कल्पना कीजिए, आपने अपनी जिंदगी भर की कमाई जोड़कर एक छोटा सा सपना खरीदा — एक घर। एक ऐसा घर जहाँ आप अपने बच्चों की हंसी गूंजते देखना चाहते थे, जहाँ खिड़की से आती धूप आपके भविष्य को रोशन कर सके। लेकिन जब साल दर साल गुजरते जाएं, और वह सपना सिर्फ कागजों में कैद रह जाए, तो उस दर्द को कोई शब्द बयां नहीं कर सकते। दिल्ली-NCR के हजारों फ्लैट खरीदार आज इसी दर्द से गुजर रहे हैं।
सपनों का वह घर, जिसके लिए उन्होंने दिन-रात खून-पसीना बहाया था, आज भी अधूरा पड़ा है। और सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस कानून पर उन्हें सबसे ज्यादा भरोसा था —RERA — वही अब उनके भरोसे की सबसे बड़ी टूटन बन चुका है। आज हम जानेंगे, क्यों RERA जैसी क्रांतिकारी पहल के बावजूद दिल्ली-NCR के हजारों खरीदार आज भी ‘बेघर’ हैं, और क्यों रियल एस्टेट में सपने बिखरते जा रहे हैं।
साल 2016 — जब सरकार ने रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी यानी RERA का ऐलान किया था, तो पूरे देश में एक नई उम्मीद की किरण जगी थी। वर्षों से बिल्डरों की मनमानी, वादाखिलाफी और धोखाधड़ी से परेशान हो चुके लाखों फ्लैट खरीदारों ने सोचा था कि अब शायद उनका दर्द खत्म होगा। RERA का मकसद था — रियल एस्टेट सेक्टर में पारदर्शिता लाना, खरीदारों को सुरक्षा देना और बिल्डरों को जवाबदेह बनाना। इससे पहले इस सेक्टर में अराजकता का बोलबाला था। लोग अपने जीवन भर की पूंजी लगाकर घर खरीदते थे, लेकिन बदले में मिलती थी अधूरी इमारतें, लटकते प्रोजेक्ट और अंतहीन अदालतों के चक्कर।
RERA को इसीलिए बनाया गया था ताकि इन सभी परेशानियों का हल निकल सके। कानून के तहत हर प्रोजेक्ट को रजिस्टर करना अनिवार्य किया गया। बिना रजिस्ट्रेशन कोई प्रोजेक्ट बेच नहीं सकता था। हर बिल्डर को अपने प्रोजेक्ट के बारे में पूरी जानकारी देनी थी — जैसे कि जमीन के दस्तावेज, मंजूरी की स्थिति, निर्माण की प्रगति और पूरा पैसा कैसे इस्तेमाल होगा। RERA ने कारपेट एरिया की भी स्पष्ट परिभाषा दी, ताकि खरीदारों को उनके फ्लैट के वास्तविक उपयोग क्षेत्र के बारे में पारदर्शिता मिल सके। पुराने जमाने के बिल्डर अक्सर सुपर एरिया के नाम पर ग्राहकों को धोखा देते थे — रेरा ने इस चलन को खत्म करने का दावा किया।
RERA का एक और बड़ा फायदा यह था कि अगर बिल्डर प्रोजेक्ट डिले करता है या वादे पूरे नहीं करता है, तो खरीदार उसके खिलाफ RERA में शिकायत दर्ज करा सकता था। सुनवाई तेजी से होनी थी, और न्याय सस्ता व सुलभ होना था। कम से कम कागजों पर तो यही लिखा गया था।
लेकिन आज, 9 साल बाद, जब हम दिल्ली-NCR के ग्राउंड रियलिटी को देखते हैं, तो तस्वीर उतनी उजली नहीं है। हजारों फ्लैट खरीदार आज भी अपने घर का सपना अधूरा लिए बैठे हैं। Noida Extension, Greater Noida, Gurugram, Faridabad जैसे इलाकों में ऐसी बिखरी हुई इमारतें खड़ी हैं जो अधूरी हैं, जर्जर हो चुकी हैं, या फिर जिनका काम कभी पूरा ही नहीं हुआ।
NEFOWA (Noida Extension Flat Owners Welfare Association) जैसी संस्थाएँ, वर्षों से फ्लैट खरीदारों के अधिकारों के लिए लड़ रही हैं। NEFOWA के वाइस प्रेसिडेंट दीपांकर कहते हैं कि रेरा ने कागजों पर तो पारदर्शिता बढ़ाई है, लेकिन जमीनी स्तर पर बदलाव नगण्य है। RERA रिकवरी सर्टिफिकेट तो जारी कर देता है, लेकिन वसूली के लिए उसके पास खुद की कोई शक्ति नहीं है। खरीदार को फिर से कोर्ट के चक्कर काटने पड़ते हैं, डीएम ऑफिस के फेरे लगाने पड़ते हैं, और आखिर में हाथ आता है तो बस इंतजार और हताशा।
ऐसे ही NEFOWA के एक्स वाइस प्रेसिडेंट मनीष कुमार कहते हैं कि RERA एक “टूथलेस टाइगर” बनकर रह गया है। वह आदेश तो पारित कर सकता है, लेकिन उसे लागू कराने का कोई वास्तविक अधिकार उसके पास नहीं है। बिल्डर बेफिक्र होकर आदेशों की अनदेखी करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि RERA खुद उन्हें मजबूर नहीं कर सकता। मनीष खुद सुपरटेक के फ्लैट खरीदार हैं। उन्होंने 2018 में रेरा में शिकायत दर्ज कराई थी, 2019 में आदेश भी आ गया था, जिसमें बिल्डर पर पेनाल्टी लगाई गई थी। लेकिन उसके बाद? कुछ नहीं। बिल्डर ने आदेशों को हवा में उड़ा दिया। COVID के दौरान ऑनलाइन सुनवाई भी हुई, लेकिन परिणाम वही रहा — अधूरा घर, अधूरी उम्मीदें।
