Site icon

Pharmaceutical companies को ट्रंप ने दिखाई औकात! 1300 डॉलर की दवा अब सिर्फ 88 में – मरीजों को राहत!

pharmaceutical companies

कल्पना कीजिए… एक ऐसी दवा जो अमेरिका में बिकती है 1300 डॉलर में, वही दवा लंदन में मिलती है सिर्फ 88 डॉलर में। फर्क सिर्फ इतना है कि अमेरिका में बेचने वाला वही है, जो लंदन में भी बेच रहा है। दवा वही, ब्रांड वही, प्लांट वही… बस देश बदल गया और कीमत 15 गुना तक उछल गई।

और इस खुलासे के बाद, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अचानक प्रेस कॉन्फ्रेंस में आते हैं, और ऐसा फैसला सुना देते हैं जिससे पूरी दवा इंडस्ट्री हिल जाती है। Pharmaceutical companies को 90% तक दाम घटाने का आदेश दे दिया जाता है। क्या ट्रंप का ये फैसला सिर्फ एक दोस्त की कॉल पर लिया गया? या इसके पीछे कोई और बड़ा खेल छिपा है? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।!

यह खबर जितनी चौंकाने वाली है, उससे कहीं ज्यादा दिलचस्प है इसका पूरा घटनाक्रम। ट्रंप ने सोमवार को एक आदेश जारी किया, जिसमें अमेरिका की सभी Pharmaceutical companies को 30 दिनों के भीतर प्रेस्क्रिप्शन दवाओं की कीमतें घटाने के लिए कहा गया। और यह कोई सुझाव नहीं, बल्कि सख्त सरकारी आदेश था—जिसमें चेतावनी दी गई थी कि अगर कंपनियों ने नियमों का पालन नहीं किया, तो उनके प्रोडक्ट्स पर भारी टैरिफ लगाया जाएगा।

अमेरिका के स्वास्थ्य मंत्री रॉबर्ट कैनेडी जूनियर को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वे अगले 30 दिनों में Pharmaceutical companies से मिलें, बात करें, और नई कीमतें तय करें। लेकिन अगर किसी भी स्तर पर सहमति नहीं बनती, तो कैनेडी को ट्रंप ने आदेश दिया है कि वे खुद नई कीमतों को लेकर नियम बनाएंगे—एक ऐसा नियम, जिसमें अमेरिका में दवा की कीमत उतनी ही होगी, जितनी दुनिया में सबसे कम दर्ज कीमत।

अब सवाल ये उठता है कि ट्रंप ने ये सब इतनी तेजी और आक्रामकता से क्यों किया? आमतौर पर सरकारें ऐसी नीतियां सालों की स्टडी और रिसर्च के बाद लागू करती हैं। लेकिन ट्रंप ने खुद प्रेस कॉन्फ्रेंस में कबूल किया कि इस फैसले की नींव उनके एक बिजनेसमैन दोस्त की बातों में छिपी थी। ट्रंप ने कहा, “मेरे एक दोस्त ने मुझे फोन किया। वो उस वक्त लंदन में था। उसने बताया कि उसने वही दवा वहां 88 डॉलर में खरीदी, जो अमेरिका में उसे 1300 डॉलर में मिलती है। दोनों जगह दवा एक ही कंपनी की, एक ही प्लांट से बनी, बॉक्स भी एक जैसा… फर्क सिर्फ देश का।”

यह बात सुनते ही ट्रंप चौंक गए। और तभी उनके दिमाग में ख्याल आया—क्यों अमेरिका को ही सबसे ज्यादा दाम चुकाने पड़ते हैं? क्यों एक अमेरिकन नागरिक को वही दवा इतनी महंगी मिलती है, जो किसी और देश में सस्ती है?

इस एक कॉल ने ट्रंप को एक ऐसे कदम की ओर बढ़ा दिया जो अमेरिका की Pharmaceutical companies के लिए भूचाल से कम नहीं था। ट्रंप ने कहा कि अमेरिका दवाओं के लिए बाकी देशों की तुलना में औसतन तीन गुना ज्यादा कीमत चुकाता है। और अब वह इसे खत्म करना चाहते हैं। उन्होंने साफ-साफ कहा कि दवाओं की कीमतें 59% से लेकर 90% तक घटाई जाएंगी। और अगर कंपनियां नहीं मानीं, तो उन पर भारी टैरिफ लगाया जाएगा। यानी अब टैरिफ की तलवार केवल चीन या अन्य देशों के खिलाफ नहीं, बल्कि अमेरिका की ही फार्मा कंपनियों के सिर पर लटकने लगी है।

फार्मा इंडस्ट्री का जवाब भी बेहद तीखा रहा। अमेरिका की फार्मा लॉबी ने ट्रंप के इस कदम को ‘खतरनाक’, ‘असंतुलित’ और ‘मरीजों के खिलाफ’ बताया। कंपनियों का कहना है कि अगर मुनाफा घटा तो रिसर्च पर असर पड़ेगा। नई दवाओं की खोज में जो अरबों डॉलर का Investment होता है, वह रुक सकता है। उन्होंने यह भी चेताया कि इससे अमेरिका में दवा उत्पादन का माहौल कमजोर हो जाएगा, और Investor पीछे हट सकते हैं।

लेकिन ट्रंप ने इसके जवाब में फार्मा कंपनियों की लॉबी को सीधे चेताया। उन्होंने कहा कि वह अब ‘मोस्ट फेवरेट नेशन प्राइसिंग’ का फॉर्मूला लागू कर रहे हैं। यानी जो दवा जिस देश में सबसे सस्ती बिकती है, वही कीमत अब अमेरिका में भी मानी जाएगी। उनके मुताबिक, अगर वही दवा भारत या कनाडा में 100 डॉलर में मिलती है, तो अमेरिका में भी वो 100 डॉलर में ही बिकेगी।

