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Trade War: Tariff वार में भारत की बाज़ी! अमेरिका को कड़ी टक्कर देने की पूरी तैयारी I 2025

Tariff

सोचिए… एक ऐसा खेल, जिसमें दोनों खिलाड़ी ही सुपरपावर हों, लेकिन एक खिलाड़ी बार-बार नियम बदलकर खेल को अपने पक्ष में करने की कोशिश करे। और दूसरा खिलाड़ी… खामोश होकर, मुस्कुराते हुए, चालाकी से अपना अगला दांव तैयार कर रहा हो। यह कहानी है दुनिया के दो बड़े आर्थिक दिग्गजों—भारत और अमेरिका—के बीच चल रही उस जंग की, जिसमें दांव सिर्फ व्यापार का नहीं, बल्कि इज्जत, रणनीति और वैश्विक ताकत का भी है।

पिछले कुछ दिनों में अमेरिका और भारत के रिश्तों में एक अदृश्य दरार गहरी होती जा रही है। वजह? अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के Tariff और पेनाल्टी के फैसले। पहले उन्होंने भारत पर 25% का Tariff लगाया, और फिर रूस से तेल खरीदने पर 25% की अतिरिक्त पेनाल्टी का ऐलान कर दिया। यानी कुल मिलाकर 50% का आर्थिक हथियार, जो सीधा भारत की जेब पर वार करता है। और ये कोई खाली धमकी नहीं—यह 27 अगस्त से पूरी तरह लागू होने जा रहा है।

अब ये सुनकर सवाल उठता है—क्या भारत चुपचाप यह सब सह लेगा? क्या एक दोस्त देश का ये दोहरा रवैया भारत को मजबूर कर देगा कि वो झुक जाए? या फिर भारत के पास भी ऐसे पत्ते हैं, जिनसे वो अमेरिका को उसकी ही चाल में मात दे सकता है? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे। पूर्व वाणिज्य सचिव अजय दुआ कहते हैं—”अमेरिका सोच भी नहीं सकता कि भारत के पास कितने बड़े हथियार हैं, और वो भी बिना गोली चलाए।”

पहला दांव—जवाबी टैरिफ। यह भारत पहले भी खेल चुका है। 2019 में, जब अमेरिका ने स्टील और एल्यूमिनियम पर टैरिफ लगाया था, तब भारत ने 28 अमेरिकी उत्पादों पर शुल्क लगाकर सीधा पलटवार किया था। कैलिफोर्निया के बादाम, वाशिंगटन के सेब, अमेरिकी मशीनरी—इन सब पर इतना भार पड़ा कि वहां के किसान और इंडस्ट्री लॉबी खुद व्हाइट हाउस पर दबाव बनाने लगी। अब अगर भारत 50% तक का टैरिफ चुनिंदा अमेरिकी उत्पादों पर लगा दे, तो ट्रंप के लिए ये सिरदर्द से कम नहीं होगा। और यही नहीं—भारत अपने डेटा नियम भी सख्त कर सकता है, जिससे गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों को भारत में काम करना मुश्किल हो जाएगा।

दूसरा हथियार—भारत का विशाल बाजार। 140 करोड़ से ज्यादा लोगों का देश, और इसमें तेजी से बढ़ता मिडिल क्लास, जिसकी जेब में अब खर्च करने की ताकत है। भारत का प्रति व्यक्ति आय करीब 11,000 डॉलर तक पहुंच रही है और अगले कुछ सालों में भारत अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। अमेज़न, एप्पल, गूगल—ये सभी कंपनियां भारत को सिर्फ एक मार्केट नहीं, बल्कि ‘फ्यूचर ऑफ प्रॉफिट’ मानती हैं। अब सोचिए, अगर भारत ने इन कंपनियों के लिए दरवाजे थोड़ा बंद कर दिए, तो वॉल स्ट्रीट के शेयर ग्राफ कैसे नीचे आएंगे।

तीसरा पावर—भारत का टैलेंट। बेंगलुरु से लेकर हैदराबाद तक, दिल्ली-एनसीआर से पुणे और चेन्नई तक, भारत वह जगह है जहां से अमेरिका को सस्ते और टैलेंटेड दिमाग मिलते हैं। अमेरिका में 45 लाख से ज्यादा भारतीय मूल के लोग रहते हैं, जो वहां की अर्थव्यवस्था और राजनीति, दोनों में गहरी पैठ रखते हैं। सुंदर पिचई जैसे लोग न सिर्फ अमेरिकी कंपनियों को चला रहे हैं, बल्कि यह भी दिखा रहे हैं कि भारत का ब्रेन पावर, अमेरिका के टेक फ्यूचर का इंजन है।

