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Economic Battle: Tariff पर ट्रंप की उलझन! चीन से टकराने से क्यों कतराता है अमेरिका – जानिए 5 बड़ी वजहें I

Tariff

सोचिए… वॉशिंगटन डीसी के व्हाइट हाउस में एक मीटिंग चल रही है। ओवल ऑफिस की खिड़की से बाहर ठंडी हवा आ रही है, लेकिन अंदर माहौल गरम है। एक ओर बैठे हैं अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप—तेज बोलने वाले, खुद को “डील मेकर” कहने वाले, और हर बार मंच पर खड़े होकर यह कहने वाले कि वे अमेरिका के लिए किसी से भी भिड़ सकते हैं। लेकिन आज उनकी टेबल पर एक फाइल पड़ी है, जिसके कागजों में सिर्फ आंकड़े नहीं, बल्कि एक ऐसे देश की ताकत का सबूत है जिससे टकराना आसान नहीं—चीन।

भारत पर वे पहले ही 25% Tariff लगा चुके थे, और उसे 50% तक बढ़ाने का ऐलान कर चुके हैं। लेकिन जब बात चीन की आती है, तो वही ट्रंप जो भारत को “टफ लव” दिखाते हैं, अचानक बातचीत और मोहलत की बात करने लगते हैं। 90 दिन का समय देते हैं, “बीच का रास्ता” खोजने की कोशिश करते हैं। सवाल उठता है—क्यों? क्या ट्रंप सच में चीन से डरते हैं, या इसके पीछे ऐसी मजबूरियां हैं जिन्हें आम लोग नहीं देख पा रहे? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

पहली और सबसे गहरी वजह है—रेयर अर्थ मिनरल का पेच। ये खनिज नाम में “रेयर” यानी दुर्लभ हैं, और काम में अनमोल। इन्हें आप रोज़ाना अपने घर में देख नहीं सकते, लेकिन आपकी जेब में रखे स्मार्टफोन, आपके ऑफिस का कंप्यूटर, आसमान में उड़ता फाइटर जेट, या अस्पताल में इस्तेमाल होने वाला हाई-टेक स्कैनर—इन सबका दिल इन्हीं Minerals से धड़कता है। और इनका सबसे बड़ा उत्पादक और Exporter है—चीन।

अमेरिका, जो दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, इस मामले में चीन पर बेहद निर्भर है। कुछ साल पहले तक यह निर्भरता इतनी स्पष्ट नहीं थी, लेकिन जब 2019 में चीन ने अपने इस हथियार को इस्तेमाल किया, तो अमेरिका के कई बड़े उद्योगों की सांसें अटक गईं। बीजिंग ने सात रेयर अर्थ प्रोडक्ट्स के Export पर पाबंदी लगा दी—यह सीधा संकेत था कि अगर ट्रंप ने दबाव बढ़ाया, तो चीन उनके सबसे संवेदनशील हिस्से पर चोट कर सकता है। ऑटोमोबाइल से लेकर रक्षा क्षेत्र तक, कई कंपनियां अचानक वैकल्पिक सप्लाई की खोज में लग गईं, लेकिन इन Minerals का दूसरा बड़ा स्रोत दुनिया में बहुत सीमित है।

हालांकि, इसका असर सिर्फ फैक्ट्रियों तक सीमित नहीं था। पेंटागन के सैन्य प्लानर्स ने चेतावनी दी—“अगर चीन ने सप्लाई पूरी तरह रोक दी, तो हमारे कुछ हथियार प्रोग्राम महीनों नहीं, बल्कि सालों तक अटक सकते हैं।” ट्रंप, जो रक्षा ताकत को अपनी छवि का हिस्सा मानते हैं, इस खतरे को नजरअंदाज नहीं कर सकते थे। यही वजह है कि चीन के साथ टकराव के बावजूद, वे इस मोर्चे पर पूरी तरह आक्रामक नहीं हुए।

दूसरी वजह है—सस्ते सामान की तलाश। भारत पर ऊंचे टैरिफ लगाने का मतलब है कि भारतीय उत्पाद अमेरिकी बाजार में महंगे हो जाएंगे। इसका असर सीधा अमेरिकी उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ेगा—चाहे वह कपड़े हों, मशीनरी हो या आईटी सर्विसेज़। अब अमेरिकी जनता को सस्ता विकल्प चाहिए, और यह विकल्प सबसे आसानी से देता है—चीन। अगर ट्रंप चीन पर भी भारी टैरिफ लगा देते, तो वहां से आने वाला सारा सामान महंगा हो जाता—फर्नीचर से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स तक। इससे अमेरिकी उपभोक्ताओं की नाराज़गी बढ़ती, महंगाई का दबाव आता और चुनावी साल में यह राजनीतिक खतरे में बदल जाता।

