कल्पना कीजिए… एक ऐसा वक्त आ चुका है जब दुनिया की सबसे ताक़तवर मैन्युफैक्चरिंग मशीन, जिसे हम China के नाम से जानते हैं, अपने पैरों पर आ बैठा है… और भारत के आगे न सिर्फ झुक रहा है, बल्कि अपनी ‘नाक’ भी रगड़ने को मजबूर हो गया है। ये वही ड्रैगन है जिसने सालों तक दुनिया के बाजारों पर राज किया, टेक्नोलॉजी की बादशाहत हासिल की, और पड़ोसी देशों को अपने प्रभाव से डरा-धमका कर मनचाही शर्तें मनवाता रहा।
लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है। अमेरिका के 245% टैरिफ ने China की रीढ़ तोड़ दी है और उसके बाद वो एक बार फिर से भारत की चौखट पर आ खड़ा हुआ है—लेकिन इस बार मिन्नतों के साथ, झुके सिर के साथ, और वो भी भारत की सख्त शर्तों को कबूल करते हुए। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
बीते कुछ हफ्तों में जब China ने भारत में व्यापार के लिए तैयार होने की बात कही, तो कुछ लोगों ने सोचा ये एक सामान्य कूटनीतिक घटनाक्रम है। लेकिन अंदर की कहानी कहीं ज्यादा गहरी, रणनीतिक और चौंकाने वाली है। भारत ने अब China के साथ कोई भी समझौता करते वक्त अपने राष्ट्रीय हितों और टेक्नोलॉजी संप्रभुता को सर्वोपरि रख दिया है। अब चीन की कंपनियां भारत में तब तक पैर नहीं जमा सकतीं जब तक वो अपने टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की शर्त नहीं मान लेतीं, और वो भी सिर्फ 10% इक्विटी Investment की सीमित अनुमति के साथ।
यह फैसला सिर्फ आर्थिक नहीं, एक कूटनीतिक क्रांति है। अमेरिका-चीन टैरिफ वॉर ने ग्लोबल सप्लाई चेन में जो उथल-पुथल मचाई है, उसका फायदा अब भारत चतुराई से उठा रहा है। और इस बार भारत केवल ‘विकासशील देश’ नहीं, बल्कि एक ‘निर्धारित रणनीतिकार’ की भूमिका में है। China का भारत के सामने झुकना केवल व्यापारिक विवशता नहीं, बल्कि उसकी उस नीति की हार है, जिसमें वह हमेशा दूसरे देशों को अपने शर्तों पर खेलने को मजबूर करता रहा है।
भारत की इन शर्तों में सबसे बड़ी बात है टेक्नोलॉजी ट्रांसफर। यानी अगर China कंपनियां भारत में Investment करना चाहती हैं तो उन्हें अपने टेक्नोलॉजिकल राज़ साझा करने होंगे। यह शर्त न केवल China के लिए चुभने वाली है, बल्कि भारत की मैन्युफैक्चरिंग शक्ति को एक नई ऊर्जा भी दे सकती है। साथ ही यह सुनिश्चित करता है कि भारत महज़ एक बाज़ार नहीं, बल्कि टेक्नोलॉजी का केंद्र भी बने।
इतना ही नहीं, भारत ने China कंपनियों को सिर्फ 10 फीसदी हिस्सेदारी देने की नीति अपनाकर यह भी दिखा दिया है कि, अब वह अपने किसी भी सेक्टर में बहुसंख्यक विदेशी नियंत्रण को स्वीकार नहीं करेगा। विशेष रूप से उन सेक्टर्स में जहां रणनीतिक संप्रभुता की बात हो, जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स, सोलर उपकरण या ड्रिलिंग मशीनें। यह रुख केवल सुरक्षा का सवाल नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर भारत की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है।
सरकार के सूत्रों की मानें तो यह फैसला ऐसे समय पर आया है जब अमेरिका और यूरोप की कई टेक कंपनियां, चीन छोड़कर भारत आने का विकल्प तलाश रही हैं। भारत की रणनीति बिल्कुल स्पष्ट है—अगर आप चीन से भारत में यूनिट ट्रांसफर करना चाहते हैं तो आपको हमारे नियमों से समझौता करना होगा। कुछ मामलों में सरकार 49 फीसदी तक हिस्सेदारी को मंजूरी दे सकती है, लेकिन यह अपवाद होगा, सामान्य नियम नहीं।
अब सवाल उठता है कि यह सख्ती क्यों की जा रही है? इसका जवाब छिपा है भारत के उस डर में जो 2020 की गलवान घाटी की घटना के बाद उभरा। भारत ने देखा कि सिर्फ सीमाओं पर नहीं, चीन टेक्नोलॉजी और सप्लाई चेन के ज़रिए भी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करता है। ड्रिलिंग मशीनों, सोलर पैनल इक्विपमेंट और इलेक्ट्रॉनिक्स सप्लाई में चीन की निर्भरता इतनी अधिक है कि अगर वह चाहे तो भारत की प्रगति को रोक सकता है। और अब भारत इस स्थिति को जड़ से खत्म करना चाहता है।
