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Trustworthy: India-Nepal सीमाः रोटी-बेटी के रिश्ते की मजबूती और चीन की नाकाम चाल I 2025

ज़रा सोचिए… सदियों से जिस सीमा को लोग कभी दीवार नहीं, बल्कि पुल समझते आए, जहाँ दोनों तरफ़ के गाँवों में रिश्तेदारियों का आना-जाना यूँ होता जैसे दो पड़ोसी घरों के बीच रास्ता हो, वहाँ अचानक विवाद और अविश्वास की दीवारें खड़ी होने लगें तो कैसा लगेगा? India-Nepal की सीमा पर भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। जिस रिश्ते को “रोटी-बेटी का संबंध” कहा जाता था, वहाँ आज तनाव, राजनीति और बाहरी ताक़तों की चालें देखने को मिल रही हैं।

गाँवों के लोग जो पीढ़ियों से बिना रोक-टोक एक-दूसरे के घर आते-जाते थे, अचानक डर और संदेह की नज़रों से देखने लगे हैं। सवाल यह है कि आखिर नेपाल के बदलते तेवरों के पीछे कौन है? क्यों वह बार-बार ऐसे मुद्दे उठाने लगा है, जो दशकों से कभी विवाद बने ही नहीं? क्या यह नेपाल की अपनी सोच है या इसके पीछे किसी और की परछाई खड़ी है? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

भारत और नेपाल का रिश्ता दुनिया में सबसे अनोखा माना जाता है। यह रिश्ता केवल कूटनीतिक या आर्थिक समझौतों से बंधा नहीं है, बल्कि यह रिश्तेदारी, भाषा, संस्कृति और इतिहास से जुड़ा हुआ है। सोचिए, कितने ही ऐसे नेपाली परिवार हैं जिनके बेटे भारतीय गाँवों की लड़कियों से ब्याहे गए हैं, और कितनी भारतीय बेटियाँ आज भी नेपाल की वधू बनकर वहाँ की संस्कृति का हिस्सा हैं। यही कारण है कि इसे “रोटी-बेटी का रिश्ता” कहा जाता है।

India-Nepal सीमा के छोटे-छोटे कस्बों में रहने वाला आम आदमी अक्सर कहता है—“हम तो एक ही परिवार हैं।” लोग बिना पासपोर्ट और वीज़ा के एक-दूसरे के यहाँ जा सकते हैं। त्योहारों पर, शादियों में, दुख-सुख में, दोनों तरफ़ के लोग बराबर शामिल होते हैं। यही वजह है कि India-Nepal सीमा पर खड़े होकर अक्सर यह लगता ही नहीं कि यह दो अलग-अलग देश हैं। लेकिन हाल के वर्षों में इन रिश्तों की गर्माहट पर ठंडी हवा चलने लगी है।

हाल ही का उदाहरण लीजिए—लिपुलेख। यह जगह केवल एक पहाड़ी दर्रा नहीं है, बल्कि सदियों से व्यापार और संपर्क का रास्ता रही है। 1954 से भारत और चीन के बीच इस दर्रे से व्यापार चलता रहा है। यहाँ से गुजरने वाले कारवां केवल सामान ही नहीं लाते थे, बल्कि संस्कृतियों, परंपराओं और कहानियों का आदान-प्रदान भी करते थे।

लेकिन कोविड और कुछ भू-राजनीतिक घटनाओं के बाद यह व्यापार रुक गया। अब जब भारत और चीन ने मिलकर इस मार्ग से व्यापार फिर से शुरू करने का फ़ैसला किया, तो अगले ही दिन नेपाल ने दावा ठोक दिया—लिपुलेख उसका है! सोचिए, दशकों तक चुप रहने वाला नेपाल अचानक क्यों सक्रिय हो गया? क्या यह उसकी अचानक जागी हुई राष्ट्रीयता है, या इसके पीछे किसी बड़े देश की रणनीति है?

दरअसल, यह कहानी केवल नेपाल की जिद की नहीं, बल्कि उसके पीछे खड़े चीन की चालबाज़ियों की है। चीन वह देश है जिसने कभी भी पड़ोसियों को भरोसेमंद दोस्त नहीं माना। उसका इतिहास धोखे और विस्तारवाद से भरा हुआ है। 2020 में नेपाल ने अपने नए नक्शे में लिपुलेख ही नहीं, बल्कि कालापानी और लिपियाधुरा क्षेत्र को भी अपने हिस्से का बताया।

यह कदम नेपाल की राजनीतिक ज़रूरतों से ज्यादा चीन के इशारे पर उठाया गया लगता है। भारत ने तुरंत आपत्ति जताई और साफ कहा कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामरिक दृष्टि से ये इलाके भारत के ही हैं। खासकर कालापानी, जहाँ 1962 की जंग के बाद भारत ने अपने अर्धसैनिक बलों को तैनात कर दिया था ताकि चीन की हर हरकत पर नज़र रखी जा सके।

लेकिन चीन चाहता क्या है? चीन की कोशिश यह है कि भारत को हर उस जगह से उलझा दिया जाए, जहाँ से उसकी नज़रें बीजिंग तक पहुँच सकती हैं। कालापानी करीब 20 हज़ार फीट की ऊँचाई पर है और वहाँ से पूरे इलाके पर निगरानी रखी जा सकती है। भारत की यह स्थिति चीन को असहज करती है।

