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Wealth से बदल सकती है तस्वीर: कैसे भारत समावेशी विकास से तोड़ेगा असमानता की दीवार? 2025

Wealth

सोचिए… अगर आप सुबह उठते ही देखें कि आपके पास आज की रोटी तक के पैसे नहीं हैं, लेकिन आपके बगल की बिल्डिंग में किसी ने एक ही रात में करोड़ों कमाए हैं—तो आप क्या सोचेंगे? क्या ये सिर्फ किस्मत का खेल है या कोई गहरी साजिश? अब कल्पना कीजिए कि इस देश की आधी आबादी रोज़ अपने हिस्से की रोटी के लिए जूझ रही है, जबकि 1% लोग हर दिन नए हेलीकॉप्टर, नए बंगले, और शेयर मार्केट की नई ऊंचाइयों का जश्न मना रहे हैं।

और यह सब कुछ केवल बाजार की चाल नहीं है—बल्कि एक सुनियोजित संरचना है, एक ऐसी व्यवस्था जो शायद अब ब्रिटिश राज से भी ज्यादा भेदभावपूर्ण हो गई है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

मुंबई के आर्थिक विश्लेषक हार्दिक जोशी ने जब वर्ल्ड इनइक्वालिटी डेटाबेस की नई रिपोर्ट का विश्लेषण किया, तो जो तस्वीर सामने आई, वह हैरान करने वाली थी। उन्होंने कहा कि भारत में income और संपत्ति की असमानता अब उस दौर से भी ज़्यादा गंभीर है, जब देश अंग्रेजों के अधीन था। उन्होंने लिंक्डइन पर जो लेख साझा किया, उसमें ये साफ बताया कि भारत की टॉप 1% आबादी के पास देश की 40% दौलत है। वहीं नीचे की आधी आबादी के पास सिर्फ 6.4% दौलत बची है। सोचिए, आधा देश 6.4% में जी रहा है, और 1% अकेले 40% दौलत पर कुंडली मारे बैठा है।

लेकिन यह सिर्फ आंकड़ों की कहानी नहीं है। यह ज़मीनी हकीकत बन चुकी है। आज गांवों में किसान फसल के दाम के लिए तरसता है, मज़दूर शहरों की सड़क पर पेट भरने की जंग लड़ता है, जबकि अमीर वर्ग स्टॉक मार्केट और रियल एस्टेट से हर घंटे लाखों कमाता है। हार्दिक जोशी का मानना है कि यह असमानता कोई संयोग नहीं, बल्कि एक रणनीति है। एक ऐसी संरचना जिसमें टैक्स नीतियों से लेकर मीडिया नैरेटिव तक, सब कुछ इस खाई को और गहरा करने में लगा है।

जोशी के अनुसार, टैक्स नीतियां अमीरों को ज़्यादा लाभ देती हैं। गरीब पर Indirect taxes का बोझ है, लेकिन बड़ी कंपनियों को टैक्स ब्रेक और सब्सिडी मिलती हैं। Labor Law इतने कमज़ोर हैं कि एक दिहाड़ी मज़दूर के पास किसी दुर्घटना के बाद कोई सुरक्षा नहीं है। छोटे उद्योग बंद हो रहे हैं और बड़ी कंपनियों का समेकन लगातार जारी है। रियल एस्टेट, म्यूचुअल फंड, और शेयर मार्केट का मुनाफा सिर्फ उन्हीं तक सीमित है जिनके पास पहले से पूंजी है। बाकी जनता सिर्फ विज्ञापन देखकर सपने बुनती है, लेकिन उन्हें छू नहीं पाती।

राजनीतिक दान और लॉबीइंग का खेल अलग है। अमीर अपने हितों के लिए कानून बनवाते हैं, मीडिया को प्रभावित करते हैं, और रीडिस्ट्रिब्यूशन के किसी भी प्रयास को ‘खैरात’ बताकर लोगों की सोच को मोड़ देते हैं। गरीबों को दी जाने वाली सहायता को बदनाम किया जाता है, लेकिन अमीरों को मिलने वाले टैक्स छूट को विकास की रणनीति कहा जाता है। सत्ता की संरचना इस असमानता पर टिकी हुई है, और जब तक यह ढांचा नहीं टूटेगा, तब तक यह विषमता बढ़ती ही जाएगी।

भारत की मौजूदा हालत ब्रिटिश शासन से अलग नहीं, बल्कि कई मामलों में उससे ज़्यादा क्रूर हो चुकी है। अंग्रेज व्यापार करते थे, तो वह विदेशी थे। लेकिन आज वही असमानता भारतीयों के हाथों से, भारतीयों के खिलाफ हो रही है। ये सिस्टम अब उस दौर से भी ज़्यादा भेदभावपूर्ण है क्योंकि अब यह गुप्त रूप से काम करता है, नीति के नाम पर, विकास के नाम पर।