भारत नहीं चाहता कि वह वियतनाम जैसी स्थिति में फंस जाए, जहां चीन ने पूरा इलेक्ट्रॉनिक्स इकोसिस्टम खड़ा कर दिया है और अब उस देश में भी उसकी परछाई मौजूद है। यही वजह है कि भारत अब चीनी Investment को व्यापक स्तर पर नहीं, बल्कि अत्यंत नियंत्रित और रणनीतिक आधार पर ही मंजूरी देगा।
भारत का अगला बड़ा कदम है अमेरिकी कंपनियों को अपने देश में स्थापित करना और भारत से अमेरिका के बाज़ार तक पहुंच बनाना। इसके लिए दोनों देशों के बीच बाइलेटरल ट्रेड एग्रीमेंट यानी BTA पर इस साल के अंत तक हस्ताक्षर होने की उम्मीद है। इस एग्रीमेंट से भारत को अमेरिकी बाजार में न केवल टैक्स लाभ मिल सकता है बल्कि जियोपॉलिटिकल मजबूती भी हासिल हो सकती है।
Apple इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है। शुरुआत में यह माना जा रहा था कि Apple भारत में मैन्युफैक्चरिंग के लिए अपने चीनी सप्लायर्स को साथ लाएगा, लेकिन Apple ने एक बड़ा फैसला लिया—भारत में ताइवानी और जापानी सप्लायर्स के साथ टाई-अप किया, और एक मजबूत लोकल सप्लाई चेन खड़ी की। यह फैसला केवल भारत को तकनीकी रूप से समृद्ध करने वाला नहीं था, बल्कि China के लिए एक जबरदस्त झटका भी था।
टाटा इलेक्ट्रॉनिक्स ने Apple के लिए iPhone एनक्लोजर बनाना शुरू कर दिया है, और अब Apple की अधिकांश डिवाइसेज़—iPad को छोड़कर—स्थानीय रूप से बनाए जा रहे हैं और एक्सपोर्ट भी किए जा रहे हैं। यह न केवल भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के लिए गर्व की बात है, बल्कि इस बात का संकेत भी है कि भारत अब Global सप्लाई चेन में एक मजबूत दावेदार बन चुका है।
Apple जैसे ग्लोबल ब्रांड ने मदरसन ग्रुप, जैबिल, एक्वस, सनवोडा, फॉक्सलिंक, सैलकॉम्प और भारत फोर्ज जैसे भारतीय सप्लायर्स को अपने नेटवर्क में शामिल कर लिया है। इससे ये स्पष्ट हो गया है कि भारत अब केवल लेबर बेस नहीं, बल्कि वैल्यू एडिशन, इनोवेशन और हाई-टेक मैन्युफैक्चरिंग का हब बन रहा है।
China के लिए यह स्थिति बेहद अपमानजनक है। एक समय था जब भारत China से हर टेक्नोलॉजी के लिए मोहताज था, लेकिन अब वह अपने ही नियम बना रहा है और चीन को मजबूरी में उन्हें मानना पड़ रहा है। यह बदलाव यूं ही नहीं आया। इसके पीछे सरकार की वर्षों की नीति, निरंतर सुधार, आत्मनिर्भर भारत जैसी पहल और Global स्थितियों का मिला-जुला परिणाम है।
अब सवाल ये है कि क्या China इस स्थिति में कोई पलटवार करेगा? जानकारों का कहना है कि China की चालाकी अभी भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। ड्रिलिंग मशीनों और इलेक्ट्रॉनिक्स कंपोनेंट्स की सप्लाई में अभी भी उसकी पकड़ बनी हुई है। ऐसे में भारत को अपनी सप्लाई चेन को और सुदृढ़ बनाना होगा और साथ ही यूरोपीय तथा जापानी टेक्नोलॉजी पर ज्यादा भरोसा करना होगा।
दूसरी ओर, भारतीय सरकार इस बात के लिए भी प्रतिबद्ध है कि वह केवल China पर फोकस न रखे, बल्कि अन्य देशों के साथ भी रणनीतिक संबंध मजबूत करे। अमेरिका के साथ BTA, जापान और कोरिया से टेक्नोलॉजी सहयोग, और यूरोपीय यूनियन से डिजिटल साझेदारी—ये सब भारत की बहुपक्षीय रणनीति का हिस्सा हैं।
इस पूरी रणनीति का उद्देश्य सिर्फ चीन से टक्कर लेना नहीं है, बल्कि भारत को उस स्थान पर लाना है जहां वह न केवल एक Global producer हो, बल्कि निर्णय लेने वाला शक्ति केंद्र भी बने। चीन की कमजोरी को देखकर भारत ने जो शर्तें रखी हैं, वो सिर्फ व्यापारिक नहीं, बल्कि रणनीतिक, सुरक्षा और संप्रभुता की दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण हैं।
आगे चलकर भारत की यही सख्ती उसे global platform पर एक बड़ी ताकत के रूप में स्थापित करेगी। चीन अब सिर्फ भारत में व्यापार की अनुमति नहीं मांग रहा, वह तकनीक देकर Investment की विनती कर रहा है। और यही संकेत है उस परिवर्तन का, जो दशकों तक ‘ड्रैगन’ से डरने वाले देशों को अब उसकी आंखों में आंखें डालकर शर्तें थमाने की ताकत दे रहा है।
Conclusion
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