चीन जानता है कि सीधे भारत से भिड़ना उसके लिए खतरनाक होगा, इसलिए वह नेपाल जैसी छोटी लेकिन रणनीतिक रूप से अहम ताक़त को मोहरे की तरह इस्तेमाल करता है। यह वैसा ही है जैसे कोई खिलाड़ी शतरंज में प्यादों को आगे बढ़ाकर बड़े मोहरों की राह बनाता है। नेपाल की राजनीति में मौजूद वामपंथी ताक़तें चीन के इशारे पर वही प्यादे बन रही हैं।

यह बात भारत के लिए केवल भावनाओं का मामला नहीं है, बल्कि सुरक्षा और रणनीति का भी सवाल है। भारत-नेपाल सीमा पूरी तरह खुली है। लाखों नेपाली भारत में काम करते हैं, पढ़ते हैं और बसे हुए हैं। वे भारत की अर्थव्यवस्था में योगदान करते हैं और यहाँ की मिट्टी को अपना मानते हैं। उसी तरह भारत के लोग भी नेपाल में व्यापार और यात्रा करते हैं। इस खुलेपन की वजह से दोनों देशों के बीच विश्वास हमेशा मज़बूत रहा है। लेकिन जब नेपाल चीन की भाषा बोलने लगे, तो यह विश्वास दरकने लगता है। और यह दरार केवल राजनीतिक विवाद नहीं, बल्कि दोनों देशों की जनता के दिलों में भी असर डाल सकती है।

ज़रा सोचिए, नेपाल के गाँवों में लोग आज भी भारत के टीवी चैनल देखते हैं, हिंदी गाने गुनगुनाते हैं, भारतीय बाज़ार से सामान खरीदते हैं और अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए भारत भेजते हैं। वे क्रिकेट में भारत की जीत पर खुश होते हैं, बॉलीवुड के कलाकारों को अपना मानते हैं। लेकिन उनकी ही सरकार चीन की तरफ़ झुककर भारत से दुश्मनी मोल ले रही है। यह विरोधाभास केवल राजनीति नहीं, बल्कि उस खेल का हिस्सा है जिसे चीन बड़ी सफाई से खेलता है। एक तरफ़ वह भारत से व्यापार की बातें करता है, दूसरी ओर नेपाल को भड़काता है कि भारत तुम्हारा हक़ छीन रहा है।

इतिहास गवाह है कि चीन ने कभी किसी देश को दोस्त नहीं बनाया। चाहे श्रीलंका हो, पाकिस्तान हो या अफ्रीकी देश—हर जगह उसने क़र्ज़, Investment और वादों के ज़रिए पहले दोस्ती का नाटक किया और बाद में उनकी ज़मीन और संसाधनों पर कब्ज़ा कर लिया। श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर भी चीन का बोझ बढ़ चुका है। नेपाल को यह बात समझनी होगी कि वही चाल उसके साथ भी खेली जा रही है। नेपाल अगर भारत से रिश्ते बिगाड़ेगा, तो नुकसान सबसे ज़्यादा नेपाल को ही होगा।

भारत-नेपाल का रिश्ता सदियों पुराना है। यह रिश्ता सिर्फ़ सीमाओं से नहीं, बल्कि “रोटी-बेटी” की परंपरा से बना है। लाखों ऐसे परिवार हैं जहाँ भारत और नेपाल की सीमाओं को पार करके रिश्तेदारियाँ जुड़ी हैं। कोई बेटी नेपाल से भारत ब्याही गई है, तो कोई भारत से नेपाल। दशहरा, होली, तीज, छठ जैसे त्योहार दोनों देशों में एक जैसी धूमधाम से मनाए जाते हैं। दोनों तरफ़ के परिवार इन मौकों पर एक-दूसरे के घर जाते हैं। यह रिश्ता अनोखा है और इसे राजनीति की भेंट चढ़ाना दोनों देशों की जनता के साथ अन्याय होगा।

लेकिन सवाल यह है कि क्या नेपाल की जनता इस सच्चाई को समझ पाएगी? क्या वे यह जान पाएँगे कि चीन के लालच और वादों के पीछे केवल स्वार्थ छिपा है? चीन की दिलचस्पी न नेपाल की खुशहाली में है और न ही उसकी आज़ादी में। उसकी दिलचस्पी सिर्फ़ इतनी है कि नेपाल भारत को परेशान करने का एक औज़ार बना रहे। अगर नेपाल इस खेल को नहीं समझा, तो भविष्य में वह खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेगा।

भारत ने हमेशा नेपाल को छोटे भाई की तरह संभाला है। संकट की हर घड़ी में मदद की है—चाहे 2015 का भूकंप हो जब भारत ने सबसे पहले राहत दल भेजा था, या महामारी का समय जब दवाइयाँ और वैक्सीन सबसे पहले नेपाल पहुँचीं। लेकिन अब समय आ गया है कि नेपाल भी यह समझे कि भारत के साथ खड़ा रहना ही उसके लिए सुरक्षित है। अगर वह चीन के बहकावे में आता रहा, तो वह न केवल भारत से दूर हो जाएगा बल्कि अपनी स्वतंत्र पहचान भी खो देगा।

और यही इस कहानी का सबसे बड़ा सबक है—रोटी-बेटी के रिश्तों को राजनीति और बाहरी ताक़तों की चालों से बचाकर रखना होगा। क्योंकि अगर यह रिश्ता टूट गया, तो यह सिर्फ़ दो देशों का नुकसान नहीं होगा, बल्कि उन करोड़ों लोगों के दिल टूटेंगे जो पीढ़ियों से इस बंधन को निभाते आ रहे हैं।

Conclusion

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