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China की शांति कूटनीति? ईरान-इज़राइल जंग में एंट्री के पीछे भारत के लिए छुपा सुनहरा मौका! 2025

China

जब दो देशों के बीच युद्ध छिड़ा हो और गोलियों की आवाज़ें अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को भी हिला रही हों, तब अगर तीसरा देश अचानक एक पक्ष की तरफ झुक जाए, तो शक और साज़िश की नई कहानी शुरू हो जाती है। कुछ ऐसा ही हुआ है ईरान और इजरायल की इस भयानक लड़ाई में। दुनिया की नजरें जहां मिसाइलों और धमाकों पर टिकी थीं, वहीं चीन ने चुपचाप अपनी चाल चल दी।

उसने न सिर्फ ईरान का साथ दिया, बल्कि इस कदम के जरिए उसने भारत, अमेरिका और इजरायल तीनों को एक साथ एक इशारा दे दिया—कि अब वो सिर्फ एक दर्शक नहीं रहेगा। सवाल उठता है: क्या यह China की मजबूरी थी अपनी अर्थव्यवस्था बचाने की, या फिर भारत को मात देने का कोई बड़ा प्लान? जब दुनिया युद्ध की आग में जल रही हो, तब कूटनीति की चालें सबसे ज़हरीली होती हैं—और China की ये चाल उन्हीं में से एक है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

आपको बता दें कि 13 जून से ईरान और इजरायल के बीच चल रही लड़ाई ने global platform पर हलचल मचा दी है। इसी बीच China के टॉप डिप्लोमैट वांग यी ने तेहरान में अपने ईरानी समकक्ष से बातचीत की। चीन के विदेश मंत्रालय ने इसकी पुष्टि की और बताया कि सैयद अब्बास अराघची ने China को युद्ध की स्थिति से अवगत कराया।

इस बातचीत में अराघची ने चीन को उनके समर्थन और समझ के लिए धन्यवाद दिया, और ये भी कहा कि China क्षेत्र में शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने में बड़ी भूमिका निभा सकता है। बयान में स्पष्ट संकेत था—China अब खुलकर ईरान के पक्ष में खड़ा है। लेकिन सवाल यह भी है कि यह बातचीत केवल औपचारिकता थी या चीन की गहरी योजना का हिस्सा, जो क्षेत्रीय संतुलन को तोड़ सकती है?

China का यह रुख हैरान करने वाला नहीं, लेकिन चिंताजनक जरूर है। भारत और इजरायल के संबंध आज की तारीख में बेहद गहरे और सामरिक हैं। भारत की हथियार खरीद से लेकर साइबर डिफेंस, एग्रीटेक और सुरक्षा मामलों तक, इजरायल भारत का एक भरोसेमंद साथी बन चुका है। वहीं ईरान के साथ भारत के संबंध ऐतिहासिक तो हैं, लेकिन तनावों से भी भरे हुए।

और अब जब China ने ईरान को खुला समर्थन दिया है, वह भी उस समय जब ईरान पर आतंकवाद को बढ़ावा देने के आरोप पहले से हैं, तो साफ है कि ड्रैगन की नीति भारत के विरोध में है। यह वही China है जो पाकिस्तान को भी हर मोर्चे पर समर्थन देता है। यानी एक तरफ भारत के मित्र देशों को कमजोर करना, और दूसरी ओर दुश्मनों को मज़बूत करना—यही चीन की रणनीति का मूल है।

ईरान का समर्थन केवल राजनीतिक नहीं है—यह पूरी तरह रणनीतिक और आर्थिक है। चीन की अर्थव्यवस्था बड़ी मात्रा में ईरानी कच्चे तेल पर निर्भर है। करीब 15 प्रतिशत तेल Import China ईरान से करता है। लेकिन इससे भी बड़ा तथ्य यह है कि चीन ईरान से तेल भारी छूट पर खरीदता है। यही वजह है कि बीजिंग ईरान की मौजूदा सरकार से रिश्ते बिगाड़ने का Risk नहीं उठाना चाहता।

2021 में China और ईरान के बीच 25 साल का एक सहयोग समझौता हुआ था, जिसके तहत चीन ईरान की अर्थव्यवस्था में करीब 400 अरब डॉलर Investment करेगा। बदले में उसे रियायती दरों पर तेल मिलेगा। यह Investment न केवल ऊर्जा सुरक्षा का साधन है, बल्कि चीन की मध्य-पूर्व में रणनीतिक मौजूदगी का स्तंभ भी है।

यहां पर एक गंभीर प्रश्न उठता है—क्या इस सहयोग से मिलने वाला पैसा सिर्फ ईरानी विकास में लगेगा या फिर इसका कुछ हिस्सा उन सैन्य संगठनों को जाएगा, जिन पर दुनिया आतंकवाद फैलाने का आरोप लगाती है? इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स जैसे संगठनों को China की मदद से मजबूती मिल रही है।

