नमस्कार दोस्तों, दुनिया के सबसे ताकतवर और चमकते हुए देशों में गिने जाने वाले चीन की एक ऐसी सच्चाई सामने आई है, जो उसकी असली हालत को बेपर्दा कर देती है। जब हम चीन की बुलंद इमारतें, चौड़ी सड़कें और तेज रफ्तार ट्रेनें देखते हैं, तो लगता है कि यह देश हर मायने में एक सुपरपावर बन चुका है। लेकिन अंदर की कहानी कुछ और ही है। चीन की चमक के पीछे कर्ज का अंधकार छुपा है, और वो भी इतना गहरा कि अब देश की कमाई भी उसका बोझ नहीं उठा पा रही।
चीन का कुल कर्ज अब उसकी पूरी जीडीपी के तीन गुने से भी ज्यादा हो चुका है। सोचिए, जितना चीन सालभर में कमाता है, उससे तीन गुना ज्यादा उधार पर जिंदा है। ये आंकड़ा सिर्फ खौफनाक नहीं, बल्कि भविष्य की एक बड़ी चेतावनी है—न सिर्फ चीन के लिए, बल्कि उन देशों के लिए भी जो उसी राह पर हैं। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
चीन के सेंट्रल बैंक यानी पीपल्स बैंक ऑफ चाइना के डिप्टी गवर्नर शुआन चांगनेंग ने खुद यह खुलासा किया है कि, चीन का मैक्रो लिवरेज रेशियो 300% से ऊपर पहुंच गया है। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार, कंपनियां और आम लोग—तीनों ही मिलकर जितना कमाते हैं, उससे तीन गुना ज्यादा कर्ज के बोझ तले दबे हैं। इसके बावजूद सरकार की नीति अब भी वही पुरानी है—ब्याज दरें कम करो, पैसा छापो और बाजार में झोंक दो। सरकार मानती है कि ढीली monetary policy अपनाकर अर्थव्यवस्था को सपोर्ट किया जा सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कर्ज पर कर्ज चढ़ाकर कोई देश वाकई मजबूत बन सकता है?
चीन में एम 2 यानी मनी सप्लाई भी अब जीडीपी के 200 फीसदी से ज्यादा हो चुकी है। इसका मतलब है कि बाजार में जितना पैसा घूम रहा है, वह देश की कमाई से दोगुना है। यह नकदी अस्थिरता और महंगाई दोनों को जन्म दे सकती है। experts का मानना है कि अमेरिका के टैरिफ प्रेशर के चलते चीन को ढीली नीति अपनानी ही पड़ेगी, ताकि उसका Export बना रहे और घरेलू बाज़ार भी गतिशील रह सके। लेकिन इस नीति का साइड इफेक्ट यह है कि देश लगातार अपने संसाधनों को गिरवी रख रहा है।
चीन की सरकार अपने बढ़ते हुए कर्ज को आर्थिक विकास की मजबूरी बता रही है। उनका कहना है कि अगर हमें तेज़ी से आगे बढ़ना है तो हमें सड़कें, पुल, इमारतें और कारखाने बनाते रहना होगा, जिसके लिए Investment चाहिए और Investment के लिए कर्ज लेना पड़ेगा। शुआन चांगनेंग का कहना है कि सेंट्रल बैंक सही समय पर ब्याज दरें और रिजर्व रेश्यो घटाकर बाजार में पैसा डालेगा। लेकिन उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि मौजूदा Global माहौल में हालात काफी अनिश्चित हो गए हैं—कभी Geopolitical crisis, कभी फाइनेंशियल मार्केट का उतार-चढ़ाव और कभी Globalization में गिरावट। ये सब मिलकर चीन के लिए हालात को और कठिन बना रहे हैं।
अब सवाल उठता है—अगर चीन की हालत इतनी खराब है, तो भारत की स्थिति क्या है? क्या भारत भी उसी राह पर बढ़ रहा है, या उसने कुछ सबक लिए हैं? आंकड़ों पर नजर डालें तो भारत की स्थिति चीन के मुकाबले कहीं ज्यादा संतुलित नजर आती है। भारत की जीडीपी 2025 तक 4.1 ट्रिलियन डॉलर पहुंचने की उम्मीद है, जो 2023 के 3.4 ट्रिलियन डॉलर से 6 से 7 फीसदी की सालाना वृद्धि को दर्शाता है। इसके मुकाबले चीन की जीडीपी लगभग 19.7 ट्रिलियन डॉलर होगी, लेकिन उसका कुल कर्ज 59 ट्रिलियन डॉलर है—यानी जीडीपी के तीन गुने से भी ज्यादा। भारत का कर्ज अभी लगभग 7.4 ट्रिलियन डॉलर है, जो उसकी जीडीपी का 180% है।
