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Breakthrough: Tariff पर जीत! भारत-रूस की नई दोस्ती ने ट्रंप की पॉलिसी का तोड़ निकाला I 2025

Tariff

सोचिए… एक सुबह आप चाय की चुस्की ले रहे हैं और अचानक न्यूज़ चैनल पर लाल पट्टी में फ्लैश आता है—”अमेरिका ने भारत पर 50% Tariff लगा दिया!”। एंकर की आवाज़ में उत्सुकता और तनाव दोनों हैं, और कैमरे के पीछे स्टॉक मार्केट के गिरते हुए ग्राफ दिख रहे हैं। आपके हाथ से कप का हैंडल छूटते-छूटते बचता है। मन में पहला ख्याल आता है—अब क्या होगा? यह तो सीधी-सीधी भारत की अर्थव्यवस्था पर चोट है।

किसी भी दूसरे देश के लिए यह खबर डर और घबराहट लेकर आती, लेकिन भारत ने कुछ ऐसा किया, जिससे पूरी दुनिया चौंक गई। उसने न तो अपने कदम पीछे खींचे, न ही घबराकर समझौता किया। बल्कि उसने ऐसी चाल चली, जो सीधा अमेरिका को यह संदेश दे रही थी—“हमारे अंगने में तुम्हारा क्या काम है?”। और इस खेल में भारत के साथ था उसका दशकों पुराना, भरोसेमंद दोस्त—रूस। यह सिर्फ एक व्यापारिक चाल नहीं थी, यह भारत की आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी कूटनीति का ऐलान था। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर एक नहीं, बल्कि दोहरी मार डाली। पहला, भारत से अमेरिका जाने वाले सामान पर 25% का Tariff—यानी हर उत्पाद, चाहे वह कपड़ा हो, स्टील हो, फार्मा हो, उसकी कीमत वहां पहुंचते ही एक चौथाई बढ़ जाएगी। दूसरा, रूस से आने वाले कच्चे तेल पर अतिरिक्त 25% का Tariff—यानी कुल मिलाकर 50% का झटका। यह कदम सीधा भारत के दिल पर वार जैसा था, क्योंकि रूस भारत का सबसे बड़ा तेल सप्लायर है। ट्रंप की मंशा साफ थी—भारत को आर्थिक दबाव में लाकर रूस से तेल खरीदने से रोकना। यह सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक दबाव का खेल था।

लेकिन भारत ने इस दबाव का जवाब बंदूक या तलवार से नहीं, बल्कि दिमाग़ और रणनीति से दिया। उसने रूस से तेल खरीदना बंद करने के बजाय, उस प्रक्रिया को इतना सरल और सीधा बना दिया कि अमेरिका के पास उसे रोकने का कोई व्यावहारिक तरीका ही न बचे। यह रणनीति सिर्फ डॉलर के विकल्प तलाशने तक सीमित नहीं थी, बल्कि उस पूरे सिस्टम को बदल देने की थी, जिस पर दशकों से वैश्विक व्यापार टिका हुआ है।

इस खेल की चाबी थी—रुपया-रूबल व्यापार। भारत और रूस के बीच यह व्यवस्था पहले भी मौजूद थी, लेकिन 5 अगस्त को रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) ने इसमें ऐसा बदलाव किया जिसने तस्वीर बदल दी। अब भारत के ऑथराइज्ड डीलर (AD) कैटेगरी-1 बैंक, जो अंतरराष्ट्रीय लेन-देन करने की अनुमति रखते हैं, केंद्रीय बैंक से विशेष अनुमति लिए बिना ही रूसी बैंकों के लिए स्पेशल रुपये वोस्ट्रो अकाउंट (SRVA) खोल सकते हैं। पहले यह एक लंबी और धीमी प्रक्रिया थी, अब यह बैंकों के लिए सीधी और तेज हो गई।

लेकिन यह SRVA आखिर है क्या? इसे ऐसे समझिए—मान लीजिए रूस की एक तेल कंपनी भारत को तेल बेचती है। पहले उस सौदे का पैसा डॉलर में जाता था, फिर रूस उसे अपने रूबल में बदलता था। इस बीच डॉलर की कीमत, अमेरिकी बैंकिंग सिस्टम और प्रतिबंध—सबके जाल में यह लेन-देन फंस जाता था। अब, SRVA में यह प्रक्रिया सीधी है—रूस को रुपये में पेमेंट होगी, जो भारत में ही एक भारतीय बैंक के खाते में जमा होगी। यह खाता रूसी बैंक के नाम पर होगा, लेकिन भारतीय मुद्रा में। न डॉलर की जरूरत, न अमेरिकी बैंकों की इजाज़त, न ही SWIFT जैसे सिस्टम पर निर्भरता।

RBI के इस कदम से बैंकों को बड़ी राहत मिली। पहले SRVA खोलने के लिए हर केस में RBI की हरी झंडी लेनी पड़ती थी, जिससे कई बार महीनों लग जाते थे। अब बैंक खुद यह खाता खोल सकते हैं। इसका मतलब है—सौदा तय होते ही पेमेंट का रास्ता खुला। तेल का शिपमेंट तैयार, पेमेंट सीधे रुपये में, और रूस तक रकम पहुंचने में न देरी, न अड़चन।

