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भारत ने ट्रंप को क्यों कहा NO? ‘Zero for Zero’ डील से जुड़ी पूरी कहानी और इसके सकारात्मक प्रभाव! 2025

Zero for Zero

क्या आपने कभी सोचा है कि कोई डील, जो सुनने में पूरी तरह फेयर लगे—असल में सिर्फ एक देश के लिए फायदेमंद हो सकती है? क्या आपने कभी गौर किया है कि जब शक्तिशाली देश “बराबरी” की बात करते हैं, तो उनका मतलब सिर्फ अपनी शर्तों की स्वीकार्यता होता है?

आज हम बात कर रहे हैं एक ऐसे व्यापार समझौते की, जो अमेरिका और भारत के बीच हो सकता था। लेकिन भारत ने ट्रंप के ‘Zero for zero’ टैरिफ मॉडल को सीधे शब्दों में खारिज कर दिया। इस फैसले के पीछे सिर्फ व्यापारिक गणित नहीं, बल्कि रणनीतिक सोच, देश की आर्थिक हकीकत और global pressures से लड़ने का संकल्प छुपा है। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

अमेरिका हमेशा से अपने व्यापारिक रिश्तों को “बिजनेस डील” की तरह देखता रहा है। डोनाल्ड ट्रंप के वापस सत्ता में आने के बाद इस अप्रोच को और भी ज़्यादा आक्रामक तरीके से अपनाया गया। ‘रेसिप्रोकल टैरिफ’, ‘अमेरिका फर्स्ट’, ‘डोमिनेट द डील’—ये शब्द सिर्फ बयान नहीं, बल्कि उनके ट्रेड नेगोशिएशन की नीति के मूल में हैं। ऐसे में जब भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार समझौते की बातचीत मार्च 2025 से शुरू हुई, तो अमेरिका ने भी वही रणनीति अपनाई, जो वह यूरोप या जापान के साथ करता है—‘Zero for zero’ टैरिफ मॉडल।

‘Zero for zero’ का सीधा मतलब है—आप हमारे Products पर टैरिफ खत्म करें, हम आपके पर कर देंगे। ये सोचने में बहुत आसान लगता है, लेकिन असल में यह मॉडल तभी काम करता है जब दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं लगभग एक जैसी हों। लेकिन भारत और अमेरिका के बीच जो आर्थिक असमानता है, वो इतनी ज्यादा है कि इस मॉडल को अपनाना भारत के लिए आत्मघाती हो सकता था।

सरकारी अधिकारियों ने साफ किया कि भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह मॉडल व्यावहारिक नहीं है। यही वजह है कि भारत ने इस सुझाव को नकारते हुए एक व्यापक और संतुलित पैकेज डील की मांग रखी।

भारत ने इस प्रस्ताव को केवल इसलिए नहीं नकारा कि वह अमेरिका से डरता है, बल्कि इसलिए क्योंकि वह अब global level पर अपनी स्थिति को समझ चुका है। भारत जानता है कि उसकी अर्थव्यवस्था मैन्युफैक्चरिंग और लेबर-इंटेंसिव सेक्टर्स पर निर्भर है। यदि भारत अचानक ‘Zero for zero’ मॉडल को मान लेता, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान देश के छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योगों को होता। ये वही सेक्टर्स हैं जो करोड़ों लोगों को रोजगार देते हैं—जैसे कपड़ा उद्योग, चमड़ा उद्योग, गारमेंट, ज्वेलरी, कृषि और प्लास्टिक सेक्टर।

इसलिए भारत की सोच थी कि एक ऐसा समझौता बने जो एक तरफ वस्तुओं के व्यापार को बढ़ावा दे, तो दूसरी ओर सर्विस सेक्टर को भी बराबरी से सामने लाए। साथ ही, टैरिफ के अलावा नॉन-टैरिफ बैरियर्स यानी ऐसी रुकावटें भी हटाई जाएं जो Products के Import-Export में परेशानी खड़ी करती हैं। इसके लिए भारत और अमेरिका अब एक “कॉम्प्रिहेंसिव पैकेज डील” की ओर बढ़ रहे हैं, जिसमें दोनों देशों की प्राथमिकताओं को शामिल किया जाएगा—ना कि सिर्फ एक की शर्तों पर काम होगा।

इस डील के पीछे का विज़न केवल व्यापार को बढ़ाना नहीं, बल्कि भविष्य की Global Economic Structure को तैयार करना है। फिलहाल भारत और अमेरिका के बीच करीब 191 अरब डॉलर का व्यापार होता है। लेकिन दोनों देशों का लक्ष्य है कि इसे 2030 तक 500 अरब डॉलर तक पहुंचाया जाए। ये कोई मामूली आकड़ा नहीं है, बल्कि एक ऐसी आर्थिक साझेदारी की नींव है जो दोनों देशों को चीन जैसे प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले में मजबूत बनाएगी।

