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Alaska की ऐतिहासिक डील! रूस ने क्यों बेचा अमेरिका को, कितनी मिली थी कीमत और अंग्रेजों की असली भूमिका। 2025

Alaska

ज़रा सोचिए… आज अगर आपसे कहा जाए कि दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक ने, कभी अपनी ज़मीन इतनी सस्ती बेच दी थी कि उसकी कीमत प्रति एकड़ महज़ दो सेंट से भी कम थी, तो क्या आप यकीन करेंगे? और अगर यह भी बताया जाए कि वह ज़मीन वही है, जहां आज दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा है, जहां तेल और सोने के असीमित भंडार छिपे हुए हैं, और जिसे दुनिया की सबसे रणनीतिक जगहों में गिना जाता है… तो हैरानी और भी बढ़ जाएगी।

यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं है, बल्कि इतिहास का वह सच है जिसने रूस और अमेरिका की किस्मत हमेशा के लिए बदल दी। यह कहानी है 1867 की, जब रूस ने अपने ही हिस्से को अमेरिका को बेच दिया—वह हिस्सा जिसे हम आज Alaska के नाम से जानते हैं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

Alaska आज अमेरिका का गौरव है, लेकिन कभी यह रूस का ताज था। इसकी शुरुआत 1725 में हुई, जब रूसी ज़ार पीटर द ग्रेट ने एक डेनिश नाविक विटस बेरिंग को North Pacific की ओर भेजा। बेरिंग की यात्रा ने रूस की आँखें खोल दीं। उसे समझ आया कि Alaska प्राकृतिक संसाधनों से भरा हुआ है—समुद्री ऊदबिलाव की खाल, मछलियों का भंडार, और आगे जाकर Mineral wealth।

यही वजह थी कि रूस ने यहाँ कदम जमाने का फ़ैसला किया। 1799 आते-आते सम्राट पॉल प्रथम ने “रूसी-अमेरिकी कंपनी” बना दी और उसे Alaska का शासक बना दिया। यही कंपनी वहां की बस्तियों को चलाती थी, जिसमें सीताका सबसे बड़ा ठिकाना बना, जिसे 1804 में त्लिंगित जनजाति को हराकर रूसियों ने अपना Colonial Center बना लिया।

लेकिन जितनी आसानी से रूस ने Alaska पर कब्ज़ा जमाया, उतनी ही मुश्किलें वहाँ राज करने में आने लगीं। Alaska सेंट पीटर्सबर्ग से हज़ारों किलोमीटर दूर था। बर्फ़ से ढके पहाड़, ठंडी हवाएँ, कठोर जलवायु, और संसाधनों की लगातार कमी रूस के लिए सिरदर्द बनने लगी। अमेरिकी व्यापारी भी मैदान में उतर चुके थे और उन्होंने रूस के शिकार और व्यापार में प्रतिस्पर्धा शुरू कर दी थी। रूस के पास न सेना थी कि वह वहां स्थायी रूप से मज़बूत हो सके, न ही इतनी बड़ी पूंजी कि वह इस क्षेत्र को विकसित कर सके।

समस्या यहीं खत्म नहीं हुई। 1853 से 1856 तक चला क्रीमिया युद्ध रूस के लिए एक बड़ा मोड़ साबित हुआ। इस युद्ध में रूस ने मोल्दाविया और वालाचिया पर कब्ज़ा करने की कोशिश की, लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस ओटोमन साम्राज्य के साथ मिलकर उसके खिलाफ उतर आए। नतीजा यह हुआ कि रूस को करारी हार झेलनी पड़ी। उसने न सिर्फ़ अपनी ताकत खोई, बल्कि युद्ध पर 16 करोड़ पाउंड से ज़्यादा खर्च करके अपनी आर्थिक कमर भी तोड़ दी। यही वह पल था जब रूस को समझ आया कि दूर-दराज़ की कॉलोनियों को संभालना उसके बस में नहीं है।

क्रीमिया युद्ध की हार ने रूस को मजबूर कर दिया कि वह अपनी Colonial preferences पर पुनर्विचार करे। उसे समझ आ गया कि अलास्का उसके लिए बोझ बन चुका है। Alaska से लाभ घट रहा था क्योंकि समुद्री ऊदबिलाव की खाल का अत्यधिक शिकार हो चुका था, और व्यापार ठप पड़ गया था। ऊपर से ब्रिटिश-नियंत्रित कनाडा पास ही था। रूसियों को डर था कि अगर भविष्य में ब्रिटेन से युद्ध हुआ तो ब्रिटिश सेना सीधा, Alaska पर धावा बोल देगी और वह इसे बिना लड़े ही खो देगा।

यही वह मोड़ था जब रूस ने सोचा—बेहतर होगा कि इस ज़मीन को बेच दिया जाए। और तब रूस की नज़र अमेरिका पर पड़ी। उस दौर में अमेरिका गृहयुद्ध से उभर रहा था और पश्चिम की ओर लगातार विस्तार कर रहा था। उसके लिए Alaska सोने पर सुहागा था—एक नई ज़मीन, नए संसाधन और North Pacific में रणनीतिक बढ़त। रूस के लिए यह डील फायदेमंद थी क्योंकि उसे तुरंत पैसे की ज़रूरत थी और साथ ही वह ब्रिटेन से Alaska को बचाना चाहता था।