ग्रेटर नोएडा वेस्ट के Rudra Palace Heights प्रोजेक्ट की कहानी तो और भी दुखद है। इस प्रोजेक्ट को लॉन्च हुए लगभग 15 साल हो गए हैं। 15 साल — यानी एक बच्चे की पूरी स्कूली पढ़ाई का समय — लेकिन आज भी वहां रहने के लिए एक भी फ्लैट तैयार नहीं हुआ है। जिन लोगों ने अपनी जवानी की कमाई इस प्रोजेक्ट में लगाई थी, वे आज रिटायरमेंट की उम्र के करीब आ चुके हैं, लेकिन घर के नाम पर हाथ में सिर्फ वादे हैं। RERA के होते हुए भी कोई राहत नहीं मिली।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, नोएडा के 20 बड़े डिफॉल्टर बिल्डरों के प्रोजेक्ट्स से सिर्फ 10% रिकवरी हो पाई है। जिनमें रुद्रा ग्रुप भी शामिल है। यानी 90% लोग आज भी अपने फ्लैट के लिए तरस रहे हैं, और RERA बस आदेश पारित करने तक सीमित है।
हालात इतने बदतर हैं कि अब फ्लैट खरीदार RERA में शिकायत करने से भी डरने लगे हैं। कई फ्लैट बायर्स का आरोप है कि अगर वे रेरा में शिकायत करते हैं, तो बिल्डर उनसे बदला लेने की कोशिश करते हैं। महागुन मोटांज प्रोजेक्ट के खरीदार राहुल टंडन बताते हैं कि जब उन्होंने रेरा में शिकायत की, तो बिल्डर ने उनकी बुकिंग कैंसिल करने की धमकी दी। घर न मिलने का दर्द एक तरफ, और उपर से धमकियाँ झेलने की मजबूरी — यह किसी आम इंसान की उम्मीदों का सीधा कत्ल है।
ऐसे ही एक और खरीदार सौरभ बताते हैं कि जब उन्होंने अपने प्रोजेक्ट में देरी को लेकर RERA का दरवाजा खटखटाया, तो उनके खिलाफ बिल्डर ने 22 लाख रुपये की एक्स्ट्रा डिमांड ठोक दी। जबकि उन्होंने पहले ही 27 लाख का पेमेंट कर रखा था। सौरभ के मुताबिक, बिल्डर ने खुलेआम धमकी दी कि रेरा में शिकायत करने की सजा ऐसे ही भुगतनी पड़ेगी।
सुप्रीम कोर्ट के वकील कुमार मिहिर इस स्थिति की एक कानूनी व्याख्या देते हैं। वह बताते हैं कि RERA की सीमाएँ भी अपनी जगह पर हैं। जो प्रोजेक्ट 2016 से पहले पूरे हो चुके थे, वे रेरा के दायरे में नहीं आते। जो प्रोजेक्ट अधूरे थे, उन्हें रजिस्टर होना था, लेकिन कई कंपनियाँ दिवालिया हो गईं, और फिर उन पर IBC (Insolvency and Bankruptcy Code) लागू हो गया। IBC के सेक्शन 14 के तहत जब कोई कंपनी इनसॉल्वेंसी प्रक्रिया में चली जाती है, तो किसी अन्य कोर्ट या अथॉरिटी में उस पर कार्यवाही नहीं हो सकती — इसमें रेरा भी शामिल है।
मिहिर यह भी कहते हैं कि कई बार RERA आदेश पारित करता है, रिकवरी सर्टिफिकेट भी जारी करता है, लेकिन फिर डीएम को कार्रवाई करनी होती है। अगर बिल्डर कोर्ट से स्टे ले लेता है, तो रिकवरी भी वर्षों तक रुकी रह सकती है। यानी कागजों पर न्याय मिलता है, लेकिन जमीनी हकीकत में खरीदार फिर भी दर-दर भटकता है।
RERA को लागू हुए आज 9 साल बीत चुके हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि दिल्ली-NCR में आज भी सैकड़ों इमारतें वीरान पड़ी हैं। कुछ खंडहर बन चुकी हैं, कुछ इमारतों में बिल्डिंग मटेरियल धूल फांक रहा है, और कुछ जगहों पर तो निर्माण कार्य लगभग पूरी तरह से बंद है। ऐसे में जिन परिवारों ने सपनों का घर खरीदने के लिए अपनी जिंदगी भर की पूंजी लगा दी थी, उनका भरोसा अब सिर्फ RERA से नहीं, पूरे सिस्टम से उठ चुका है।
यह सिर्फ घरों का नहीं, सपनों का सवाल है। एक अधूरी इमारत सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं होती — वह अधूरी आशाएँ, अधूरे ख्वाब और टूटी हुई उम्मीदों की मूक गवाही देती है। क्योंकि असली नुकसान सिर्फ पैसों का नहीं होता। असली नुकसान तब होता है जब कोई अपना विश्वास खो बैठता है।
Conclusion
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