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Mini Iran: भारत में ज़िंदा है फारसी विरासत, बिहार से मुंबई तक फैला अनोखा सांस्कृतिक रिश्ता! 2025

Iran

जब भी हम भारत की विविधता की बात करते हैं, तो आमतौर पर North-South, East-West की भाषाएं, रीति-रिवाज और संस्कृति की चर्चा होती है। लेकिन क्या आपको पता है कि भारत के भीतर ही एक ऐसा अनदेखा संसार बसा हुआ है, जिसे ‘मिनी Iran’ कहा जाता है? एक ऐसा संसार, जहाँ फारसी बोलने वाले लोग हैं, ईरानी अंदाज़ में मुहर्रम मनाया जाता है, और कैफे में ईरानी चाय की महक बस जाती है।

यह कहानी सिर्फ भूगोल की नहीं, इतिहास की है, और यह सिर्फ वर्तमान की नहीं, हमारी उस पहचान की है, जिसे हमने सदियों से अपने दिलों में जिंदा रखा है। आज की इस कहानी में हम आपको लेकर चलेंगे भारत के उन कोनों में, जहाँ आज भी ईरानी संस्कृति सांस लेती है—किशनगंज, कारगिल, मुंबई, पुणे और कर्नाटक का अलीपुर। यह कहानी सिर्फ कुछ लोगों की नहीं, बल्कि भारत और ईरान के उस अद्भुत सांस्कृतिक रिश्ते की है, जिसने सीमाओं को मिटा दिया। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

कहानी शुरू होती है बिहार के एक छोटे से शहर किशनगंज से, जो नेपाल और बंगाल की सीमा से सटा हुआ है। लेकिन यह शहर जितना भौगोलिक रूप से भारत के भीतर है, उतना ही सांस्कृतिक रूप से Iran के करीब है। यहां की गलियों में जब फारसी बोली जाती है, तो लगता है जैसे शिराज के किसी मोहल्ले में आ गए हों।

किशनगंज के हुसैनाबाद में बसे शिया मुसलमानों का इतिहास 500 साल पुराना है। ये लोग शिराज से मुगल काल में भारत आए थे। पहले ये घोड़े बेचते थे, लेकिन वक्त के साथ इन्होंने ताले-चाबी, चश्मे, कीमती पत्थरों और फोटो फ्रेम के कारोबार में महारत हासिल कर ली। आज भी यहां के लोग फारसी बोलते हैं और मुहर्रम के मौके पर पारंपरिक ईरानी शैली में मातम मनाते हैं।

2011 की जनगणना के अनुसार किशनगंज की कुल आबादी 16.9 लाख है, जिसमें से लगभग 11.5 लाख मुसलमान हैं। इन मुसलमानों में शिया समुदाय का एक बड़ा हिस्सा ईरानी मूल का है। खासकर हुसैनाबाद जैसे इलाकों में इस समुदाय की गहरी जड़ें हैं। न केवल भाषा और व्यापार में, बल्कि सामाजिक रीति-रिवाजों में भी इनकी पहचान अलग है। इनके घरों में जो इमामबाड़े बने हैं, वो ईरानी वास्तुकला का जीता-जागता उदाहरण हैं।

अब बढ़ते हैं उत्तर की ओर, उस जगह की ओर जहाँ से भारत की रक्षा की जाती है—लद्दाख के कारगिल की ओर। लेकिन कारगिल केवल एक सामरिक क्षेत्र नहीं, बल्कि भारत का सबसे बड़ा शिया बहुल क्षेत्र भी है। यहाँ की आबादी में शिया मुसलमानों की संख्या इतनी ज्यादा है कि यहां के त्योहार, भाषा और जीवनशैली में ईरानी प्रभाव स्पष्ट दिखता है।

बल्ती भाषा, जो यहां बोली जाती है, उसमें फारसी और अरबी शब्दों की भरमार है। मुहर्रम के दौरान यहां जो नोहा गाए जाते हैं, वे फारसी में होते हैं। यहां के इमामबाड़े और मस्जिदें ईरानी वास्तुकला की झलक देती हैं। और खास बात ये कि यहां के लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत को बड़ी श्रद्धा से निभाते हैं।

कारगिल के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है, लेकिन सरकारी नौकरियों और पर्यटन ने भी यहां की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया है। इन इलाकों में बच्चों को फारसी भाषा सिखाई जाती है, और धार्मिक शिक्षा भी ईरानी पद्धति पर आधारित होती है। कारगिल का शिया समुदाय केवल धार्मिक रूप से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी Iran के साथ एक मजबूत सेतु बना हुआ है।