वहीं दूसरी ओर, चीन भी खाली हाथ नहीं बैठता। अगर ट्रंप वहां के माल पर टैरिफ बढ़ाते, तो बीजिंग भी जवाबी कदम उठाकर अमेरिकी उत्पादों पर टैरिफ बढ़ा देता। इसका असर अमेरिकी किसानों, मैन्युफैक्चरर्स और एक्सपोर्टर्स पर पड़ता। सोचिए, आयोवा का एक किसान, जो सोयाबीन चीन को बेचता है, अचानक पाता है कि उसका सबसे बड़ा खरीदार अब उसके माल पर भारी टैक्स लगा रहा है। ऐसे में किसान की नाराज़गी सीधे ट्रंप के वोट बैंक पर असर डाल सकती है।

तीसरी वजह है—ग्लोबल सप्लाई चेन का डर। दुनिया की अर्थव्यवस्था अब वैसी नहीं रही जैसी 50 साल पहले थी, जहां हर देश अपने-अपने हिसाब से उत्पादन करता था। आज एक आईफोन अमेरिका में डिज़ाइन होता है, लेकिन उसके पार्ट्स कोरिया, जापान, ताइवान और चीन से आते हैं, और असेंबली चीन में होती है।

अगर चीन पर टैरिफ की दीवार खड़ी हो गई, तो यह पूरी सप्लाई चेन में झटका भेजेगी—न सिर्फ अमेरिका, बल्कि यूरोप, एशिया और बाकी दुनिया को भी। कई इंडस्ट्रीज के लिए एक पार्ट की कमी पूरी प्रोडक्शन लाइन रोक सकती है। 2008 की आर्थिक मंदी के बाद से दुनिया अभी तक पूरी तरह उबरी नहीं, और कोई भी नेता ऐसा कदम नहीं उठाना चाहता जिससे एक और मंदी का खतरा पैदा हो।

ट्रंप जानते हैं कि अगर सप्लाई चेन हिली, तो इसका असर अमेरिकी स्टॉक मार्केट पर भी पड़ेगा। और उनके लिए शेयर बाजार का हरा रहना उतना ही ज़रूरी है जितना उनके राजनीतिक भाषण। यही कारण है कि चीन पर सख्ती दिखाना उनके लिए राजनीतिक बयान में आसान है, लेकिन असल में लागू करना उतना सीधा नहीं।

चौथी वजह है—जियोपॉलिटिकल समीकरण। चीन सिर्फ आर्थिक ताकत नहीं, बल्कि एक उभरती हुई सैन्य महाशक्ति है। अमेरिका के साथ उसके रिश्ते सिर्फ कारोबार तक सीमित नहीं हैं। दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती मौजूदगी, ताइवान पर उसका दावा, साइबर अटैक के आरोप, और रूस के साथ उसकी नजदीकियां—ये सभी मुद्दे अमेरिकी रणनीतिकारों के लिए चिंता का विषय हैं। ट्रंप को पता है कि अगर उन्होंने व्यापार में चीन पर बहुत दबाव बनाया, तो यह टकराव दूसरे मोर्चों पर भी फैल सकता है।

इसके अलावा, ऊर्जा राजनीति में भी चीन की चालें अमेरिका को परेशान करती हैं। अगर चीन रूस के साथ बड़े ऊर्जा सौदे करता है, तो यह Global energy बाजार में अमेरिका की स्थिति को कमजोर कर सकता है। ऐसे में ट्रंप के लिए जरूरी है कि वे चीन को पूरी तरह नाराज़ करने के बजाय, बातचीत के जरिए अपने लिए जगह बनाए रखें।

पांचवीं वजह है—तकनीकी निर्भरता। भले ही दुनिया की सबसे बड़ी टेक कंपनियां अमेरिका में हों, लेकिन उनके कई अहम कंपोनेंट चीन में बनते हैं। सेमीकंडक्टर के रॉ मटेरियल, बैटरी के दुर्लभ तत्व, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हार्डवेयर—इन सबकी सप्लाई चेन में चीन की भूमिका महत्वपूर्ण है। अगर ट्रंप अचानक टैरिफ लगा दें और चीन भी सप्लाई रोक दे, तो अमेरिकी टेक इंडस्ट्री महीनों के भीतर संकट में आ सकती है। और इस संकट का असर न सिर्फ शेयर बाजार पर, बल्कि अमेरिका की वैश्विक तकनीकी बढ़त पर भी पड़ेगा।

ट्रंप का यह रुख बाहर से देखने पर “नरमी” लगता है, लेकिन असल में यह एक संतुलन का खेल है—एक तरफ चीन पर इतना दबाव बनाना कि वह वार्ता की मेज पर रहे, और दूसरी तरफ अमेरिकी अर्थव्यवस्था, कंपनियों और उपभोक्ताओं को झटका न लगे। यही कारण है कि उन्होंने भारत पर टैरिफ लगाने में कोई हिचक नहीं दिखाई, लेकिन चीन को 90 दिन का समय देकर एक तरह से आर्थिक शतरंज खेल रहे हैं।

लेकिन असली सवाल यह है—क्या यह 90 दिन वाकई कोई समाधान देंगे, या यह बस तूफान से पहले की खामोशी है? क्योंकि अमेरिका और चीन का यह आर्थिक संघर्ष सिर्फ व्यापार तक सीमित नहीं, बल्कि उस वैश्विक सत्ता संघर्ष का हिस्सा है जिसमें हर चाल का असर पूरी दुनिया पर पड़ता है।

Conclusion

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