ज़रा सोचिए… अगर आप सड़क पर चल रहे हों और कोई ताक़तवर आदमी आपको सबके सामने डांटते हुए कहे—“तुम्हें ये काम बंद करना होगा, ये सही नहीं है।” और उसी समय आप देखते हैं कि वही आदमी रात में उसी काम को खुद करता है, अपने फ़ायदे के लिए। आपको कैसा लगेगा? यही दोहरा रवैया आज भारत झेल रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बार-बार भारत को निशाना बनाते हैं, कहते हैं कि भारत Russian से तेल क्यों खरीद रहा है।
वे इस तरह पेश आते हैं मानो भारत ही दुनिया की सारी गड़बड़ियों की जड़ हो। लेकिन जब आप पर्दे के पीछे देखते हैं, तो वही ट्रंप रूस से रिश्ते सुधारने की कोशिश करते हैं, पुतिन को मुलाकात के लिए बुलाते हैं और अमेरिकी कंपनियों को Russian में Investment के लिए हरी झंडी दिखाते हैं। सवाल उठता है—अगर अमेरिका खुद रूस से लेन-देन कर सकता है, तो भारत को क्यों रोका जा रहा है? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
भारत और अमेरिका के बीच इस समय तनाव का सबसे बड़ा कारण Russian से तेल है। ट्रंप ने खुले मंच से भारत पर उंगली उठाई। और उनकी पार्टी की नेता निक्की हेली ने भी भारत को नसीहत दी कि उसे ट्रंप की बात गंभीरता से लेनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि भारत को रूस से तेल खरीदने के मामले में अमेरिका से तालमेल बैठाना चाहिए और समाधान ढूंढना चाहिए। यह बात सुनने में भले ही एक “सलाह” लगे, लेकिन भारत के लिए यह एक “निर्देश” जैसी है—जैसे कोई हमसे कह रहा हो कि हम अपनी Energy Policy उनके इशारों पर चलाएँ। और यही बात भारत को खटकती है। क्योंकि आज का भारत वह नहीं है जो हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर सिर्फ़ सिर झुकाए।
पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने इसी पर कड़ी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा—“भारत को क्यों ट्रंप की बात माननी चाहिए? उनका तर्क बेतुका है। यह मुद्दा न तो यूक्रेन संघर्ष से जुड़ा है और न ही भारत-अमेरिका संबंधों से।” उनके मुताबिक़ यह पूरा विवाद बस एक बाहरी मुद्दा है जिसे भारत-अमेरिका रिश्तों में जबरदस्ती घसीटा जा रहा है। सिब्बल का सवाल सीधा था—“जब ट्रंप खुद Russian से रिश्ते सुधारने की बात करते हैं, तो भारत से क्यों उम्मीद की जाती है कि वह अपनी नीतियों में बदलाव करे?”
अगर हम ट्रंप के पिछले बयानों और कदमों को देखें तो तस्वीर और साफ़ हो जाती है। उन्होंने Russian के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को अलास्का में बुलाने की बात की थी। उन्होंने अमेरिकी ऑयल कंपनी एक्सॉन को रूस के सखालिन प्रोजेक्ट में दोबारा शामिल होने का न्योता दिया था। यानी उनकी असली कोशिश रूस के साथ अपने रिश्ते सुधारने की थी। लेकिन जब बारी भारत की आती है, तो वह कहते हैं कि भारत को रूस से दूरी बनानी चाहिए। यह एक साफ़ उदाहरण है कि भारत को आसान निशाना बनाया जा रहा है, जबकि असली खेल कहीं और चल रहा है।
और यह सिर्फ़ भारत की बात नहीं है। अगर आप देखें तो चीन Russian का सबसे बड़ा खरीदार है—तेल हो, गैस हो या रिफाइंड प्रोडक्ट्स। चीन रूस से कहीं ज्यादा ऊर्जा खरीदता है, लेकिन ट्रंप उसके खिलाफ़ सार्वजनिक बयान नहीं देते। क्यों? क्योंकि वे चीन के साथ “बड़ा सौदा” करना चाहते हैं। यूरोप भी Russian से भारी मात्रा में गैस और तेल खरीदता है। लेकिन यूरोप के खिलाफ़ कोई टैरिफ पेनल्टी घोषित नहीं की गई। फिर सवाल उठता है—भारत ही क्यों? जवाब साफ़ है—क्योंकि भारत पर दबाव डालना आसान है। भारत अमेरिका का बड़ा साझेदार है, लेकिन उसे “कठपुतली” की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश हो रही है।
निक्की हेली की नसीहत भी इसी सोच को आगे बढ़ाती है। उन्होंने कहा कि भारत को ट्रंप की बात को गंभीरता से लेना चाहिए और मोदी-ट्रंप के बीच सीधी बातचीत होनी चाहिए। उनके अनुसार, कड़ी बातचीत ही साझेदारी का सबूत है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत अपनी जनता की ऊर्जा ज़रूरतों को किसी और की राजनीति के हिसाब से बदलेगा? भारत की ऊर्जा ज़रूरतें विशाल हैं। 140 करोड़ की आबादी वाला देश सस्ता तेल खरीदकर ही महंगाई को काबू में रख सकता है। अगर भारत सिर्फ़ अमेरिकी दबाव के चलते Russian से तेल खरीदना बंद कर दे, तो पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें आसमान छू जाएंगी, महंगाई और बेरोज़गारी बढ़ जाएगी और आम जनता की जेब पर सीधा असर पड़ेगा।
