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Tariff विवाद पर खुलासा! ट्रंप का ईगो हर्ट, पर रूसी तेल से कोई लेना-देना नहीं – रिसर्च फर्म की रिपोर्ट ने सच्चाई दिखाई। 2025

Tariff

ज़रा सोचिए… जब दुनिया का सबसे ताक़तवर राष्ट्रपति सिर्फ़ इसलिए गुस्से में आ जाए कि उसे किसी मसले पर क्रेडिट नहीं मिला, तो वह क्या कर सकता है? अगर उसके अहंकार को चोट पहुँचे, तो क्या वह पूरी अर्थव्यवस्था को दांव पर लगा सकता है? यह सवाल काल्पनिक लगता है, लेकिन असलियत में यही हुआ। डोनाल्ड ट्रंप, जो खुद को डील मेकर, नेगोशिएटर और सुपरपावर के प्रतीक मानते थे, उन्हें भारत ने एक ऐसे मुद्दे पर दरकिनार कर दिया, जिसे वह अपने करियर की सबसे बड़ी उपलब्धि बनाना चाहते थे। और इस आहत ईगो का नतीजा निकला—भारत पर 50% का Tariff। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

अमेरिकी ब्रोकरेज फर्म जेफरीज ने साफ़ लिखा कि यह Tariff रूस से भारत के तेल खरीदने से जुड़ा नहीं था, बल्कि ट्रंप के व्यक्तिगत अहंकार से जुड़ा था। उन्हें उम्मीद थी कि भारत-पाकिस्तान संघर्ष में वे मध्यस्थ बनेंगे, शांति स्थापित करेंगे और दुनिया उन्हें “पीसमेकर” के तौर पर याद रखेगी। लेकिन भारत ने साफ़ इंकार कर दिया—कि यह उनका द्विपक्षीय मामला है और किसी तीसरे देश की ज़रूरत नहीं। ट्रंप के लिए यह सिर्फ़ राजनीतिक नहीं, बल्कि व्यक्तिगत हार थी। और उसी हार को छिपाने के लिए उन्होंने भारत के Export पर भारी Tariff लगा दिया।

इस घटना ने एक बार फिर यह साबित किया कि ट्रंप की राजनीति में राष्ट्रहित से ज्यादा बड़ा उनका व्यक्तिगत ईगो था। इतिहास गवाह है कि उन्होंने कई बार ऐसे फैसले लिए, जिनका तर्क कमज़ोर था लेकिन जिनसे उन्हें अपने “मजबूत नेता” की छवि गढ़ने में मदद मिली।

चीन के साथ ट्रंप का ट्रेड वॉर इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। 2018 में उन्होंने चीन पर सैकड़ों अरब डॉलर के Tariff लगाए, यह कहते हुए कि चीन अमेरिका का शोषण कर रहा है। लेकिन वास्तविकता यह थी कि इन टैरिफ्स ने अमेरिकी किसानों, मैन्युफैक्चरर्स और उपभोक्ताओं पर बोझ डाला। सोयाबीन और मक्के के अमेरिकी किसान रातों-रात बाजार खो बैठे क्योंकि चीन ने जवाबी कार्रवाई में अमेरिका से Import घटा दिया। नतीजा यह हुआ कि अमेरिकी किसानों को अरबों डॉलर की सब्सिडी देनी पड़ी, जबकि ट्रंप लगातार दावा करते रहे कि उन्होंने चीन को “घुटनों पर ला दिया।”

इसी तरह उन्होंने नाटो पर हमला बोला। दशकों से अमेरिका नाटो का सबसे बड़ा सहारा रहा था। लेकिन ट्रंप ने कहा कि यूरोपीय देश अमेरिका का फायदा उठा रहे हैं, और उन्होंने कई बार धमकी दी कि अमेरिका नाटो से बाहर हो सकता है। यह बयान सिर्फ़ यूरोप को हिलाने वाला नहीं था, बल्कि रूस को भी अप्रत्यक्ष फायदा पहुँचाने वाला था। experts ने तब चेतावनी दी थी कि यह कदम अमेरिका के राष्ट्रीय हित के खिलाफ है। लेकिन ट्रंप को इससे फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि उन्हें यह दिखाना था कि वह “पुराने सिस्टम” को तोड़कर नया बनाएंगे।

पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट से बाहर निकलने का फैसला भी इसी श्रेणी में आता है। जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक संकट है। लेकिन ट्रंप ने इसे अमेरिका के लिए “अनुचित बोझ” बताया और समझौते से बाहर निकल गए। असली कारण यह था कि वे अपने समर्थकों को दिखाना चाहते थे कि वे अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे झुकने वाले नेता नहीं हैं। नतीजा यह हुआ कि अमेरिका का पर्यावरणीय नेतृत्व कमजोर हो गया, जबकि चीन और यूरोप ने इस जगह को भर दिया।

इन सारे उदाहरणों से यह साफ होता है कि ट्रंप की राजनीति में “अहंकार बनाम राष्ट्रहित” की लड़ाई हमेशा अहंकार जीतता रहा। और भारत पर लगाया गया Tariff भी इसी सोच का हिस्सा था।

भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक संबंध लंबे समय से जटिल रहे हैं। आज भारत अमेरिका को अरबों डॉलर का सामान Export करता है—जैसे कपड़े, दवाइयाँ, इंजीनियरिंग गुड्स और आईटी सेवाएँ। वहीं अमेरिका भारत को तकनीकी उत्पाद, विमान और कृषि सामान बेचता है। दशकों से अमेरिका चाहता रहा है कि भारत अपना कृषि बाज़ार विदेशी कंपनियों के लिए खोले। लेकिन भारत की कोई भी सरकार इस कदम के लिए तैयार नहीं हुई, क्योंकि यह 25 करोड़ किसानों और मजदूरों की आजीविका से जुड़ा हुआ है।

जब ट्रंप ने भारत पर 50% Tariff लगाया, तो इसका सीधा असर भारतीय exporters पर पड़ा। छोटे और मध्यम उद्योग, जो अमेरिका में कपड़े और हस्तशिल्प बेचते थे, अचानक उनके ऑर्डर कम हो गए। फार्मास्युटिकल कंपनियों पर भी दबाव बढ़ा। किसान संगठनों ने चेतावनी दी कि अगर भारत अमेरिकी दबाव में आकर कृषि बाजार खोलेगा, तो देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था बर्बाद हो जाएगी।

ग्राउंड लेवल पर इसके नतीजे और भी गंभीर थे। गुजरात और पंजाब के टेक्सटाइल एक्सपोर्टर, जो अमेरिका में कॉटन और फैब्रिक बेचते थे, उन्हें भारी नुकसान हुआ। आईटी कंपनियों को भी डर था कि कहीं Tariff का असर सर्विस सेक्टर पर न आ जाए। लेकिन सबसे बड़ा झटका किसानों को लगा, क्योंकि अमेरिकी कंपनियाँ भारत में सस्ते दामों पर गेहूँ और मकई लाने का दबाव बना रही थीं।

जेफरीज की रिपोर्ट ने चेतावनी दी कि यह Tariff अमेरिका के लिए भी सही नहीं है। भारत को दूर धकेलने का मतलब है कि वह चीन और रूस के और करीब जाएगा। पहले ही भारत रूस से सस्ते दामों पर तेल खरीद रहा था। अब अगर उसे अमेरिकी बाज़ार में मुश्किलें आती हैं, तो वह अपनी निर्भरता और बढ़ा सकता है। यह सीधे-सीधे अमेरिका की रणनीति के खिलाफ है।

दुनिया की राजनीति में “ईगो” के कारण फैसले होने की यह पहली घटना नहीं है। रूस-यूक्रेन युद्ध में भी व्लादिमीर पुतिन के अहंकार की झलक साफ दिखती है। उन्होंने बार-बार कहा कि यूक्रेन नाटो में शामिल नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह रूस की सुरक्षा के खिलाफ है। लेकिन जब उनकी बात नहीं सुनी गई, तो उन्होंने सैन्य आक्रमण का रास्ता चुना। यह फैसला रणनीतिक से ज्यादा व्यक्तिगत था, और नतीजा पूरी दुनिया पर पड़ा।

चीन-ताइवान मसले को ही देख लीजिए। चीन बार-बार कहता है कि ताइवान उसका हिस्सा है। लेकिन ताइवान के लोकतांत्रिक चुनाव और अमेरिका का समर्थन चीन के नेताओं के लिए चुनौती बन जाता है। यही वजह है कि हर बार जब ताइवान की राष्ट्रपति अमेरिकी दौरे पर जाती हैं, चीन गुस्से में सैन्य अभ्यास करता है। यह गुस्सा सिर्फ़ राजनीतिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय ईगो का हिस्सा है।

इतिहास बताता है कि जब बड़े नेता व्यक्तिगत ईगो को राष्ट्रीय नीति बना लेते हैं, तो उसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है। ट्रंप का भारत पर लगाया गया Tariff भी यही सिखाता है। इससे न तो अमेरिका को फायदा हुआ, न भारत को। नुकसान सिर्फ़ किसानों, मजदूरों और छोटे व्यवसायियों को हुआ।

लेकिन इस कहानी का सबसे बड़ा सबक यही है कि वैश्विक राजनीति केवल अर्थव्यवस्था और रणनीति से नहीं चलती। इसमें इंसानी भावनाएँ, अहंकार और क्रेडिट की भूख भी शामिल होती है। और जब इनका टकराव होता है, तो दुनिया की दिशा बदल जाती है।

आज जब भारत, अमेरिका और चीन दोनों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है, तो यह घटना उसे याद दिलाती है कि किसी भी बड़ी ताक़त पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं किया जा सकता। भारत को अपनी रणनीति खुद बनानी होगी। और यही कारण है कि आज भारत आत्मनिर्भरता, नए बाज़ारों और बहुपक्षीय समझौतों की ओर बढ़ रहा है।

Conclusion

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