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Driving license की सुरक्षा पक्की! हाई कोर्ट ने पुलिस की मनमानी पर लगाई रोक। 2025

Driving license

एक ठंडी शाम थी, जब कोलकाता की सड़कों पर एक वकील अपनी गाड़ी लेकर घर लौट रहा था। ट्रैफिक धीमा था, मगर ज़िंदगी अपनी रफ्तार में चल रही थी। तभी अचानक, एक ट्रैफिक पुलिसकर्मी ने उसकी गाड़ी को हाथ दिखाकर रोक लिया। वजह पूछने पर जवाब मिला—“ओवरस्पीडिंग!” और फिर बिना किसी चेतावनी या प्रक्रिया के, पुलिस वाले ने उसका Driving license छीन लिया। कोई चालान नहीं, कोई रसीद नहीं—बस एक हुक्म और साथ में मांगा गया 1000 रुपए कैश! सोचिए, अगर एक वकील के साथ ये हो सकता है, तो एक आम नागरिक के साथ क्या नहीं हो सकता? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

आपको बता दें कि ये कोई आम घटना नहीं थी। ये उस अहंकारी सोच की मिसाल थी जिसमें कुछ ट्रैफिक पुलिसकर्मी खुद को सड़क का राजा समझते हैं। पर इस बार मामला वहीं नहीं रुका। क्योंकि जिस व्यक्ति के साथ यह हुआ था, वह कोई आम नागरिक नहीं—बल्कि एक वकील था, जो अपने अधिकारों को जानता था और जो न्याय के रास्ते पर चलने से नहीं डरता था। उसका नाम था सुभ्रांगसु पांडा। और उसकी एक याचिका ने देशभर में ट्रैफिक पुलिस की मनमानी पर सवाल खड़े कर दिए।

सुभ्रांगसु पांडा ने कोर्ट में जो दस्तावेज़ रखे, उसमें सिर्फ एक घटना नहीं थी, बल्कि एक सिस्टम की कहानी थी—जहां आम जनता को नियमों का पाठ पढ़ाने वाली पुलिस खुद नियमों की अनदेखी कर रही थी। उन्होंने बताया कि किस तरह एक ट्रैफिक सार्जेंट ने न केवल उनसे नकद पैसे मांगे, बल्कि उनका लाइसेंस भी जब्त कर लिया—बिना कोई वैध कारण या प्रक्रिया अपनाए।

और यह यहीं नहीं रुका। उसी दिन एक और वकील के साथ भी यही हरकत हुई। उस पर न केवल अपमानजनक टिप्पणी की गई, बल्कि उससे 500 रुपए की मांग भी की गई, सिर्फ इसलिए कि वह अपनी गाड़ी की चाबी वापस ले सके। यह घटनाएं सिर्फ दो लोगों की नहीं थीं—बल्कि उन लाखों लोगों की थीं, जो हर दिन सड़कों पर ऐसे हालात का सामना करते हैं, लेकिन कुछ कह नहीं पाते।

इस पूरी घटना ने एक सवाल खड़ा कर दिया—क्या ट्रैफिक पुलिस को वास्तव में किसी का ड्राइविंग लाइसेंस जब्त करने या उसे रद्द करने का अधिकार है? क्या वो मौके पर ही न्याय कर सकते हैं? या फिर यह एक गलत परंपरा बन गई है, जो धीरे-धीरे सिस्टम का हिस्सा बन गई है?

कलकत्ता हाई कोर्ट ने इस मामले में जो फैसला सुनाया, वो न केवल कानून की रक्षा करता है, बल्कि एक मजबूत संदेश भी देता है—यह देश पुलिस राज्य नहीं है। यह कानून द्वारा शासित लोकतांत्रिक देश है, जहां अधिकारों की रक्षा होती है, ना कि अधिकारों की छीना-झपटी।

न्यायमूर्ति पार्थ सारथी सेन ने साफ शब्दों में कहा—पुलिस Driving license को जब्त तो कर सकती है, लेकिन सिर्फ विशेष परिस्थितियों में। और अगर जब्ती होती है, तो उस केस को अदालत में भेजना अनिवार्य है। और फिर फैसला अदालत करेगी—न कि सड़क पर खड़ा हुआ एक पुलिसकर्मी।