रूस के लिए भी यह बदलाव किसी तोहफे से कम नहीं। वह भारत को कच्चा तेल देने वाला सबसे बड़ा सप्लायर है। पहले उसे भारतीय रुपये को डॉलर में बदलने की मजबूरी थी, जिससे समय, लागत और अमेरिकी प्रतिबंधों का खतरा तीनों बढ़ जाते थे। अब वह अपने रुपये सीधे भारत में रख सकता है और उनका इस्तेमाल भी कर सकता है—वह चाहे तो इन रुपयों को भारत में Investment करे, भारतीय कंपनियों से सामान खरीदे, या तीसरे देशों के साथ व्यापार में लगाए।

लेकिन हर रणनीति के अपने पेंच होते हैं, और यहां भी एक बड़ी चुनौती सामने आई—भारत-रूस व्यापार का असंतुलन। भारत रूस से तेल बहुत खरीदता है, लेकिन रूस को सामान कम बेचता है। नतीजा यह होता है कि रूस के पास भारतीय रुपये का बड़ा भंडार जमा हो जाता है, जिसका इस्तेमाल सीमित जगहों पर ही हो सकता है। और जब ज्यादा रुपये जमा हों, तो सवाल उठता है—इनका करें क्या?

यही नहीं, रूबल की कीमत में भारी उतार-चढ़ाव एक और सिरदर्द है। अगर सीधे रुपये-रूबल एक्सचेंज रेट पर लेन-देन हो, तो इस अस्थिरता से कारोबारियों को भारी नुकसान भी हो सकता है। कई बार इस समस्या से बचने के लिए फिर डॉलर का रास्ता अपनाना पड़ता है—जो न सिर्फ महंगा है, बल्कि अमेरिका के नियंत्रण में भी है। इसके ऊपर से SWIFT—वह अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग नेटवर्क जिससे रूस के कई बैंक बाहर कर दिए गए हैं—ने लेन-देन को और पेचीदा बना दिया है।

तो भारत ने इन चुनौतियों का तोड़ कैसे निकाला? यहां आई वह बहु-स्तरीय रणनीति जिसने पूरी दुनिया को चौंका दिया। सबसे पहले—रुपया-रूबल के लिए एक स्थिर और पारदर्शी एक्सचेंज रेट सिस्टम बनाने की दिशा में काम शुरू हुआ, ताकि डॉलर में बदलने की जरूरत कम हो। दूसरा—SWIFT के विकल्प तलाशना, जिसमें रूस का खुद का SPFS नेटवर्क और भारत का SFMS सिस्टम शामिल है। तीसरा—RBI का मास्टरस्ट्रोक—रूसी कंपनियों को अपने SRVA में पड़े रुपये को भारतीय सरकारी बॉन्ड, सिक्योरिटीज, इक्विटी और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में Investment करने की इजाज़त।

इसका मतलब यह है कि रूस के रुपये अब सिर्फ तेल खरीद-बिक्री में नहीं, बल्कि भारत की सड़कों, पुलों, कारखानों और टेक्नोलॉजी प्रोजेक्ट्स में भी लगाए जा सकते हैं। यह भारत के लिए दोहरी जीत है—एक, तेल के सौदे आसान और सस्ते हुए; दो, भारत के विकास में foreign investment का एक और स्थिर स्रोत जुड़ गया।

इतना ही नहीं, भारत ने एक और चाल चली—इन रुपयों का इस्तेमाल तीसरे देशों को एक्सपोर्ट में किया जा सकेगा। मान लीजिए रूस भारत से कोई मशीन खरीदता है और उसे किसी अफ्रीकी देश को बेचता है, तो इस सौदे में भी भारत में जमा रुपये का इस्तेमाल होगा। इस प्लान को और मज़बूत बनाने के लिए UAE को शामिल करने की कोशिश हो रही है, ताकि एक त्रिपक्षीय सेटलमेंट सिस्टम बनाया जा सके।

इन सभी कदमों का असर सिर्फ अर्थव्यवस्था पर नहीं, बल्कि राजनीति पर भी पड़ेगा। अमेरिका को यह साफ संदेश जाएगा कि भारत अब उसके टैरिफ से डरकर अपने फैसले नहीं बदलता। रूस को भरोसा मिलेगा कि भारत उसके साथ खड़ा है, और दुनिया के बाकी देश देखेंगे कि कैसे एक विकासशील राष्ट्र ने अपनी शर्तों पर वैश्विक व्यापार के नियम गढ़े।

ट्रंप का 50% टैरिफ भारत के लिए एक तरह से परीक्षा थी—कि क्या वह दबाव में आएगा या नहीं। लेकिन भारत-रूस की यह चाल उस परीक्षा में न सिर्फ पास हुई, बल्कि टॉपर की तरह दुनिया का ध्यान खींच लिया। यह कहानी बताती है कि नया भारत न सिर्फ बाज़ार का खिलाड़ी है, बल्कि खेल के नियम बनाने वाला भी है।

Conclusion

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