यही कारण है कि भारत के विशेषज्ञ और राजनयिक मानते हैं कि अमेरिका की नसीहत मानना व्यावहारिक नहीं है। कंवल सिब्बल ने कहा कि भारत को किसी के दबाव में आने की ज़रूरत नहीं। हमारे फैसले हमारे राष्ट्रीय हितों के हिसाब से होंगे, न कि किसी और के आदेश पर। यह बात विदेश मंत्री जयशंकर ने भी हाल ही में स्पष्ट की। उन्होंने कहा कि ट्रंप सार्वजनिक मंच पर चाहे कुछ कहें, लेकिन निजी तौर पर उनके प्रशासन ने कभी भारत को यह नहीं कहा कि Russian से तेल मत खरीदो।
जयशंकर ने 2022 की घटना भी याद दिलाई। उस समय Russian-यूक्रेन युद्ध की वजह से तेल की कीमतें तेज़ी से बढ़ रही थीं। दुनिया भर में घबराहट का माहौल था। तब अमेरिकी अधिकारियों ने खुद भारत से कहा था कि अगर भारत रूसी तेल खरीदता है, तो यह उनके लिए ठीक होगा। क्यों? क्योंकि भारत के खरीदे गए तेल से वैश्विक कीमतें स्थिर हो जाती थीं और इससे पूरी दुनिया को फायदा होता था। यानी जब अमेरिका को फ़ायदा था, तब भारत की रूसी तेल खरीद “सही” थी। लेकिन जब राजनीतिक बयानबाज़ी करनी हो, तो वही काम “ग़लत” करार दे दिया जाता है। यही दोहरा मापदंड भारत को परेशान करता है।
यह पूरा विवाद दरअसल “ऊर्जा राजनीति” का हिस्सा है। दुनिया में तेल और गैस हमेशा से हथियार की तरह इस्तेमाल होते आए हैं। जो देश इन पर नियंत्रण करता है, वह दबाव बना सकता है। अमेरिका और यूरोप दशकों से यही करते आए हैं। लेकिन आज जब भारत जैसे देश अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए बेहतर और सस्ते विकल्प तलाश रहे हैं, तो यह पश्चिमी देशों को खटकता है। वे चाहते हैं कि भारत वही करे जो उन्हें सूट करे। लेकिन भारत के लिए अपनी जनता की ज़रूरतें पहले हैं।
आज भारत के सामने दो स्पष्ट रास्ते हैं। पहला—वह अमेरिका की बात माने और रूस से दूरी बना ले। इससे अमेरिका खुश होगा, लेकिन भारत की जनता पर बोझ बढ़ जाएगा। दूसरा रास्ता—भारत अपने हितों को प्राथमिकता दे और साफ़ कर दे कि ऊर्जा सुरक्षा से समझौता नहीं होगा। यही रास्ता कठिन है, लेकिन यही सही है। क्योंकि अगर भारत हर बार दबाव में आकर अपनी नीतियाँ बदलेगा, तो वह कभी भी स्वतंत्र विदेश नीति वाला देश नहीं कहलाएगा।
भारत अब वह देश नहीं है जो केवल आदेश मान ले। पिछले कुछ वर्षों में भारत ने दिखाया है कि वह अपनी शर्तों पर अंतरराष्ट्रीय संबंधों को संभाल सकता है। चाहे क्वाड की बात हो, ब्रिक्स की, जी 20 की या रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान संतुलन साधने की—भारत ने बार-बार यह साबित किया है कि वह किसी का “पपेट” नहीं है।
निक्की हेली की नसीहत पर भारत के विशेषज्ञों की कड़ी प्रतिक्रिया इसी का संकेत है। यह संदेश है कि भारत अब किसी भी शक्ति से दबकर फैसले नहीं लेगा। भारत अमेरिका का दोस्त है, साझेदार है, लेकिन गुलाम नहीं। दोस्ती का मतलब बराबरी है, और बराबरी तभी संभव है जब भारत अपनी ऊर्जा नीति खुद तय करे।
अगर हम इतिहास देखें तो भारत हमेशा अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ा है। चाहे colonial rule से आज़ादी की बात हो, या Cold War के दौर में “Non-Aligned Movement” की। भारत ने हमेशा यही कहा है कि वह अपने फैसले खुद लेगा। आज फिर वही स्थिति है। अमेरिका चाहे कितना भी दबाव बनाए, भारत को साफ़ कहना होगा—“हमारे लिए हमारी जनता पहले है, आपकी राजनीति बाद में।”
यह कहानी सिर्फ़ तेल की नहीं है। यह कहानी है आत्मसम्मान की। यह कहानी है उस नए भारत की जो दुनिया की मेज़ पर बराबरी से बैठना चाहता है। और यही वह पल है जब हमें तय करना होगा कि हम किस रास्ते पर चलेंगे। क्या हम अपनी जनता की ज़रूरतों को प्राथमिकता देंगे, या किसी और की राजनीति को?
भारत के पास आज अवसर भी है और चुनौती भी। अवसर यह कि वह अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए विविध स्रोत विकसित करे—मध्य एशिया से लेकर खाड़ी देशों तक, रूस से लेकर अफ्रीका तक। और चुनौती यह कि वह किसी भी बाहरी दबाव में आए बिना अपने रास्ते पर डटा रहे। यही वह नीति होगी जो भारत को आने वाले दशकों में दुनिया का असली ताक़तवर खिलाड़ी बनाएगी।
Conclusion
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