हाई कोर्ट ने मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 206 का जिक्र करते हुए कहा कि पुलिस तब तक किसी का लाइसेंस जब्त नहीं कर सकती, जब तक वह यह साबित न कर सके कि वाहन चालक ने गंभीर अपराध किया है—जैसे नशे में गाड़ी चलाना, या जानबूझकर तेज रफ्तार से लोगों की जान को खतरे में डालना।

लेकिन इस केस में तो ऐसा कुछ नहीं था। कोई नशा नहीं, कोई हादसा नहीं, कोई घातक ड्राइविंग नहीं। सिर्फ आरोप—77 की स्पीड, जबकि सीमा 60 थी। और उसके आधार पर बिना कोई प्राधिकृत पर्ची दिए, एक नागरिक से उसका अधिकार छीन लेना—क्या यह कानून के शासन का अपमान नहीं?

सबसे दिलचस्प बात यह थी कि पुलिस ने यह दावा किया कि उन्हें धारा 206 के अंतर्गत अधिकार प्राप्त है लाइसेंस जब्त करने का। लेकिन कोर्ट ने यह तर्क सिरे से खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि “जब्त” शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा अधिनियम में नहीं है, इसलिए इसे सामान्य भाषा में समझा जाना चाहिए। यानी जब तक यह सिद्ध न हो कि व्यक्ति कानून से भाग सकता है या गंभीर खतरा है, तब तक लाइसेंस की जब्ती गैरकानूनी है।

और सिर्फ यही नहीं, कोर्ट ने यह भी कहा कि लाइसेंस को निरस्त करने या उसे रद्द करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ लाइसेंसिंग प्राधिकारी के पास है—पुलिस के पास नहीं। यानी पुलिस सड़क पर कानून की व्याख्या नहीं कर सकती, वह सिर्फ उसका पालन कर सकती है।

यह फैसला सिर्फ एक वकील की जीत नहीं थी। यह फैसला उन लाखों लोगों की जीत थी, जिनसे आए दिन पुलिस अपनी मनमर्जी से उनका Driving license छीन लेती है, जुर्माने के नाम पर कैश मांगती है और डराकर नियमों का उल्लंघन करती है।

कलकत्ता हाई कोर्ट ने साफ शब्दों में यह भी कहा कि यह कोई पुलिस राज्य नहीं है। ये एक वेलफेयर स्टेट है, जहां हर नागरिक के अधिकार का सम्मान किया जाता है। और अगर कोई अधिकारी, खासकर पुलिस विभाग का व्यक्ति, अपने पद का दुरुपयोग करता है, तो वह न केवल अपने कर्तव्य से विमुख होता है, बल्कि पूरे सिस्टम को शर्मिंदा करता है।

इस फैसले ने एक और अहम बात पर रोशनी डाली—सड़क पर हुए घटनाक्रम को लेकर पुलिस जिस प्रकार आम जनता से जुर्माना वसूलती है, उसमें पारदर्शिता का अभाव है। नकद भुगतान की मांग करना, ऑनलाइन चालान की प्रक्रिया को नजरअंदाज करना—ये सब ऐसी आदतें हैं, जो ना सिर्फ भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं, बल्कि जनता में पुलिस के प्रति विश्वास भी कमजोर करती हैं।

सोचिए, अगर एक वकील को बिना कारण उसका लाइसेंस छीन लेने की घटना को हाई कोर्ट तक ले जाना पड़ा—तो एक किसान, मजदूर या रेहड़ी-पटरी वाला क्या कर पाएगा? क्या उसके पास यह ताकत है कि वो एक रिट याचिका डाले, कोर्ट में साल भर लड़े, और न्याय हासिल करे?

