एक दौर था जब Vietnam को दुनिया की अगली फैक्ट्री कहा जा रहा था। जहां Apple, Google, Nike जैसी कंपनियों ने चीन को छोड़कर नए सिरे से उत्पादन शुरू किया। सबको लगने लगा कि Vietnam ही वह देश है जो चीन का विकल्प बन सकता है। लेकिन अब अचानक सब कुछ बदल रहा है। वही ग्लोबल कंपनियां जो वियतनाम में अरबों डॉलर लगा चुकी हैं, अब वापसी की सोच रही हैं। और इस बार उनका अगला पड़ाव कोई और नहीं बल्कि भारत है। सवाल यह है—आखिर ऐसा क्या हो गया कि Vietnam को छोड़कर कंपनियां अब भारत को देख रही हैं? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
साल 2020 के कोविड संकट के बाद जब चीन की सप्लाई चेन चरमरा गई, तब पूरी दुनिया ने ‘चीन प्लस वन’ रणनीति पर विचार करना शुरू किया। यानी चीन पर निर्भरता कम करें और किसी एक और देश में सप्लाई लाइन शिफ्ट करें। उस समय Vietnam सबसे बड़ा लाभार्थी बना। कम मजदूरी, तेज नीति बदलाव, चीन से निकटता और बेहतर पोर्ट्स ने उसे कंपनियों का चहेता बना दिया। Apple, Samsung, और Nike जैसी कंपनियां तेजी से वहां पहुंचीं। पर अब माहौल फिर बदल गया है।
22 अप्रैल 2025 को एक बड़ी खबर सामने आई जिसने इस पूरे समीकरण को पलट दिया। Apple और Google जैसी कंपनियों ने भारत में अपने प्रोडक्शन को तेज करने की योजना बनाई है। Google की पेरेंट कंपनी Alphabet अब Dixon Technologies और Foxconn के जरिए, भारत में Pixel फोन का प्रोडक्शन Vietnam से शिफ्ट करने पर विचार कर रही है। और यह फैसला यूं ही नहीं लिया गया—इसके पीछे है अमेरिकी नीति, खासकर ट्रंप की टैरिफ रणनीति।
दरअसल, अमेरिका ने वियतनाम से इंपोर्ट होने वाले प्रोडक्ट्स पर 46% तक का भारी टैरिफ लगा दिया है, जबकि भारत पर यह दर 26% है। यानी कंपनी को अगर वही प्रोडक्ट अमेरिका भेजना है, तो भारत से भेजना ज्यादा सस्ता पड़ेगा। Google ने अपने कॉन्ट्रैक्ट मैन्युफैक्चरर्स के साथ बातचीत शुरू कर दी है कि भारत में अब Enclosure, Charger, Fingerprint Sensor और Battery जैसे कॉम्पोनेंट्स को भी लोकल लेवल पर मैन्युफैक्चर किया जाए, ताकि लागत घटाई जा सके।
Alphabet अकेली कंपनी नहीं है जो ऐसा कर रही है। Samsung, जो Vietnam में सबसे बड़ा इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माता है, वह भी धीरे-धीरे भारत की ओर झुक रहा है। कारण सिर्फ टैरिफ नहीं, बल्कि वियतनाम की सीमित उत्पादन क्षमता और श्रमिकों की उपलब्धता है। कंपनियों को अब ज्यादा स्केलेबल और स्ट्रक्चर्ड सप्लाई चेन चाहिए, और भारत इस दिशा में एक प्रबल दावेदार बनता दिख रहा है।
यह बदलाव अचानक नहीं आया। बल्कि इसका बीज कई साल पहले बोया गया था। जब चीन की बढ़ती लागत, कठोर कानून और पॉलिटिकल रिस्क के चलते कंपनियों ने नए विकल्प तलाशने शुरू किए थे। Vietnam ने इस मौके को सबसे पहले पहचाना। Free Trade Agreements, सस्ती मज़दूरी और फास्ट एप्रूवल्स के चलते उसने Investors का दिल जीत लिया। लेकिन वक्त के साथ उसकी सीमाएं भी सामने आने लगीं—छोटा भूगोल, सीमित मानव संसाधन, और अब अमेरिका की ट्रेड पॉलिसी।
कोविड के बाद Vietnam ने चीन की जगह ली थी, लेकिन 2023 से 2025 के बीच अमेरिका में उसके खिलाफ नया नैरेटिव बनना शुरू हुआ। रिपोर्ट्स के मुताबिक, चीन अब वियतनाम का इस्तेमाल अमेरिका में प्रॉक्सी एक्सपोर्ट के लिए कर रहा है। यानी चीनी कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स Vietnam के पोर्ट्स से भेजती हैं और ‘Made in Vietnam’ टैग लगवाकर अमेरिकी टैरिफ से बचती हैं। यही कारण है कि ट्रंप प्रशासन ने अब Vietnam को भी शक की निगाह से देखना शुरू कर दिया है।