भारत की आर्थिक नीति अभी भी संयमित और संतुलित नजर आती है। भारत धीरे-धीरे ग्रोथ कर रहा है, लेकिन वित्तीय स्थिरता को प्राथमिकता देता है। भारत सरकार ज्यादा कर्ज लेकर विकास की जगह चरणबद्ध तरीके से Investment और विस्तार कर रही है। यही वजह है कि भारत की इकोनॉमी फिलहाल एक स्थिर और भरोसेमंद स्थिति में है। बिजनेस टुडे की रिपोर्ट बताती है कि भारत पर कुल कर्ज उसकी जीडीपी का लगभग 85 प्रतिशत है, जबकि चीन पर यह 88 प्रतिशत है। लेकिन जब सरकार, कंपनियों और लोगों के कुल कर्ज को मिला दिया जाए, तब चीन की स्थिति भारत से काफी खराब हो जाती है।
भारत और चीन की आर्थिक नीतियों में सबसे बड़ा फर्क यह है कि चीन आक्रामक तरीके से कर्ज लेकर विकास करना चाहता है, जबकि भारत इस मामले में सतर्कता और संतुलन बरतता है। चीन मानता है कि उसे अपनी अर्थव्यवस्था को सुपरफास्ट स्पीड से चलाना है, इसलिए वो Investment पर Investment करता जा रहा है, चाहे इसके लिए कितना भी कर्ज क्यों न लेना पड़े। वहीं भारत जानता है कि आर्थिक स्थिरता के बिना विकास ज्यादा दिन टिक नहीं सकता। इसलिए भारत ने अपना कर्ज नियंत्रित रखा है और अपने बजट घाटे को भी सीमा में बनाए रखा है।
जहां तक foreign currency reserves की बात है, चीन के पास 3 ट्रिलियन डॉलर का रिजर्व है, जो उसकी बड़ी ताकत है। भारत के पास 600 बिलियन डॉलर का foreign currency reserves है, जो चीन के मुकाबले काफी कम है, लेकिन भारत की ज़रूरतों के हिसाब से यह पर्याप्त है। चीन के लिए ज्यादा विदेशी भंडार एक बफर की तरह काम कर सकता है, लेकिन साथ ही साथ यह भी दिखाता है कि उसकी अर्थव्यवस्था पर Global imbalances कितना हावी है। भारत के पास उतना भंडार नहीं है, लेकिन उसका इस्तेमाल भी संतुलित रूप से हो रहा है।
एक और फर्क यह है कि भारत की घरेलू मांग चीन के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत हो रही है। भारत की युवा आबादी, स्टार्टअप इकोसिस्टम और डिजिटल विस्तार उसे भविष्य की एक बड़ी ताकत बना रहे हैं। वहीं चीन की जनसंख्या वृद्ध हो रही है, और उसकी घरेलू मांग में भी गिरावट आ रही है। इसका असर भी दोनों देशों की आर्थिक स्थिरता पर पड़ता है। भारत अपने घरेलू संसाधनों और इनोवेशन पर ज्यादा निर्भर कर रहा है, जबकि चीन अभी भी भारी Investment और इन्फ्रास्ट्रक्चर के दम पर ग्रोथ की कोशिश कर रहा है।
इन सभी तथ्यों को देखकर यह कहा जा सकता है कि चीन आज जिस आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहा है, भारत ने उससे खुद को फिलहाल बचा कर रखा है। लेकिन यह राहत स्थायी नहीं है। भारत को भी आगे चलकर अपने कर्ज को लेकर सतर्क रहना होगा। अगर हम बिना सोचे समझे कर्ज लेते गए, तो हम भी उसी राह पर जा सकते हैं जिस पर आज चीन फंसा है।
इसलिए जरूरी है कि भारत अपनी आर्थिक नीतियों में संतुलन बनाए रखे, सामाजिक योजनाओं पर ध्यान दे, रोजगार पैदा करे और घरेलू मांग को बढ़ावा दे। इससे न सिर्फ अर्थव्यवस्था मजबूत होगी, बल्कि देश को Global instability से बचाकर एक आत्मनिर्भर रास्ता भी मिलेगा। चीन की हालत हमें यह सिखाती है कि विकास की रफ्तार से ज्यादा जरूरी है उसकी दिशा। कर्ज में डूब कर बनाई गई चमक शायद एक दिन धूल में बदल जाए, लेकिन स्थिर और संतुलित विकास देश को सच में मजबूत बनाता है।
Conclusion
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