अगर अमेरिका की डिमांड की बात करें तो वह चाहता है कि भारत अपने यहां इलेक्ट्रिक वाहनों, शराब (खासकर वाइन), पेट्रोकेमिकल्स, डेयरी और फलों—जैसे सेब, नट्स और अल्फाल्फा पर टैरिफ कम करे। वहीं भारत की प्राथमिकता अलग है। वह चाहता है कि अमेरिका टेक्सटाइल, गारमेंट्स, रत्न और आभूषण, प्लास्टिक, लेदर और फार्मा प्रोडक्ट्स जैसे लेबर-इंटेंसिव क्षेत्रों में रियायत दे। भारत यह भी चाहता है कि अमेरिका H-1B वीजा जैसे मुद्दों पर सहयोग करे, जिससे भारतीय आईटी प्रोफेशनल्स को वहां काम करने में आसानी हो।

अब सवाल ये उठता है कि भारत की स्थिति क्या इतनी मजबूत है कि वह अमेरिका जैसी महाशक्ति को मना कर सके? जवाब है—हां। भारत अब दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और अमेरिका पिछले तीन सालों से उसका सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर बन चुका है। 2024 में भारत ने अमेरिका के साथ 35 अरब डॉलर का ट्रेड सरप्लस दर्ज किया, यानी भारत का Export वहां के Import से कहीं ज़्यादा रहा।

भारत के टॉप एक्सपोर्ट्स में दवाइयां (8.1 बिलियन डॉलर), टेलीकॉम उपकरण (6.5 बिलियन डॉलर), कीमती रत्न (5.3 बिलियन डॉलर) और पेट्रोलियम उत्पाद (4.1 बिलियन डॉलर) शामिल रहे। वहीं, भारत ने अमेरिका से जो Import किया उसमें कच्चा तेल, पेट्रोलियम, कोयला और एयरोस्पेस पार्ट्स जैसे उच्च तकनीकी प्रोडक्ट्स शामिल थे। इस व्यापार संतुलन ने भारत को इस बातचीत में एक मजबूत स्थिति में ला खड़ा किया है।

सरकारी अधिकारियों का कहना है कि भारत पहले से ही व्यापार समझौतों पर बातचीत में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। न सिर्फ अमेरिका, बल्कि UAE, ऑस्ट्रेलिया, U K और E U के साथ भी भारत ने रणनीतिक साझेदारी के तहत व्यापारिक ढांचे तैयार किए हैं। यही अनुभव अब भारत को ट्रंप के साथ बातचीत में फायदा दे रहा है। भारत केवल टैरिफ की बात नहीं कर रहा, वह लॉन्ग टर्म स्ट्रैटजिक एंगेजमेंट चाहता है।

कुछ experts का मानना है कि अगर भारत अमेरिका के जवाबी टैरिफ से खुद को बचाना चाहता है, तो उसे अपनी घरेलू तैयारियों पर और ध्यान देना होगा। उसे अपनी लॉजिस्टिक्स, मैन्युफैक्चरिंग कैपेसिटी और नीति ढांचे को ग्लोबल स्टैंडर्ड पर लाना होगा। भारत इस दिशा में काम भी कर रहा है—PLI (Production Linked Incentives), Gati Shakti योजना, और ‘मेक इन इंडिया’ जैसे अभियानों से।

अगले कुछ महीनों में भारत और अमेरिका क्षेत्रीय स्तर पर सेक्टर वाइज चर्चाएं करने वाले हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स, कृषि, फार्मा, सर्विसेस और टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में experts और सरकारी प्रतिनिधियों की टीमें आमने-सामने बैठेंगी। इन चर्चाओं में सिर्फ टैरिफ पर नहीं, बल्कि गुणवत्ता मानकों, पैकेजिंग नियमों, एक्सपोर्ट इंसेंटिव्स और ट्रेड बारियर जैसे मुद्दों पर गहराई से मंथन होगा।

इस बातचीत का पहला चरण सितंबर-अक्टूबर तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। इसके बाद द्विपक्षीय स्तर पर एक मसौदा तैयार किया जाएगा, जिसे 2026 की शुरुआत तक अंतिम रूप देने की योजना है। यह समझौता केवल व्यापारिक नहीं, बल्कि कूटनीतिक दृष्टिकोण से भी बेहद महत्वपूर्ण होगा। यह दिखाएगा कि भारत अब केवल उभरती हुई अर्थव्यवस्था नहीं, बल्कि रणनीतिक रूप से स्वतंत्र और मजबूत Global साझेदार बन चुका है।

अब जो असली परीक्षा है, वो इस बात की होगी कि क्या भारत अपने हितों को बचाते हुए अमेरिका से समानता के आधार पर समझौता कर सकता है। क्या यह डील दोनों देशों के लिए “विन-विन” होगी या फिर एक बार फिर अमेरिका की शर्तें हावी होंगी? फिलहाल भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह न तो दबाव में काम करेगा, न ही जल्दबाज़ी में समझौता करेगा। तो अगली बार जब कोई कहे कि भारत ने एक ‘फेयर डील’ ठुकरा दी, तो उन्हें बताइए कि हर बराबरी की बात असली बराबरी नहीं होती। कभी-कभी ‘ना’ कहना ही सबसे बड़ा राष्ट्रहित होता है।

Conclusion:-

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