China भले इसे खुलकर न कहे, लेकिन उसके आर्थिक कदम उसके इरादों की कहानी खुद-ब-खुद बयां करते हैं। यह सिर्फ तेल का सौदा नहीं, बल्कि एक सुरक्षा और सैन्य साझेदारी की नींव है। इससे क्षेत्र में अस्थिरता और बढ़ सकती है, जिसका असर भारत और उसके सहयोगियों पर सीधा पड़ेगा।

अमेरिका में स्थित गेटस्टोन इंस्टीट्यूट के सीनियर फेलो गॉर्डन चांग ने, हाल ही में सीएनएन को दिए इंटरव्यू में कहा था कि China न केवल ईरान से तेल खरीद रहा है, बल्कि हथियार भी सप्लाई कर रहा है। हमास, हिजबुल्लाह और हूती जैसे आतंकी संगठनों के पास बड़ी मात्रा में China हथियार हैं।

यही नहीं, ईरान के हथियारों में इस्तेमाल हो रहे माइक्रोचिप्स भी चीन से ही आ रहे हैं। यह सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि एक कूटनीतिक युद्ध है—जहां बंदूकें गोली चलाने से पहले रणनीति में हिस्सा बनती हैं। यह प्रमाणित करता है कि चीन की नीति अब केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सैन्य प्रभाव बढ़ाने की दिशा में भी बढ़ चुकी है।

अब यह समझना जरूरी है कि China के इस समर्थन का नुकसान सिर्फ भारत या इजरायल को नहीं, खुद China को भी हो सकता है। अगर इस युद्ध में ईरान को गंभीर नुकसान पहुंचता है, तो चीन को अपने सस्ते तेल के स्रोत में बाधा का सामना करना पड़ेगा।

अगर ईरान में सत्ता परिवर्तन होता है और नई सरकार अमेरिका की शरण में जाकर डॉलर में व्यापार करने लगती है, तो चीन को हर साल करीब 20 से 30 अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ेगा। यानी यह गठबंधन एकतरफा नहीं है—चीन की मजबूरी भी है। वह न तो ईरान से दूर जा सकता है, और न ही उसकी गलतियों से आंखें मूंद सकता है। यह रिश्ते का वह द्वंद्व है जो रणनीतिक और आर्थिक दोनों मोर्चों पर भारी पड़ सकता है।

मध्य पूर्व में China की भूमिका अब संतुलनकारी शक्ति की नहीं रह गई है। वह एक पक्ष बन चुका है। यह उसकी नीति में एक बड़ा परिवर्तन है। पहले चीन खुद को ‘नॉन-अलाइन्ड’ या ‘न्युट्रल’ बताता था। लेकिन आज वह उन संगठनों का समर्थन करता दिखता है जिन पर आतंक फैलाने के आरोप हैं। भारत के लिए यह चिंता का विषय इसलिए भी है क्योंकि एक तरफ China ब्रिक्स, एससीओ जैसे मंचों पर भारत के साथ बैठता है, दूसरी तरफ उसके दुश्मनों की मदद करता है। यह दोहरा रवैया भारत की विदेश नीति के लिए एक नई चुनौती खड़ी करता है। China की यह चाल सिर्फ दिमागी नहीं, रणनीतिक भी है—और भारत को इसका जवाब सोच-समझकर देना होगा।

इस सबके बीच भारत को अपनी विदेश नीति को और मजबूत करने की जरूरत है। China का यह व्यवहार दिखाता है कि वह अब क्षेत्रीय शक्ति से निकलकर Global प्रभाव जमाना चाहता है, लेकिन इसके लिए उसने जो रास्ता चुना है, वह टकराव से भरा है। भारत को चाहिए कि वह अपने मित्र देशों के साथ मिलकर एक मजबूत सामरिक और आर्थिक रणनीति बनाए, जिससे मध्य पूर्व में China के विस्तारवादी इरादों को रोका जा सके। यह रणनीति केवल प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि दीर्घकालीन नीति होनी चाहिए जो भारत को Global Geopolitics में और अधिक स्थिर और मजबूत बनाए।

ईरान और इजरायल के बीच बढ़ती यह लड़ाई केवल इन दो देशों की कहानी नहीं है। यह एक बड़ा शीत युद्ध है, जिसमें चीन, भारत, अमेरिका, रूस, सऊदी अरब और यूरोप सभी कहीं न कहीं अपनी चालें चल रहे हैं। ऐसे में China का ईरान की तरफ झुकना केवल तेल और व्यापार का मामला नहीं है। यह भारत की रणनीतिक ताकत को चुनौती देने की एक योजना भी हो सकती है। यह संदेश है कि अब China सीधे टकराव की नीति अपना चुका है, और भारत को इसे केवल देखा नहीं जा सकता, इसे जवाब देना होगा।

Conclusion

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