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Inspiring: E-Waste Management से बदलेगा भारत का भविष्य! मोदी सरकार और टेक कंपनियों के बीच नई शुरुआत। 2025

E-Waste

क्या आपने कभी सोचा है कि वो कंपनियां, जो आपके घरों में सबसे ज़्यादा भरोसे के साथ चल रही हैं – आपकी E-Waste टीवी, फ्रिज, एसी, मोबाइल – वही कंपनियां एक दिन भारत सरकार के खिलाफ अदालत में खड़ी होंगी? और वो भी इसलिए, क्योंकि उन्हें अपने ही बनाए सामान को दोबारा ठीक से ठिकाने लगाने का खर्च उठाना पड़ रहा है? सुनने में यह जितना अजीब लगता है, हकीकत उससे कहीं ज़्यादा पेचीदा और गंभीर है। इस कहानी की शुरुआत होती है एक ऐसे फैसले से, जो भारत सरकार ने पर्यावरण को बचाने के लिए लिया – लेकिन उसी फैसले ने सैमसंग और एलजी जैसी दिग्गज कंपनियों को कोर्ट तक पहुंचा दिया। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

यह कहानी है एक ऐसे टकराव की, जहां एक तरफ खड़ी है दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, और दूसरी तरफ दुनिया की सबसे बड़ी इलेक्ट्रॉनिक कंपनियां। बात सिर्फ कचरे की नहीं है, बात है उस कचरे के पीछे छिपे अरबों के कारोबार और नीति-निर्माण की। भारत सरकार ने हाल ही में एक नया नियम बनाया – E-Waste मैनेजमेंट का ऐसा फ्रेमवर्क जिसमें कंपनियों को अब सिर्फ सामान बेचने की नहीं, बल्कि बेचे गए सामान को ठीक तरीके से निपटाने की भी ज़िम्मेदारी दी गई। लेकिन जब ज़िम्मेदारी के साथ आया खर्च, तो कंपनियों ने कहा – ‘अब बहुत हुआ!’

दरअसल, भारत सरकार ने एक नई नीति के तहत सभी इलेक्ट्रॉनिक प्रोडक्ट्स – जैसे कि टीवी, एसी, रेफ्रिजरेटर, मोबाइल और अन्य गैजेट्स – को रिसाइकल करने के लिए Minimum payment तय कर दिया। इस Payment का मकसद था E-Waste को औपचारिक रूप से रिसाइकल करवाना, ताकि न तो पर्यावरण को नुकसान हो और न ही लोगों की सेहत को खतरा। लेकिन जहां सरकार इसे एक ज़रूरी कदम मान रही थी, वहीं कंपनियों के लिए यह एक आर्थिक बोझ बन गया।

सैमसंग और एलजी ने सीधे तौर पर भारत सरकार की इस नीति को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी। उनकी दलील थी कि सरकार एकतरफा नियम बनाकर कंपनियों पर ‘पोल्यूटर पे’ सिद्धांत के नाम पर ज़बरदस्ती टैक्स थोप रही है। एलजी ने कोर्ट में कहा कि सरकार का यह नियम उन पहलुओं को नज़रअंदाज़ करता है, जो यह तय करते हैं कि असल में रिसाइकलिंग की लागत क्या होती है। कंपनियों का कहना है कि अगर सरकार अनौपचारिक रिसाइकलर्स को क़ानून के दायरे में नहीं ला सकती, तो इसका दोष कंपनियों पर नहीं डाला जा सकता।

यह मामला यहीं तक सीमित नहीं रहा। सैमसंग ने भी अपनी याचिका में साफ कहा कि सिर्फ एक न्यूनतम कीमत तय कर देने से पर्यावरण की रक्षा नहीं हो सकती। इसके उलट, इससे कंपनियों का खर्च और बढ़ जाएगा और उनका मुनाफा घटेगा। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत सरकार के नए नियमों के तहत अब कंपनियों को स्मार्टफोन जैसे हल्के डिवाइसेज के लिए 34 रुपये प्रति किलो और टीवी, एसी जैसे भारी उपकरणों के लिए 22 रुपये प्रति किलो का Payment करना होगा। और यह बात बड़ी कंपनियों को रास नहीं आई।

अगर बात यहीं तक होती तो शायद मामला इतना बड़ा न बनता, लेकिन इस लड़ाई में अब और भी कंपनियां कूद पड़ी हैं। जापानी कंपनी डाइकिन, भारत की हैवेल्स और टाटा की वोल्टास – ये सभी इस नीति को लेकर सरकार पर केस कर चुकी हैं। इन सभी का तर्क एक ही है – कि सरकार की यह नीति उनकी लागत को बेतहाशा बढ़ा रही है और यह न सिर्फ उनका बिजनेस मॉडल बिगाड़ रही है, बल्कि भारत में Investment की धारणा को भी प्रभावित कर रही है।

लेकिन सरकार का पक्ष भी कम दिलचस्प नहीं है। पर्यावरण मंत्रालय का कहना है कि यह कदम उठाना ज़रूरी था, क्योंकि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ई-कचरा उत्पादक देश बन चुका है – चीन और अमेरिका के बाद। लेकिन इसके बावजूद भारत में सिर्फ 43 प्रतिशत ई-कचरे की ही रिसाइकलिंग हो रही है। बाकी कचरा या तो खुले में फेंका जा रहा है या ऐसे तरीकों से रिसाइकल हो रहा है, जो ज़हरीले रसायनों और धुएं के ज़रिए न केवल हवा को प्रदूषित करते हैं बल्कि ज़मीन और पानी को भी।

