ज़रा सोचिए… अगर किसी सुबह आप अख़बार खोलें और पढ़ें कि जिस देश पर आप अपनी Energy security के लिए भरोसा करते हैं, वही देश अचानक आपके खिलाफ 50% टैरिफ का हथियार निकाल ले। आपके उद्योग, आपकी गाड़ियां, आपके कारखाने, सब उस फैसले से सीधे प्रभावित हों। और यह टैरिफ सिर्फ़ टैक्स वसूली का मामला न होकर, एक चाल हो, एक ऐसा दबाव कि आप उसकी शर्तों पर झुक जाएं। क्या आप मानेंगे कि यह सामान्य व्यापारिक नीति है? या फिर यह एक बड़ा भू-राजनीतिक खेल है, जिसमें सबसे बड़ा दांव है—तेल। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
आज यही खेल खेल रहे हैं अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप। दूसरी बार व्हाइट हाउस में वापसी के बाद ट्रंप ने अपने पुराने अंदाज़ को और भी आक्रामक बना दिया है। हर देश को धमकी भरे लहजे में टैरिफ की चेतावनी देना, Import पर पचास-पचास फ़ीसदी तक टैक्स थोपना और फिर यह कहना कि अगर आप रूस से तेल खरीदेंगे तो और जुर्माना लगेगा। यह सब कोई सामान्य आर्थिक कदम नहीं है। यह है “तेल का खेल।” और इस खेल का मकसद साफ है—अमेरिका अपने तेल को दुनिया में ठूंसना चाहता है, ताकि उसकी बादशाहत कायम रहे।
2023 की कहानी याद कीजिए। उस साल अमेरिका तेल Export के मामले में रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया था। दस लाख बैरल प्रतिदिन का Export… यह कोई छोटी बात नहीं थी। लेकिन रूस ने यूक्रेन युद्ध के बीच अपना सस्ता तेल एशिया और अफ्रीका को बेचना शुरू किया। भारत और चीन जैसे बड़े खरीदारों ने तुरंत उस मौके को लपका। नतीजा यह हुआ कि अमेरिका के खरीदार छिनने लगे। ट्रंप और उनके साथियों को यह नागवार गुज़रा। उनके लिए यह सिर्फ़ व्यापार नहीं था, यह उनकी वैश्विक ताक़त का सवाल था।
ट्रंप का अंदाज़ हमेशा से धमकाने वाला रहा है। वे कहते हैं—“अगर भारत रूस से तेल खरीदेगा, तो हम 25% अतिरिक्त टैरिफ लगा देंगे।” यह धमकी साफ बताती है कि पूरा मामला केवल व्यापार घाटा या Revenue का नहीं है। असली मुद्दा यह है कि तेल के बाज़ार में कौन बाज़ी मारेगा। अमेरिका दशकों से Importer से Exporter बनने की यात्रा तय कर चुका है और अब वह चाहता है कि हर बड़ा ग्राहक उसके तेल पर निर्भर हो।
लेकिन यहाँ एक दिलचस्प तथ्य है। अमेरिका दुनिया में तेल भंडार के मामले में टॉप-10 में भी मुश्किल से आता है। उसके पास वेनेज़ुएला, सऊदी अरब या रूस जैसे विशाल भंडार नहीं हैं। फिर भी उत्पादन में वह नंबर वन है। यह कैसे मुमकिन हुआ? इसका राज़ है—शेल ऑयल। अमेरिका ने शेल चट्टानों से तेल और गैस निकालने की तकनीक में महारत हासिल की है। 2008 के शेल बूम के बाद से अमेरिका ने अपनी उत्पादन क्षमता कई गुना बढ़ा ली। और यही कारण है कि भले ही जमीन के नीचे उसका स्टॉक सीमित हो, लेकिन उत्पादन और Export में वह सबसे आगे है।
2020 अमेरिका के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। पहली बार वह नेट पेट्रोलियम Exporter बना। यानी जितना Import करता था, उससे ज्यादा Export करने लगा। और 2023 तक तो उसका तेल Export रिकॉर्ड 1 करोड़ बैरल प्रति दिन तक पहुंच गया। नीदरलैंड, चीन, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और कई यूरोपीय देश उसके बड़े खरीदार बन गए। खासकर तब, जब यूरोप ने रूस पर प्रतिबंध लगाए। उस वक्त अमेरिका ने तुरंत उस खाली जगह को भर दिया। यह वह क्षण था जब अमेरिका ने समझा—अगर रूस को कमजोर किया जाए और उसके खरीदारों को हटाया जाए, तो अमेरिकी तेल का साम्राज्य स्थापित किया जा सकता है।
लेकिन तभी खेल बिगड़ गया। भारत और चीन जैसे देशों ने रूस से सस्ता तेल खरीदना शुरू कर दिया। भारत, जो अपनी 85% से ज्यादा ज़रूरत का तेल बाहर से खरीदता है, उसने रूस को बड़ा सप्लायर बना लिया। इससे अमेरिकी Export घटा। और यही वह चोट थी, जिसने ट्रंप को और आक्रामक बना दिया। अब उनका टारगेट सीधा भारत है।
भारत की स्थिति वाकई पेचीदा है। एक तरफ़ ऊर्जा सुरक्षा की चिंता है। हर दिन 47 से 50 लाख बैरल तेल Import करना पड़ता है। दूसरी तरफ़ अमेरिका का दबाव है कि रूस से दूरी बनाओ। सवाल है—भारत किसकी सुने? अमेरिका की धमकी, या अपनी जेब और राष्ट्रीय हित की?