Lowy Institute की रिपोर्ट कहती है कि Vietnam अमेरिका को होने वाले चीनी ‘Indirect Export’ का मुख्य केंद्र बन चुका है। इसका सीधा असर Alphabet जैसी कंपनियों की रणनीति पर पड़ता है, जो अब अपनी सोर्सिंग को कम Risk वाले देशों की ओर ले जाना चाहती हैं—और भारत अब उस लिस्ट में सबसे ऊपर है।
भारत की कहानी भी दिलचस्प है। बीते कुछ वर्षों में यहां सरकार ने कई नीतिगत सुधार किए हैं। कॉर्पोरेट टैक्स को 40% से घटाकर 35% किया गया, PLI स्कीम शुरू की गई, और Make in India अभियान को तेजी से आगे बढ़ाया गया। तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्य अब मैन्युफैक्चरिंग के नए हब बन रहे हैं। Apple पहले ही भारत में iPhone मैन्युफैक्चरिंग करवा रहा है, और अब Pixel भी इसी राह पर है।
भारत को एक और फायदा यह है कि उसके पास विशाल घरेलू बाजार है। यानी कंपनियों को न सिर्फ एक्सपोर्ट के लिए मैन्युफैक्चर करना है, बल्कि घरेलू मांग भी इतनी अधिक है कि यहीं उत्पादन कर देना फायदेमंद है। Google के अधिकांश Pixel फोन अब तक अमेरिका के लिए बनाए जाते थे, लेकिन अब भारत के लिए भी लोकल प्रोडक्शन तेज किया जा रहा है।
भारत के पक्ष में एक और बात है—उसकी Geopolitical situation। चीन और अमेरिका के तनाव के बीच भारत ने न्यूट्रल स्टैंड लिया है। यह अमेरिका को पसंद आता है क्योंकि उसे एक ऐसे पार्टनर की तलाश है जो न चीन का सहयोगी हो, न विरोधी। भारत इस भूमिका में फिट बैठता है।
यह बदलाव सिर्फ स्मार्टफोन तक सीमित नहीं है। Vietnam अब तक Footwear और Furniture जैसे क्षेत्रों का प्रमुख Exporter था, लेकिन अब इन क्षेत्रों में भी कंपनियां भारत की ओर देख रही हैं। CNBC की रिपोर्ट बताती है कि Nike के 25% जूते Vietnam से आते हैं, लेकिन कंपनी अब भारत में भी मैन्युफैक्चरिंग की संभावनाएं तलाश रही है। Furniture सेक्टर में भी अमेरिका का 26% इंपोर्ट Vietnam से होता था, जो अब घट रहा है।
इसका मतलब साफ है—’चीन प्लस वन’ की रणनीति अब ‘Vietnam माइनस वन’ में बदल रही है। और भारत को इस ट्रांजिशन का पूरा फायदा मिल सकता है—अगर वह अपनी नीति, लॉजिस्टिक्स और इंफ्रास्ट्रक्चर को तेजी से सुधारता है। Dixon Technologies, Tata Electronics, Bharat FIH जैसे कॉन्ट्रैक्ट मैन्युफैक्चरर्स अब भारत के इंडस्ट्रियल इकोसिस्टम को अगले स्तर पर ले जाने को तैयार हैं।
अब भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह सिर्फ एक विकल्प न बने, बल्कि मैन्युफैक्चरिंग का स्थायी ठिकाना बन जाए। इसके लिए Ease of Doing Business, सिंगल विंडो क्लीयरेंस, पावर इंफ्रास्ट्रक्चर और Labor reform जैसे क्षेत्रों में Investment और नीति-निर्माण बेहद ज़रूरी है।
अमेरिका और चीन के बीच चल रही यह जियोपॉलिटिकल खींचतान, भारत के लिए अवसरों का खजाना बन सकती है—अगर समय रहते निर्णायक कदम उठाए जाएं। Dixon और Foxconn जैसी कंपनियां पहले ही भारत में उत्पादन बढ़ाने को तैयार हैं, अब ज़रूरत है सरकार और प्राइवेट सेक्टर के बीच तालमेल की।
अंततः सवाल यह नहीं है कि Vietnam पिछड़ रहा है, सवाल यह है कि क्या भारत तैयार है उस जगह को लेने के लिए? जवाब अगर हां है, तो अगले पांच साल भारत को Global Manufacturing Superpower बना सकते हैं।
Conclusion
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