भारत सरकार का तर्क है कि देश के 80 प्रतिशत E-Waste सेक्टर पर अभी भी अनौपचारिक रिसाइकलर्स का कब्जा है – यानी ऐसे लोग या छोटे स्क्रैप डीलर जो बिना किसी लाइसेंस या तकनीकी सुरक्षा के, ई-कचरे को जलाकर या एसिड से घोलकर मेटल्स निकालते हैं। नतीजा ये होता है कि पर्यावरण तो बर्बाद होता ही है, साथ ही उन लोगों की सेहत पर भी गंभीर असर पड़ता है जो इस काम में लगे होते हैं।

सरकार का कहना है कि अगर इस सिस्टम को सुधारा नहीं गया तो भारत एक कचरे का अड्डा बन जाएगा। इसीलिए कंपनियों को ज़िम्मेदारी देनी ज़रूरी है कि वे न सिर्फ अपने बनाए सामान को बेचें, बल्कि उस सामान का रिसाइकलिंग प्रोसेस भी सही से पूरा करें। इसके लिए सरकार ने Minimum payment की शर्त लगाई ताकि प्रोफेशनल और तकनीकी रूप से साउंड रिसाइकलर्स को बढ़ावा मिले।

लेकिन कंपनियों का कहना है कि यह नीति उनके ऑपरेशनल खर्च को काफी हद तक बढ़ा रही है, खासकर एसी और फ्रिज जैसे प्रोडक्ट्स में, जिनकी रिसाइक्लिंग लागत स्मार्टफोन्स की तुलना में कई गुना ज़्यादा होती है। वे यह भी सवाल उठा रही हैं कि सरकार की नीति में पारदर्शिता नहीं है, और यह तय करने की प्रक्रिया कि कौन रिसाइकलर कितना पैसा लेगा, वह भी अस्पष्ट है।

रिसर्च फर्म रेडसियर की रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका में भारत के मुकाबले पांच गुना ज्यादा ई-कचरे की रिसाइकलिंग होती है, और चीन में भी कम से कम डेढ़ गुना ज्यादा। यानी भारत को अगर global level पर Competition में बने रहना है, तो इसे अपने रिसाइकलिंग सिस्टम को मजबूत करना ही होगा। लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह मजबूती कंपनियों पर आर्थिक बोझ डालकर हासिल की जाएगी?

यह पूरा मामला अब पर्यावरण बनाम अर्थशास्त्र बन गया है। एक तरफ सरकार है जो पर्यावरण संरक्षण के नाम पर कंपनियों को ज़िम्मेदार बनाना चाहती है, और दूसरी तरफ वो कंपनियां हैं जो अपनी लागत और मुनाफे की चिंता में इस नीति का विरोध कर रही हैं। और दिलचस्प बात यह है कि इस मुद्दे पर अब तक न तो सैमसंग और एलजी ने रॉयटर्स के सवालों का जवाब दिया है, और न ही भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने कोई आधिकारिक बयान जारी किया है।

इस चुप्पी के बीच, भारत की अदालतें अब उस असली फैसले की जगह बन चुकी हैं जहां यह तय होगा कि, क्या टेक्नोलॉजी की दिग्गज कंपनियां सरकार के बनाए नियमों के आगे झुकेंगी, या सरकार को अपने नियमों में बदलाव करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इस टकराव में जीत किसी एक की नहीं होगी – असल जीत तब होगी जब भारत एक मजबूत, पारदर्शी और पर्यावरण के अनुकूल E-Waste मैनेजमेंट सिस्टम खड़ा कर पाएगा।

कई पर्यावरणविदों का मानना है कि भारत में अब वो समय आ गया है जब सिर्फ कानून बनाने से नहीं, बल्कि उन्हें सख्ती से लागू करने से फर्क पड़ेगा। अनौपचारिक रिसाइकलर्स को रेग्युलेट करना, उन्हें ट्रेनिंग और तकनीक मुहैया कराना, और साथ ही साथ कंपनियों के साथ बातचीत के रास्ते खोलना – यही वो संतुलन है जिससे यह संकट टल सकता है।

लेकिन अगर दोनों पक्ष अपने-अपने रुख पर अड़े रहते हैं, तो इसका असर आम जनता पर भी पड़ सकता है। कंपनियां अपने खर्च को वसूलने के लिए प्रोडक्ट्स की कीमत बढ़ा सकती हैं, जिससे उपभोक्ताओं की जेब पर सीधा असर होगा। साथ ही, भारत में Investment करने वाली विदेशी कंपनियों को यह संकेत भी जा सकता है कि भारत में नीति-निर्माण में स्थिरता नहीं है।

इसलिए अब सवाल सिर्फ ये नहीं है कि कोर्ट किसके पक्ष में फैसला सुनाएगा, सवाल यह है कि भारत अपने पर्यावरणीय भविष्य को कैसे संभालेगा? क्या यह संभव है कि टेक्नोलॉजी और पर्यावरण साथ-साथ चलें? या फिर ये दोनों रास्ते हमेशा विपरीत दिशा में ही चलेंगे?

Conclusion

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