इसीलिए यह फैसला एक ‘नज़ीर’ बनकर उभरा है—एक ऐसा उदाहरण जिसे हर पुलिस विभाग को पढ़ाया जाना चाहिए, और हर नागरिक को सिखाया जाना चाहिए। अब यह ज़रूरी हो गया है कि ट्रैफिक नियमों को लागू करने की प्रक्रिया में मानवता, पारदर्शिता और कानून का सम्मान हो।

न्यायमूर्ति ने अपने आदेश में राज्य प्रशासन से यह भी कहा कि अब वक्त आ गया है जब ट्रैफिक कानूनों को लागू करने के तरीके पर पुनर्विचार हो। एक ऐसा कोर्स तैयार किया जाए जो पुलिसकर्मियों को यह सिखाए कि कैसे जनता को परेशान किए बिना, नियमों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।

यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम हो सकता है—क्योंकि अगर पुलिस जनता के साथ सम्मानजनक व्यवहार करेगी, तो जनता भी नियमों का पालन करने में ज़्यादा सहयोग करेगी। डर और दबाव से नहीं, बल्कि समझ और विश्वास से अगर सिस्टम चले, तो हर सड़क पर शांति होगी, हर नागरिक को न्याय मिलेगा।

अब बात उस सार्जेंट की, जिसने यह सब किया। कोर्ट ने उस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि अगर उन्होंने सच में अभद्र व्यवहार किया, और वकीलों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की—तो यह न केवल एक अधिकारी की गरिमा के खिलाफ है, बल्कि पूरे पुलिस विभाग की साख को नुकसान पहुंचाता है। यह पूरी तरह अस्वीकार्य है।

यह सिर्फ एक आदेश नहीं था। यह एक चेतावनी थी—हर उस अधिकारी के लिए, जो अपने पद का दुरुपयोग करता है, हर उस सिस्टम के लिए, जो कानून से ऊपर खुद को मानता है। कोर्ट ने कहा—यह देश कानून से चलता है, किसी की मनमानी से नहीं।

2024 में जो केस दर्ज हुआ था, वह अब सिर्फ एक कानूनी दस्तावेज नहीं रहा। वह अब एक जन-जागरण बन गया है। हजारों लोग अब सोशल मीडिया पर इस फैसले की तारीफ कर रहे हैं, और अपने अधिकारों के बारे में जागरूक हो रहे हैं। यह एक छोटी जीत है, लेकिन एक बड़े बदलाव की शुरुआत।

इस कहानी का सबसे बड़ा संदेश यही है—अगर आपको लगता है कि आपके साथ अन्याय हुआ है, तो चुप मत रहिए। आवाज उठाइए। क्योंकि जब एक आवाज उठती है, तो वो हजारों की आवाज बन सकती है। और जब न्याय का रास्ता कठिन लगे, तब याद रखिए—उस रास्ते पर चलने वाले लोग ही इतिहास बदलते हैं।

तो अगली बार जब कोई ट्रैफिक पुलिसकर्मी आपका लाइसेंस छीनने की कोशिश करे, तो डरिए मत—पूछिए, “किस अधिकार से?” मांगिए लिखित आदेश, चालान की रसीद, और जानिए अपने अधिकार। क्योंकि अब हाई कोर्ट की मुहर लग चुकी है—आपका लाइसेंस पुलिस नहीं, सिर्फ लाइसेंसिंग अथॉरिटी ही रद्द कर सकती है। ये फैसला एक नागरिक की आवाज थी… और अब यह देश की आवाज बन चुका है।

क्या पुलिस आपका ड्राइविंग लाइसेंस रद्द कर सकती है? जवाब चौंकाने वाला है—नहीं! कलकत्ता हाई कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि पुलिस के पास लाइसेंस रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है। यह अधिकार केवल लाइसेंसिंग अथॉरिटी के पास है। एक वकील के साथ हुई घटनाओं के बाद कोर्ट ने कहा—अगर कोई तेज़ रफ्तार या नशे में गाड़ी चला रहा हो, तो भी पुलिस सिर्फ लाइसेंस जब्त कर सकती है, वो भी सिर्फ कोर्ट में पेश करने के लिए।

पैसे वसूलना, मौके पर जुर्माना लगाना या अपमानजनक भाषा—यह सब कानून की भावना के खिलाफ है। अदालत ने दो टूक कहा—यह पुलिस स्टेट नहीं, कानून से चलने वाला लोकतंत्र है। यह फैसला आम लोगों को जानने की ज़रूरत है—आपके अधिकार क्या हैं, और पुलिस की सीमाएं क्या हैं। अब समय है जागरूक होने का… ताकि डर नहीं, कानून बोले। अधिक जानकारी के लिए आप हमारे चैनल पर इसकी detail वीडियो देख सकते हैं। साथ ही इस विडीयो को like, शेयर और चैनल को subscribe करना ना भूलें।

Conclusion

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