फिर आता है चौथा मोहरा—डिफेंस डील्स। पिछले कुछ सालों में भारत ने बोइंग, लॉकहीड मार्टिन जैसी अमेरिकी कंपनियों से अरबों डॉलर के हथियार और विमान खरीदे हैं। लेकिन अगर भारत ने फ्रांस या रूस की तरफ रुख कर लिया, तो अमेरिकी डिफेंस इंडस्ट्री को अरबों डॉलर का घाटा हो सकता है। और जब यह घाटा अमेरिका के राजनीतिक नक्शे में वोटों में तब्दील होगा, तो ट्रंप के लिए चुनावी मौसम और भी गर्म हो जाएगा।

पांचवां और बेहद अहम प्वाइंट—दवाइयां और मेडिकल सप्लाई चेन। अमेरिका के अस्पतालों में सस्ती जेनेरिक दवाएं भारत से ही जाती हैं। अगर भारत ने इनकी सप्लाई रोक दी या महंगी कर दी, तो अमेरिकी हेल्थकेयर सेक्टर में भूचाल आ जाएगा। और यह सिर्फ दवाओं तक सीमित नहीं है—टेक्सटाइल, ऑटोमोबाइल, सर्जिकल इक्विपमेंट—इन सबमें भारत की सप्लाई चेन अमेरिका की जरूरत बन चुकी है।

छठा पत्ता—तेल और गैस। हां, भारत अमेरिका से ऊर्जा खरीदता है, लेकिन यह उसकी मजबूरी नहीं है। मिडिल ईस्ट, अफ्रीका और रूस जैसे विकल्प भारत के पास मौजूद हैं। अगर भारत अमेरिकी LNG या क्रूड ऑयल की खरीद कम कर दे, तो अमेरिकी ऊर्जा कंपनियों के बैलेंस शीट में मोटी दरार पड़ जाएगी।

सातवां कारण—भारत का बढ़ता कद। G20, BRICS, UN—इन सब मंचों पर भारत की आवाज अब सिर्फ सुनी नहीं, मानी भी जाती है। अमेरिका को जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद और इंडो-पैसिफिक रणनीति जैसे मुद्दों पर भारत का साथ चाहिए। लेकिन अगर भारत ने दूरी बना ली, तो अमेरिका की वैश्विक पोजीशन पर सीधा असर पड़ेगा।

आठवां कार्ड—आत्मनिर्भरता। मोदी सरकार का ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ सिर्फ स्लोगन नहीं, बल्कि एक रणनीति है। इसका मतलब है कि भारत धीरे-धीरे अपनी जरूरतें खुद पूरी करेगा और अमेरिका से Import कम करेगा। साथ ही, यूरोप, एशिया और अफ्रीका के देशों से रिश्ते मजबूत करके भारत अमेरिका पर अपनी निर्भरता घटा सकता है।

नौवां दांव—चीन का मुद्दा। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद अमेरिका के लिए भारत को एक नैचुरल पार्टनर बनाता है। अगर भारत अमेरिका से दूर होकर BRICS में रूस और चीन के करीब चला गया, तो यह अमेरिका की सबसे बड़ी रणनीतिक हार होगी।

दसवां और आखिरी प्वाइंट—Indo-Pacific region में भारत की रणनीतिक पोजीशन। क्वाड (भारत, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया) का मकसद चीन को संतुलित करना है, और भारत के बिना यह नामुमकिन है। अगर भारत ने अपने पत्ते खींच लिए, तो अमेरिका की पूरी एशिया स्ट्रैटेजी ध्वस्त हो सकती है।

इन सभी बातों के बीच सबसे दिलचस्प है—भारत और अमेरिका के बीच का व्यापारिक आंकड़ा। साल 2024 में दोनों देशों के बीच कुल 11 लाख करोड़ रुपए का व्यापार हुआ। इसमें भारत ने अमेरिका को 7.35 लाख करोड़ का Export किया—दवाइयां, ज्वैलरी, टेलीकॉम डिवाइस, पेट्रोलियम और कपड़े। वहीं, अमेरिका ने भारत को 3.46 लाख करोड़ का Export किया—तेल, कोयला, हीरे, एयरक्राफ्ट पार्ट्स और स्पेसक्राफ्ट के पुर्जे।

ये आंकड़े सिर्फ व्यापार की कहानी नहीं बताते, बल्कि यह भी बताते हैं कि दोनों एक-दूसरे के लिए कितने जरूरी हैं। यही वजह है कि इस टैरिफ युद्ध में सिर्फ एक पक्ष को जीतते देखना मुश्किल है—क्योंकि अगर एक गिरा, तो दूसरा भी चोटिल होगा। लेकिन अंतर इतना है कि भारत के पास अब वो आत्मविश्वास और विकल्प हैं, जो उसे मजबूरी से बाहर निकाल सकते हैं। और यही बात अमेरिका को सबसे ज्यादा चुभ रही है।

Conclusion

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