1865 में अमेरिकी गृहयुद्ध खत्म हुआ। इसके बाद अमेरिकी विदेश मंत्री विलियम सीवार्ड ने रूस से Alaska खरीदने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। और फिर आया वह दिन जिसने इतिहास बदल दिया। 30 मार्च 1867 को वाशिंगटन और रूस के बीच समझौता हुआ—अमेरिका ने Alaska को खरीद लिया। कीमत थी सिर्फ़ 7.2 मिलियन डॉलर। जी हां, महज़ 7.2 मिलियन डॉलर में अमेरिका ने 1.5 मिलियन वर्ग किलोमीटर यानी 6,00,000 वर्ग मील की ज़मीन खरीद ली। उस समय यह कीमत प्रति एकड़ केवल दो सेंट से भी कम थी।

सोचिए, आज एक छोटे से अपार्टमेंट की कीमत भी इससे कई गुना ज़्यादा होती है, लेकिन उस दौर में एक पूरा राज्य अमेरिका की झोली में चला गया। अमेरिका ने न सिर्फ़ इतनी बड़ी ज़मीन हासिल की, बल्कि Pacific Ocean के उत्तरी किनारे तक अपनी पहुँच भी पक्की कर ली। उस समय लोगों ने इस डील को “Seward’s Folly” यानी सीवार्ड की मूर्खता कहा था। अमेरिकी अख़बारों ने इसका मज़ाक उड़ाया कि इतनी बर्फ़ीली और बंजर ज़मीन खरीदने का क्या मतलब है। लेकिन बाद में जब Alaska के तेल, सोने और खनिज संसाधनों का खज़ाना खुला, तब सबको समझ आया कि यह अमेरिका की सबसे बड़ी जीतों में से एक थी।

अगर रूस ने यह सौदा नहीं किया होता, तो शायद आज Alaska रूस का ही हिस्सा होता। और ज़रा सोचिए, अगर आज रूस का झंडा अलास्का पर लहराता तो अमेरिका और रूस का समीकरण कितना अलग होता। शायद Cold War के दिनों में अमेरिका की नाक में दम करने के लिए रूस के पास और भी बड़ा हथियार होता। लेकिन इतिहास ने करवट ली और रूस ने Alaska को गंवा दिया।

यहाँ अंग्रेजों की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। ब्रिटेन और रूस उस दौर में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे। रूस को यह डर सताता था कि अगर उसने Alaska नहीं बेचा, तो ब्रिटिश-नियंत्रित कनाडा कभी भी इसे हड़प सकता है। यही डर रूस को अमेरिका की ओर धकेल लाया। अमेरिका उस समय ब्रिटेन का दुश्मन नहीं था, बल्कि उसके साथ रिश्ते संभाल रहा था। रूस ने सोचा कि अगर Alaska ब्रिटेन के हाथ जाने की बजाय अमेरिका को दे दिया जाए तो भविष्य में उसके लिए नुकसान कम होगा।

Alaska का यह सौदा उस दौर की अंतरराष्ट्रीय राजनीति का एक अनोखा उदाहरण था। एक तरफ़ रूस था, जो मजबूरी में अपनी ज़मीन बेच रहा था। दूसरी तरफ़ अमेरिका था, जो अपने विस्तार के लिए नए मौके ढूंढ रहा था। और बीच में ब्रिटेन था, जिसकी बढ़ती ताकत ने रूस को बेचने पर मजबूर किया। अगर अंग्रेज उस दौर में इतने आक्रामक न होते, तो शायद रूस इतना बड़ा फैसला कभी नहीं करता।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति

आज हालात बिल्कुल उलट हैं। रूस और अमेरिका एक-दूसरे के सबसे बड़े दुश्मन माने जाते हैं। Cold War से लेकर आज के यूक्रेन संघर्ष तक, दोनों देशों के बीच तनाव कभी कम नहीं हुआ। हथियारों की दौड़ हो, अंतरिक्ष की प्रतिस्पर्धा हो या फिर आर्थिक पाबंदियाँ—दोनों हर मोर्चे पर एक-दूसरे को चुनौती देते रहे हैं। लेकिन इतिहास का सच यही है कि कभी दोनों इतने नज़दीक थे कि, रूस ने अमेरिका पर भरोसा करके अपना एक पूरा प्रदेश उसे बेच दिया।

Alaska आज अमेरिका की रणनीतिक ताकत का प्रतीक है। वहां तेल के भंडार हैं, सैन्य ठिकाने हैं और उत्तरी ध्रुव तक पहुंचने का रास्ता भी। अमेरिका ने इस सौदे से जो पाया, उसने उसे एक महाशक्ति बनने में मदद की। वहीं रूस को मिला सिर्फ़ कुछ मिलियन डॉलर, जो जल्द ही खर्च भी हो गए। यह डील रूस की मजबूरी का प्रतीक थी और अमेरिका की दूरदर्शिता का।

इतिहास हमें यही सिखाता है कि ताकतवर राष्ट्र भी कभी-कभी अपनी गलतियों, और मजबूरियों से ऐसे फैसले ले लेते हैं जो आने वाले सदियों तक उनकी किस्मत बदल देते हैं। रूस ने Alaska बेचकर जो गलती की, उसकी कीमत वह आज तक चुका रहा है। और अमेरिका ने Alaska खरीदकर जो दूरदर्शिता दिखाई, उसका फल वह आज तक भोग रहा है।

Conclusion

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