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Shocking: IMF पूरी दुनिया को लोन देने वाली संस्था खुद कमाती कैसे है? जानिए इसके फंडिंग का चौंकाने वाला सच! 2025

IMF

एक ऐसा संस्थान, जिसके पास खुद न कोई फैक्ट्री है, न कोई तेल का कुआं, न कोई टेक कंपनी—फिर भी यह संस्थान दुनिया के सबसे गरीब देशों से लेकर युद्धग्रस्त देशों तक को अरबों डॉलर के लोन देता है। पाकिस्तान, श्रीलंका, मिस्र, यूक्रेन, अर्जेंटीना—इन सबने जब भी दिवालिया होने की कगार पर पहुंचने की बात की, तो एक नाम सबसे पहले उभरा—IMF यानी इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड।

लेकिन सवाल ये है… IMF के पास आखिर आता कहां से है इतना पैसा? क्या ये अमेरिका का बैंक है? क्या ये सिर्फ अमीर देशों की कोई जादुई तिजोरी है? और सबसे बड़ी बात—क्या इसका इस्तेमाल दुनिया की राजनीति को कंट्रोल करने के लिए किया जा रहा है? आज हम जानेंगे इस रहस्यमयी वैश्विक फंड का वो सच, जो शायद दुनिया को पता तो है, लेकिन समझ बहुत कम है।

IMF का नाम आज भारत में इसलिए भी चर्चा में है, क्योंकि हाल ही में इस संस्था ने पाकिस्तान को 1 अरब डॉलर का नया लोन पास कर दिया—ऐसे समय पर जब भारत, पाकिस्तान में आतंक के खिलाफ सर्जिकल ऑपरेशन ‘सिंदूर’ चला रहा था। भारत के आम नागरिकों से लेकर नीति निर्धारकों तक, हर कोई यह सवाल पूछ रहा है—जो देश लगातार आतंकवाद को पाल रहा है, उसे IMF मदद क्यों करता है? और क्या भारत जैसे जिम्मेदार देशों की राय को अनसुना किया जा रहा है? लेकिन इन सवालों से पहले हमें समझना होगा कि IMF काम कैसे करता है, और इसके फंड का स्त्रोत आखिर क्या है।

IMF की स्थापना 1944 में हुई थी, जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्ति की ओर बढ़ रहा था। अमेरिका के ब्रेटन वुड्स में 44 देशों ने मिलकर इसका खाका तैयार किया, और उद्देश्य था—दुनिया की अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाना, मुद्रा संकट से बचाना, और जब भी कोई देश दिवालिया होने की कगार पर पहुंचे, तो उसे तत्काल सहायता देना। लेकिन तब IMF के पास कोई पैसा नहीं था—यह पैसा आया इसके सदस्य देशों से, जो इसे कोटा के रूप में फंडिंग देते हैं।

IMF के पास पैसा तीन मुख्य स्रोतों से आता है। पहला और सबसे बड़ा—मेंबर कोटा। यह एक तरह का सदस्यता शुल्क होता है, लेकिन इसका आकार आपके देश की अर्थव्यवस्था पर निर्भर करता है। जितनी बड़ी आपकी GDP, उतना बड़ा आपका कोटा और उतनी ज्यादा आपकी वोटिंग पावर। अमेरिका का कोटा सबसे बड़ा है—लगभग 17.4%, जबकि भारत का कोटा 2.75% के आसपास है। यह कोटा पैसा नहीं सिर्फ सदस्यता नहीं देता, बल्कि इससे आपकी ताकत भी तय होती है कि IMF में आप कितना निर्णय ले सकते हैं।

दूसरा सोर्स है—ब्याज से कमाई। जब IMF किसी देश को लोन देता है, तो वो उस पर ब्याज चार्ज करता है। और यह ब्याज IMF की आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा होता है। यानी IMF नॉन-प्रॉफिट संस्था नहीं है—यह लोन के बदले पैसे कमाता है, और इसी पैसे से अन्य देशों की मदद करता है। यह किसी बैंक की तरह ही काम करता है, लेकिन वैश्विक स्तर पर।

तीसरा बड़ा स्रोत है—NAB और BBA, यानी New Arrangements to Borrow और Bilateral Borrowing Agreements। जब IMF के पास किसी स्थिति में पैसा कम पड़ता है, तो वह अन्य अमीर सदस्य देशों से लोन लेता है। NAB में वह एक साथ कई देशों से उधार लेता है, जबकि BBA में वह किसी एक देश से लोन लेता है, वो भी एक औपचारिक समझौते के तहत। भारत ने 1993 के बाद से IMF से कभी कोई लोन नहीं लिया है, लेकिन कई बार उसने IMF को उधार ज़रूर दिया है। यानी भारत आज उधार लेने वाला नहीं, बल्कि उधार देने वाला देश बन चुका है।