अब बात करते हैं भारत की आर्थिक राजधानी—मुंबई की। यह शहर जहाँ सपने पलते हैं, वहीं यहां की गलियों में बसी हैं ‘ईरानी कैफे’ की खुशबू। 19वीं और 20वीं सदी में जब ब्रिटिश भारत में व्यापार और नौकरियों के अवसर बढ़े, तब Iran से पारसी और शिया मुस्लिम समुदाय मुंबई आए।

इन लोगों ने ‘ईरानी कैफे’ की शुरुआत की—ऐसे कैफे जहाँ मिलती है खास ईरानी चाय, ब्रुन मस्का, और कीमा पाव। कयानी एंड कंपनी, ब्रिटानिया एंड कंपनी, याज़दानी बेकरी जैसे नाम आज भी मुंबई की पहचान हैं। ये सिर्फ खाने की जगह नहीं, बल्कि संस्कृति के केंद्र हैं, जहाँ दीवारों पर फारसी लेखन और पुरानी तस्वीरें ईरानी विरासत की याद दिलाती हैं।

मुंबई में लगभग 2,500 के करीब शिया Iran मूल के लोग रहते हैं। ये समुदाय न सिर्फ अपने व्यवसाय के लिए बल्कि धार्मिक आयोजनों के लिए भी प्रसिद्ध है। मुहर्रम के मौके पर यहां विशाल ताजिए और मातमी जुलूस निकलते हैं। फारसी शैली में नोहा गाए जाते हैं और ईरानी तरीके से शोक मनाया जाता है। मुंबई का यह समुदाय आज भी अगली पीढ़ियों को अपनी जड़ों से जोड़ने का काम कर रहा है।

मुंबई से कुछ किलोमीटर दूर पुणे भी इस Iran सांस्कृतिक विरासत को संभाले हुए है। पुणे में पारसी और ईरानी समुदाय की संख्या भले ही कम हो, लेकिन प्रभाव गहरा है। ‘कैफे गुडलक’ जैसे प्रतिष्ठान आज भी Iran कैफे संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं। पारसी धर्म के अनुयायी यहां अग्नि मंदिरों में पूजा करते हैं, और नवरोज जैसे त्योहार पारंपरिक रीति से मनाते हैं। पुणे में रहने वाले ईरानी मूल के लोग शिक्षा, व्यापार और पेशेवर सेवाओं में सक्रिय हैं। उनकी जीवनशैली में आधुनिकता और परंपरा का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।

अब बात करते हैं कर्नाटक के एक ऐसे कस्बे की, जिसका नाम सुनते ही फारसी मातम और मुहर्रम के जुलूसों की तस्वीर सामने आ जाती है—अलीपुर। चिक्काबल्लापुर जिले के गौरीबिदनूर तालुका में स्थित अलीपुर, लगभग 90% मुस्लिम आबादी वाला इलाका है, जिसमें 99% आबादी शिया समुदाय की है। यहां की गलियों में मुहर्रम के समय मातमी नारे गूंजते हैं, और पारंपरिक पाक शैली में बनाए गए व्यंजन मोहल्लों को महका देते हैं। यहां की शादियों में भी Iran रस्मों की झलक दिखाई देती है।

अलीपुर के लोग मुख्यतः खाड़ी देशों में कार्यरत हैं और वहां से भेजे गए पैसे से स्थानीय अर्थव्यवस्था संचालित होती है। इस आर्थिक जुड़ाव ने अलीपुर को एक आत्मनिर्भर कस्बा बना दिया है। यहां की संस्कृति में फारसी शब्दों का प्रयोग आम है, और लोग गर्व से अपनी पहचान को जीवित रखते हैं। शिक्षा, व्यापार और धार्मिक आयोजनों में यह समुदाय सक्रिय भागीदारी करता है।

यह बात जितनी रोचक है, उतनी ही महत्वपूर्ण भी कि भारत में रहने वाले Iran मूल के समुदायों की कुल संख्या करीब 10,765 है। यह संख्या भले ही बड़ी न लगे, लेकिन इनके योगदान, सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक पहचान को अनदेखा नहीं किया जा सकता। चाहे वह किशनगंज के चश्मे बेचने वाले व्यापारी हों, या कारगिल के धार्मिक शिक्षक, मुंबई के कैफे संचालक हों या अलीपुर के प्रवासी—इन सभी ने भारत को एक अनोखा रंग दिया है।

भारत और Iran का यह रिश्ता केवल व्यापार या राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दिलों का रिश्ता है, जो सदियों से बना हुआ है। जब मिडिल ईस्ट में युद्ध की आंच उठती है, तो उसका असर भारत तक आता है। चाबहार पोर्ट की रणनीतिक अहमियत हो या प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा, भारत हर कदम पर Iran के साथ खड़ा दिखता है। लेकिन इन रणनीतिक पहलुओं से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है वो सांस्कृतिक जुड़ाव, जो आज भी भारत के कई हिस्सों को ‘मिनी Iran’ बना देता है।

Conclusion

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