर सेक्टर में चीन की घुसपैठ ASEAN देशों के रास्ते हुई।

ये घुसपैठ सिर्फ व्यापारिक नहीं थी, ये रणनीतिक थी। क्योंकि जब एक देश किसी दूसरे देश की निर्भरता बन जाता है, तो उसका अगला कदम राजनीतिक दबाव बनाना होता है। और चीन यही कर रहा है। आज भारत, जो खुद आत्मनिर्भरता का मंत्र दे रहा है, उसे अपने ही पुराने व्यापारिक फैसलों से लड़ना पड़ रहा है।

भारत के इस व्यापारिक बदलाव की कहानी सिर्फ आंकड़ों की नहीं, बल्कि आत्मचिंतन की कहानी है। पीयूष गोयल का ये बयान एक राजनीतिक हमला नहीं, बल्कि एक नीति पर पुनर्विचार की पुकार है। उन्होंने साफ कहा कि अब व्यापार समझौते सिर्फ संतुलन के लिए नहीं, बल्कि मजबूती के लिए होंगे।

उन्होंने यह भी जोड़ा कि ASEAN देशों का इस्तेमाल चीन एक रणनीतिक उपकरण की तरह कर रहा है। यानी वो खुद सामने नहीं आता, लेकिन उसके माल ASEAN देशों के रास्ते भारत में आ जाते हैं। इसे ‘रूल्स ऑफ ओरिजिन’ का उल्लंघन माना जाता है। यानी जो सामान असल में चीन में बना, उसे मलेशिया या वियतनाम के नाम पर भारत भेज दिया जाता है।

यह सब इतना बारीकी से किया गया कि कई सालों तक किसी को शक तक नहीं हुआ। लेकिन जब भारत के व्यापार घाटे का ग्राफ ऊपर चढ़ने लगा, जब देश के छोटे उद्योग बंद होने लगे, जब रोजगार कम होने लगे—तब जाकर सरकार को समझ आया कि गलती कहां हुई। और अब इस गलती को सुधारने की कोशिश हो रही है।

भारत ने हाल ही में EFTA यानी European Free Trade Association के चार देशों—स्विट्जरलैंड, आइसलैंड, लिकटेंस्टीन और नॉर्वे—के साथ भी व्यापार समझौते की दिशा में बातचीत शुरू की है। साथ ही दक्षिण अमेरिका के दो देशों चिली और पेरू के साथ भी नई संभावनाओं को तलाशा जा रहा है। यह सब इस बात का संकेत है कि भारत अब वही गलती दोहराना नहीं चाहता।

यह बदलाव सिर्फ कागजों तक सीमित नहीं है। अब भारतीय व्यापार नीति में आत्मनिर्भरता और सामरिक रणनीति का मिश्रण दिखता है। अब जब भी कोई समझौता होगा, तो देखा जाएगा कि उससे भारत को तकनीक, बाजार, Investment या रणनीतिक सहयोग कितना मिल रहा है। सिर्फ Import का रास्ता खोलना अब मंजूर नहीं होगा।

इस पूरी कहानी का सार यही है कि भारत ने अपने पुराने व्यापारिक मित्रों को अब नए दृष्टिकोण से देखना शुरू कर दिया है। ASEAN को अब व्यापारिक साझेदार की जगह रणनीतिक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। और इसीलिए उसे चीन की ‘बी-टीम’ कहा गया।

क्योंकि जब एक संगठन अपने नियमों का दुरुपयोग कर किसी तीसरे देश की मदद करने लगे, तो उसका भरोसा कमजोर पड़ जाता है। ASEAN वही कर रहा है—चीन के लिए भारत के बाजार का रास्ता खोल रहा है, जबकि खुद के उत्पादकों को प्राथमिकता दे रहा है। और इसीलिए आज यह सवाल सबसे अहम हो गया है—क्या हम एक बार फिर उसी जाल में फंस रहे हैं? या फिर अब हम सच में बदल रहे हैं?

अगर इस बदलाव की दिशा बरकरार रहती है, तो आने वाला समय भारत के लिए निर्णायक हो सकता है। लेकिन अगर फिर से वही पुरानी नीतियां, वही ‘कंप्रोमाइज’ वाली सोच हावी हो गई, तो एक और पीढ़ी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। अब वक्त है चौकन्ना रहने का, आत्मनिर्भर बनने का और अपने व्यापारिक फैसलों में दूरदृष्टि लाने का। क्योंकि व्यापार सिर्फ लेन-देन नहीं, बल्कि भविष्य की नींव है।

Conclusion

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