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BRICS बना भारत का ब्रह्मास्त्र: ट्रंप की धमकी भी नहीं रोक सकी रूस-चीन-भारत की तिकड़ी! 2025

BRICS

सोचिए अगर भारत, रूस और चीन एक साथ आ जाएं… नाटो के खिलाफ नहीं, लेकिन डॉलर के खिलाफ। अगर ये तीनों देश मिलकर तय कर लें कि अब अमेरिकी मुद्रा पर नहीं, अपनी-अपनी करेंसी पर व्यापार होगा। अगर ऐसा हुआ, तो क्या होगा? और अगर मैं कहूं कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इन देशों को ऐसा करने के लिए खुद ही मजबूर कर दिया है? क्या यह महज़ एक संयोग है, या इतिहास अपने सबसे बड़े मोड़ पर खड़ा है? आज हम बात करेंगे एक ऐसी धमकी की जो खुद अमेरिका के लिए आर्थिक बुमरेंग बन सकती है… और भारत के लिए एक सुनहरा अवसर।

डोनाल्ड ट्रंप का नाम आते ही दो बातें ज़रूर याद आती हैं—आक्रामकता और अविश्वसनीय निर्णय। और अब उन्होंने एक बार फिर कुछ ऐसा किया है जिससे पूरी दुनिया में भूचाल आ गया है। ट्रंप ने BRICS समूह के उन देशों को 10% अतिरिक्त टैरिफ लगाने की चेतावनी दी है, जो अमेरिका-विरोधी नीतियों को समर्थन देते हैं। यानी साफ-साफ भारत, रूस और चीन को निशाना बनाया गया है। इस धमकी के पीछे की वजह सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि BRICS का वो मिशन है जो डॉलर की बादशाहत को चुनौती दे रहा है।

अब ज़रा सोचिए… जब कोई देश पूरी दुनिया को अपनी मुद्रा में व्यापार करने के लिए मजबूर करता है और फिर टैरिफ की तलवार लहराता है, तो क्या बाकी देश खामोश बैठे रहेंगे? BRICS समूह—यानि ब्राज़ील, रूस, इंडिया, चीन और साउथ अफ्रीका—अब सिर्फ नाम का समूह नहीं रह गया है। यह अब एक वैकल्पिक वैश्विक व्यवस्था का प्रतीक बन गया है। खासकर जब रूस और चीन मिलकर De-Dollarisation को आगे बढ़ा रहे हैं। भारत इस प्रक्रिया में बीच का रास्ता खोजने की कोशिश कर रहा है, लेकिन ट्रंप की धमकी ने उस रास्ते को भी चुनौती में बदल दिया है।

भारत और रूस का रिश्ता नया नहीं है। यह संबंध दशकों पुराना है और परीक्षणों की कसौटी पर खरा उतरा है। Defense, Energy, Technology—हर क्षेत्र में भारत ने रूस पर भरोसा किया है। जब पूरी दुनिया रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर दो हिस्सों में बंट गई, तब भी भारत ने संतुलन साधा। उसने पश्चिम की आलोचनाओं के बावजूद सस्ता तेल रूस से खरीदा—क्योंकि भारत अपने हितों से समझौता नहीं करता। और अब जब रूस BRICS के माध्यम से डॉलर के विकल्प को स्थापित करने में लगा है, तो भारत को दो रास्तों में से एक चुनना होगा—या तो वह अमेरिका के Protectionism की ओर झुके या रूस और BRICS की ओर।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। असली ट्विस्ट तब आता है जब चीन भी इस टोली में पूरी ताकत से शामिल हो जाता है। भारत और चीन के संबंध कभी आसान नहीं रहे। सीमा विवाद, व्यापार घाटा, रणनीतिक अविश्वास—इन सबके बावजूद, दोनों BRICS का हिस्सा हैं। और जब ट्रंप टैरिफ की तलवार उठाते हैं, तो यह तलवार सिर्फ एक देश पर नहीं, पूरे क्षेत्रीय संतुलन पर असर डालती है। चीन ने इस मुद्दे पर सीधा बयान देते हुए कहा है कि BRICS किसी के खिलाफ नहीं है और टैरिफ को ज़बरदस्ती का औज़ार नहीं बनना चाहिए।

अब अगर भारत और चीन—अपने तमाम मतभेदों के बावजूद—ट्रंप की टैरिफ नीति के खिलाफ एकजुट होते हैं, तो यह अमेरिका के लिए एक नई चुनौती होगी। क्या अमेरिका वाकई यह चाहता है कि भारत और चीन एक-दूसरे के करीब आएं? क्या वो जानबूझकर अपने व्यापारिक दुश्मनों की दोस्ती को बढ़ावा दे रहा है? यह सवाल अब व्हाइट हाउस के गलियारों से लेकर दिल्ली, मॉस्को और बीजिंग तक गूंज रहा है।