ट्रंप ने ये बात अपने पहले कार्यकाल में भी कही थी। तब भी उन्होंने एक Executive Order निकाला था जिसमें कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों की दवाओं की कीमतें अन्य देशों के बराबर करने की बात थी। लेकिन तब कोर्ट ने उस आदेश को अवैध मानते हुए रोक लगा दी थी। इस बार ट्रंप ने उसी नीति को और मजबूत ढंग से लागू करने का संकेत दिया है।

फार्मा कंपनियों का डर सिर्फ मुनाफे का नहीं है—वो इस बदलाव को एक बड़े झटके की तरह देख रही हैं। दशकों से अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी दवा बाजार रहा है, और कंपनियों ने वहां मनचाही कीमतें वसूल की हैं। अब जब राष्ट्रपति खुद इस ‘मोनोपॉली’ को तोड़ने पर उतर आए हैं, तो इंडस्ट्री के लिए यह एक संकट बन गया है।

लेकिन आम जनता के लिए यह खबर राहत देने वाली है। अमेरिका में लाखों लोग ऐसे हैं जो जरूरी दवाएं सिर्फ इसलिए नहीं ले पाते क्योंकि उनकी कीमतें बेहद ऊंची होती हैं। मधुमेह, कैंसर, मोटापा, हृदय रोग जैसी बीमारियों की दवाएं वहां इतने ऊंचे दाम पर बिकती हैं कि मरीज अपनी जिंदगी भर की सेविंग्स खर्च कर देता है।

अब जब ट्रंप ने कंपनियों को सिर्फ 30 दिन का अल्टीमेटम दिया है, तो सवाल यह है कि क्या कंपनियां मान जाएंगी? क्या वे ट्रंप के दबाव में दाम घटाएंगी? या फिर कोर्ट में जाकर इस आदेश को चुनौती देंगी?

फिलहाल तो ट्रंप यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि वह आम अमेरिकी के पक्ष में खड़े हैं। यह भी मुमकिन है कि 2025 के चुनावी माहौल को देखते हुए ट्रंप ने यह दांव जनता की सहानुभूति के लिए चला हो। लेकिन इसका असर केवल राजनीति तक सीमित नहीं रहेगा—यह पूरी फार्मा इंडस्ट्री की संरचना को बदल सकता है।

अगर यह नीति लागू होती है, तो न सिर्फ अमेरिका बल्कि दुनिया भर में Pharmaceutical companies की प्राइसिंग स्ट्रैटेजी पर असर पड़ेगा। भारत जैसे देशों को भी इसका फायदा हो सकता है, क्योंकि ट्रंप की पॉलिसी ग्लोबल प्राइसिंग को एक लेवल पर लाने की ओर इशारा कर रही है।

लेकिन अगर कंपनियां इसे मानने से इनकार करती हैं, तो ट्रंप की सरकार उन्हें कोर्ट में घसीट सकती है, टैरिफ लगाकर दबाव बना सकती है, या फिर वैकल्पिक सप्लायर्स की ओर रुख कर सकती है—जैसे भारत या ब्राजील के निर्माता।

यह पूरी कहानी केवल दवाओं की कीमत की नहीं है—यह उस सिस्टम के खिलाफ बगावत की कहानी है, जिसने वर्षों से मुनाफे के नाम पर इंसानी जानों की कीमत तय की। और आज, जब राष्ट्रपति खुद उस सिस्टम के खिलाफ खड़े हैं, तो यह एक ऐतिहासिक मोड़ बन गया है।

ट्रंप के इस कदम से ये सवाल भी खड़ा हो गया है कि क्या बाकी देश भी अब इसी रास्ते पर चलेंगे? क्या यूरोप, कनाडा, भारत जैसे देश भी अब अपने नागरिकों के लिए दवाओं की कीमतों पर वैश्विक समानता की मांग करेंगे?

इस पूरी स्क्रिप्ट में जो सबसे बड़ी बात छिपी है वो ये कि एक दोस्त की एक कॉल ने वो कर दिखाया जो सालों की स्टडी और लॉबीइंग नहीं कर पाई। ट्रंप की राजनीति चाहे जैसी भी हो, लेकिन यह फैसला दुनियाभर की Pharmaceutical companies के लिए एक चेतावनी है—कि अब वक्त बदल रहा है। और अगर यह बदलाव सच में लागू होता है… तो शायद आने वाले वक्त में कोई और मरीज 1300 डॉलर की दवा लेने से पहले यह न सोचे कि क्या ये वही दवा है, जो लंदन में सिर्फ 88 डॉलर में मिलती है।

Conclusion

अगर हमारे आर्टिकल ने आपको कुछ नया सिखाया हो, तो इसे शेयर करना न भूलें, ताकि यह महत्वपूर्ण जानकारी और लोगों तक पहुँच सके। आपके सुझाव और सवाल हमारे लिए बेहद अहम हैं, इसलिए उन्हें कमेंट सेक्शन में जरूर साझा करें। आपकी प्रतिक्रियाएं हमें बेहतर बनाने में मदद करती हैं।

GRT Business विभिन्न समाचार एजेंसियों, जनमत और सार्वजनिक स्रोतों से जानकारी लेकर आपके लिए सटीक और सत्यापित कंटेंट प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। हालांकि, किसी भी त्रुटि या विवाद के लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं। हमारा उद्देश्य आपके ज्ञान को बढ़ाना और आपको सही तथ्यों से अवगत कराना है।

अधिक जानकारी के लिए आप हमारे GRT Business Youtube चैनल पर भी विजिट कर सकते हैं। धन्यवाद!”

Spread the love
Exit mobile version