हार्दिक जोशी कहते हैं, भारत में धन की कोई कमी नहीं है। हम पर्याप्त उत्पादन करते हैं, पर्याप्त टैक्स भी वसूलते हैं। लेकिन उस टैक्स से जो पैसा आता है, उसका वितरण कैसे होता है, यही असल सवाल है। जब शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत सेवाओं पर कम Investment होता है, और एयरपोर्ट-हाईवे-स्टैच्यू पर ज़्यादा, तो स्पष्ट है कि किसके हित में निर्णय लिए जा रहे हैं।

एक्सपर्ट्स की चेतावनियाँ अब ज़्यादा गंभीर हो गई हैं। अगर समय रहते कुछ नहीं किया गया तो यह असमानता भारत के लोकतंत्र को खोखला कर देगी। दरारें केवल सामाजिक नहीं, राजनीतिक और आर्थिक भी बन जाएंगी। इससे सामाजिक अशांति, अपराध, और राजनीतिक अस्थिरता का खतरा बढ़ेगा।

जोशी के अनुसार, इस असमानता को कम करने के लिए सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति भी चाहिए। सबसे पहले अमीरों पर टैक्स को तर्कसंगत बनाना होगा, ताकि वेल्थ टैक्स और इनहेरिटेंस टैक्स जैसे विकल्पों पर विचार हो सके। श्रम कानूनों को मज़दूरों के हित में बदला जाए, और छोटे व्यापारों के लिए आसान क्रेडिट और संरचनात्मक सहायता दी जाए। साथ ही, हर नागरिक के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा को मौलिक अधिकार की तरह देखा जाए, ताकि अवसर की समानता सुनिश्चित हो सके।

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी इस असमानता पर चिंता जताई है। नागपुर में एक कार्यक्रम में उन्होंने स्पष्ट कहा कि देश का धन कुछ अमीर लोगों के पास सिमट रहा है, और गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है। उन्होंने कहा कि हमें विकेंद्रीकरण की ओर जाना होगा। न सिर्फ आर्थिक रूप से, बल्कि संस्थागत रूप से भी। उन्होंने यह भी कहा कि कृषि, मैन्युफैक्चरिंग, टैक्सेशन और इंफ्रास्ट्रक्चर पर फोकस करके ही यह खाई भरी जा सकती है।

उन्होंने पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों की तारीफ की, लेकिन साथ ही चेतावनी भी दी कि अब जो आर्थिक केंद्रीकरण हो रहा है, वह आगे चलकर खतरनाक हो सकता है। गडकरी की यह बात इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वह सरकार के वरिष्ठ और अनुभवी नेता माने जाते हैं। जब सत्ता के भीतर से ऐसी आवाज़ें उठती हैं, तो यह मानना पड़ेगा कि मामला गंभीर है।

अब सवाल यह है कि क्या हम इस असमानता को सिर्फ रिपोर्ट्स और आंकड़ों में पढ़ते रहेंगे, या इससे निपटने के लिए वास्तविक और साहसिक कदम भी उठाएंगे? क्या यह संभव है कि हम उस भारत की कल्पना करें, जहां हर बच्चा अच्छी शिक्षा पाए, हर बीमार व्यक्ति इलाज पाए, और हर मेहनतकश इंसान को उसका हक मिले?

अगर हम इस पर काम नहीं करेंगे, तो आने वाला समय और भी भयावह होगा। असमानता एक धीमा ज़हर है, जो न सिर्फ समाज को तोड़ता है, बल्कि देश की आत्मा को भी मारता है। जब कुछ हाथों में ही सारा धन, सत्ता और संसाधन सिमट जाएं, तो बाकी देश सिर्फ तमाशबीन बन जाता है।

भारत का इतिहास दिखाता है कि जब भी आम जनता उठ खड़ी हुई है, तब परिवर्तन जरूर हुआ है। अब समय आ गया है कि नीति निर्धारक, समाजशास्त्री, उद्योगपति और आम नागरिक—सब मिलकर इस असमानता की दीवार को तोड़ें। क्योंकि अगर आज हमने कदम नहीं उठाया, तो आने वाली पीढ़ियां सिर्फ सवाल पूछेंगी—कि जब आपके पास आंकड़े थे, चेतावनियाँ थीं, तब आपने किया क्या?

यह देश केवल एक प्रतिशत लोगों का नहीं है। यह 140 करोड़ लोगों का है। और जब तक उस 99% को उसका वाजिब हिस्सा नहीं मिलेगा, तब तक हम सच्चे लोकतंत्र की कल्पना नहीं कर सकते। यह लड़ाई केवल आर्थिक नहीं है, यह नैतिक और मानवीय भी है। और यह लड़ाई अब शुरू होनी ही चाहिए।

Conclusion

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