BRICS का असली मकसद है Multipolar global order को स्थापित करना। यानी एक ऐसा सिस्टम जिसमें सिर्फ एक देश या एक मुद्रा की बादशाहत न हो। ट्रंप का ‘नो एक्सेप्शन’ वाला फरमान सीधे इसी विचारधारा पर हमला करता है। लेकिन जैसे-जैसे अमेरिका टैरिफ लगाता है, वैसे-वैसे बाकी देश एक साथ आने लगते हैं। यह एक तरह से अमेरिका की उस रणनीति का उल्टा असर है जिसे उसने खुद लागू किया।

चीन के विदेश मंत्रालय ने बिल्कुल सही कहा है—ट्रेड वॉर में कोई जीतता नहीं। अगर अमेरिका भारत और चीन पर अतिरिक्त टैक्स लगाता है, तो जवाबी कार्रवाई तय है। भारत और चीन खुद भी इतने बड़े बाजार हैं कि वे अमेरिका के विकल्प खोज सकते हैं। और अगर ये दोनों देश आपसी मतभेद भुलाकर व्यापारिक सहयोग बढ़ाएं, तो पूरी Global supply chain का नक्शा बदल सकता है। इसका असर सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं रहेगा—बल्कि यूरोप, एशिया, अफ्रीका, और लैटिन अमेरिका तक गूंजेगा।

भारत के सामने अब एक बड़ा अवसर है। एक ओर उसका पारंपरिक मित्र रूस है, जो भरोसेमंद भी है और वर्तमान में भी साथ दे रहा है। दूसरी ओर चीन है—जिससे मतभेद तो हैं, लेकिन कारोबारी संभावनाएं भी अनगिनत हैं। और तीसरी ओर अमेरिका है, जो कभी साझेदार बनता है, कभी धमकी देता है। ऐसे में भारत को अब अपनी विदेश नीति और आर्थिक कूटनीति को एक नई दिशा देनी होगी—एक ऐसी दिशा, जो उसे किसी के प्रभाव में नहीं, बल्कि स्वतंत्र सोच और बहुपक्षीय सहयोग के मार्ग पर ले जाए।

भारत एक ऐसा देश है जिसने हर वैश्विक मंच पर अपनी भूमिका को संतुलित रखा है। चाहे वह G20 हो, BRICS हो, या U N—भारत ने कभी भी किसी एक ध्रुव पर पूरी तरह आश्रित नहीं रहना चुना। ट्रंप की टैरिफ धमकी भारत के इस संतुलन को चुनौती जरूर देती है, लेकिन साथ ही भारत को यह सोचने का अवसर भी देती है कि, क्या अब समय आ गया है एक नए वैश्विक आर्थिक ब्लॉक का नेतृत्व करने का।

भारत अब सिर्फ एक उभरती अर्थव्यवस्था नहीं है, यह एक वैश्विक आर्थिक और रणनीतिक शक्ति बन चुका है। उसकी ऊर्जा ज़रूरतें, उसके स्टार्टअप्स, उसकी तकनीक, उसकी जनसंख्या—ये सब मिलकर भारत को एक ऐसी स्थिति में ला चुके हैं जहां वह ग्लोबल पावर गेम का निर्णायक खिलाड़ी बन सकता है। और ऐसे में, ब्रिक्स जैसे मंच भारत के लिए सिर्फ एक क्लब नहीं, बल्कि नेतृत्व का मंच बन सकते हैं।

ट्रंप की धमकी का असर अमेरिका पर ही भारी पड़ सकता है। अमेरिकी उपभोक्ता जो पहले ही महंगाई की मार झेल रहे हैं, उन्हें अब विदेशी सामानों के लिए और ज्यादा पैसे देने पड़ सकते हैं। अमेरिकी कंपनियों को भारत और चीन जैसे बड़े बाजारों तक पहुंच में कठिनाई होगी। और अगर जवाबी टैरिफ लगे, तो अमेरिका का Export गिर सकता है, बेरोजगारी बढ़ सकती है, और अंततः ट्रंप की खुद की अर्थव्यवस्था पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

भारत के पास अब विकल्प है—या तो वह ट्रंप के दबाव में आकर अपने पारंपरिक संबंधों को कमजोर करे… या फिर एक नई वैश्विक भूमिका निभाए, जिसमें वह न किसी का पिछलग्गू हो, न विरोधी। BRICS के ज़रिए भारत अगर अपनी करेंसी, अपनी टेक्नोलॉजी, और अपने बाजार के दम पर एक स्वतंत्र और स्थिर व्यापारिक संरचना खड़ी करता है, तो यह अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया को एक वैकल्पिक रास्ता दिखा सकता है।

इस कहानी का सबसे बड़ा संदेश यही है—दबाव जब हद से बढ़ता है, तो वह शक्ति को जन्म देता है। और ट्रंप का यह दबाव भारत को एक वैश्विक शक्ति बनने की दिशा में धकेल सकता है। जहां हर देश सिर्फ अपने फायदे के बारे में सोचता है, भारत वहां संतुलन, सहमति और साझेदारी की मिसाल बन सकता है।

अब दुनिया भारत की तरफ देख रही है—कि क्या वह अमेरिका की धमकी से झुकेगा, या रूस-चीन के साथ खड़ा होकर एक नई व्यवस्था की नींव रखेगा। और यही वह मोड़ है जहां इतिहास बनता है।

Conclusion

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