ट्रंप का टैरिफ केवल आर्थिक झटका नहीं है। यह उन करोड़ों भारतीय परिवारों पर सीधा असर है जो पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर निर्भर हैं। ज़रा सोचिए—अगर भारत को मजबूर होकर महंगा अमेरिकी तेल खरीदना पड़ा, तो इसका बोझ किस पर गिरेगा? आम आदमी पर। ट्रांसपोर्ट महंगा होगा, खाना-पीना महंगा होगा, और महंगाई का झटका हर घर तक पहुंचेगा। यही वजह है कि यह टैरिफ सिर्फ़ व्यापारिक विवाद नहीं, बल्कि आम जनता की रोज़मर्रा की जिंदगी का सवाल है।
इतिहास गवाह है कि अमेरिका पहले भी टैरिफ और प्रतिबंधों को हथियार बना चुका है। 1974 में इंदिरा गांधी के समय, और 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के समय—दोनों बार परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका ने कठोर आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंध लगाए। लेकिन भारत झुका नहीं। बल्कि हर बार और मजबूत बनकर उभरा। यही कारण है कि आज भारत की नीति साफ है—किसी भी धमकी या दबाव के आगे झुकना नहीं।
भारत के पास विकल्प हैं। इराक, सऊदी अरब, UAE, रूस और यहां तक कि अमेरिका से भी तेल खरीदना। लेकिन किसी एक देश पर पूरी तरह निर्भर होना जोखिम है। यही वजह है कि भारतीय रणनीति हमेशा “विविधता” पर टिकी रही है। और यही रणनीति आज काम आ रही है।
ट्रंप की आक्रामक नीति का दूसरा पहलू भी है। वे यह दिखाना चाहते हैं कि अमेरिका ही वैश्विक ऊर्जा व्यवस्था का कंट्रोलर है। लेकिन सवाल उठता है—क्या यह सच है? क्या वाकई अमेरिका तेल की कीमतें तय कर सकता है? सच्चाई यह है कि OPEC Plus, रूस और एशिया के बड़े खरीदार मिलकर भी खेल बिगाड़ सकते हैं। यही वजह है कि ट्रंप का यह दांव उतना आसान नहीं जितना वह सोचते हैं।
भारत के लिए यह समय बेहद अहम है। एक तरफ़ आर्थिक दबाव, दूसरी तरफ़ राजनीतिक संतुलन। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले ही साफ कर दिया है—भारत राष्ट्रीय हित से समझौता नहीं करेगा। ऊर्जा सुरक्षा हमारे लिए पहली प्राथमिकता है। और अगर अमेरिका 50% टैरिफ लगाता है, तो भारत नए रास्ते खोज लेगा।
यह केवल सरकार या कंपनियों की लड़ाई नहीं है। यह आम आदमी की जेब की लड़ाई है। यही वजह है कि इस कहानी में हर भारतीय जुड़ा हुआ है। क्योंकि जब भी तेल का खेल खेला जाता है, सबसे बड़ी कीमत जनता ही चुकाती है।
तो क्या यह 2023 की कहानी दोहराई जा रही है? क्या अमेरिका फिर से वही दांव खेल रहा है कि रूस को किनारे करो और अमेरिकी तेल को बाज़ार में ठूंस दो? संकेत तो साफ हैं। लेकिन फर्क इतना है कि इस बार भारत पहले से कहीं ज्यादा मज़बूत है। उसकी अर्थव्यवस्था टॉप-5 में है, उसके पास बहुआयामी साझेदार हैं, और उसके पास वह आत्मविश्वास है जो 1974 और 1998 में भी था।
तेल का यह खेल अभी खत्म नहीं हुआ है। आने वाले महीनों में टैरिफ, कूटनीति और बाज़ार के दांव-पेंच और तेज होंगे। लेकिन एक बात तय है—भारत किसी की धौंस में आने वाला नहीं। इतिहास ने हमें यही सिखाया है—धमकी जितनी बड़ी होगी, भारत उतना ही मज़बूत बनकर उभरेगा।
Conclusion
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