IMF केवल एक संस्थान नहीं, बल्कि Global diplomacy का एक अहम हथियार बन चुका है। ये सिर्फ मदद नहीं देता, बल्कि मदद के बदले में शर्तें भी रखता है। यही वजह है कि IMF के लोन को ‘conditional loan’ कहा जाता है। इसकी तीन मुख्य प्रकार की लोन स्कीमें होती हैं—Rapid Financing Arrangement (RFA), Extended Fund Facility (EFF) और Stand By Arrangement (SBA)। ये सभी स्कीमें अलग-अलग देशों की ज़रूरतों के हिसाब से डिज़ाइन की जाती हैं।

Rapid Financing Arrangement सबसे ज्यादा उस स्थिति में दी जाती है, जब किसी देश को आपातकालीन स्थिति में तुरंत फंड की आवश्यकता होती है—जैसे युद्ध, महामारी या प्राकृतिक आपदा। इसमें शर्तें थोड़ी ढीली होती हैं लेकिन रकम सीमित होती है। Extended Fund Facility तब दी जाती है जब किसी देश को अपनी अर्थव्यवस्था को स्थायी रूप से सुधारना होता है, जैसे कि घाटा कम करना, टैक्स सुधार, या आर्थिक अनुशासन।

इसमें लंबी अवधि की शर्तें होती हैं, और कई बार उस देश को अपने सरकारी खर्चों में कटौती करनी पड़ती है। Stand By Arrangement तब दी जाती है जब किसी देश की इकोनॉमी अभी गिरी नहीं है, लेकिन गिरने की आशंका है—एक तरह का ‘बैकअप लोन’ जो देश चाहे तो ले सकता है, चाहे तो न ले।

आज के समय में IMF के सबसे बड़े कर्जदार देशों में अर्जेंटीना, यूक्रेन, मिस्र और पाकिस्तान शामिल हैं। खासकर अर्जेंटीना ने तो पिछले दो दशकों में IMF से सबसे ज्यादा लोन लिया है। बार-बार लिए गए लोन, बार-बार की गई चूक और बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता ने अर्जेंटीना को IMF के सामने ‘high risk country’ बना दिया है। वहीं पाकिस्तान की बात करें, तो यह देश IMF का पुराना कर्जदार है, लेकिन सबसे कम भरोसेमंद भी। IMF द्वारा हाल में दिए गए 1 अरब dollar लोन से पाकिस्तान को थोड़ी राहत ज़रूर मिली है, लेकिन यह राहत एक अस्थायी पैबंद है, स्थायी समाधान नहीं।

अब बड़ा सवाल यह है कि क्या IMF राजनीतिक एजेंडा के तहत काम करता है? क्या पाकिस्तान जैसे देश को बार-बार मदद देकर यह एक गलत उदाहरण नहीं पेश करता? IMF बार-बार यह कहता है कि वह केवल आर्थिक संकेतकों और ज़रूरतों के आधार पर फैसला करता है, लेकिन दुनिया के जानकार मानते हैं कि इसकी नीतियां अमेरिका और पश्चिमी देशों के प्रभाव में होती हैं। IMF का मुख्यालय वॉशिंगटन डीसी में है, और इसके Board of Directors में सबसे अधिक प्रभाव अमेरिका का ही होता है। अगर अमेरिका किसी देश को रणनीतिक रूप से अहम मानता है, तो वहां IMF की ‘सहायता’ तेजी से आती है—और यही सवाल पाकिस्तान को लेकर भी उठते हैं।

भारत जैसे देश, जो IMF को फंड देते हैं, लेकिन वहां की नीतियों पर उतना प्रभाव नहीं रखते—अब सवाल कर रहे हैं कि क्या IMF की पारदर्शिता पर्याप्त है? क्या भारत को IMF में अपने योगदान और वोटिंग पावर में बढ़ोतरी की मांग नहीं करनी चाहिए? क्योंकि जब भारत जैसे देश आतंक के खिलाफ निर्णायक युद्ध लड़ रहे होते हैं, तब पाकिस्तान जैसे आतंक-समर्थक देशों को IMF से मदद मिलना न केवल नीति विरोधी है, बल्कि नैतिक तौर पर भी अस्वीकार्य है।

लेकिन एक और पहलू भी है। IMF केवल पैसा देने वाली संस्था नहीं है—यह देशों को आर्थिक सुधार की सलाह भी देती है। कई बार IMF की शर्तें इतनी सख्त होती हैं कि देश की जनता पर भारी असर पड़ता है—बिजली महंगी हो जाती है, टैक्स बढ़ जाता है, सब्सिडी हट जाती है। यही वजह है कि कई देश IMF से लोन लेने को अंतिम विकल्प मानते हैं। पाकिस्तान, श्रीलंका, लेबनान जैसे देश IMF की शर्तें मानते तो हैं, लेकिन वे उसे लागू नहीं कर पाते। और यही कारण है कि वे बार-बार दिवालिया स्थिति में पहुंचते हैं।

अब समय है कि IMF अपनी भूमिका की समीक्षा करे। उसे यह समझना होगा कि उसकी नीतियों का असर केवल आंकड़ों पर नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की जिंदगी पर पड़ता है। और जब वह पाकिस्तान जैसे देशों को बिना ठोस कार्रवाई के लोन देता है, तो वह केवल फंड नहीं, बल्कि अपनी विश्वसनीयता भी गिरवी रख देता है।

Conclusion

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