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Sanjeev Sanyal की दूरदृष्टि: भारत के बूढ़े होने से पहले बदलनी होगी नीति, वरना देर हो जाएगी! 2025

Sanjeev Sanyal

रात के गहरे सन्नाटे में जब सब कुछ सामान्य लग रहा होता है, तब कुछ सच्चाइयाँ ऐसी होती हैं जो धीमे-धीमे हमारे भविष्य की नींव को खोखला कर रही होती हैं। और जब कोई Economist यह कहता है कि हम अपने सबसे बड़े Demographics लाभ को लेकर खुद को बेवकूफ बना रहे हैं—तो यह केवल चेतावनी नहीं होती, यह एक देश के विकास की दिशा को हिला देने वाली बात होती है।

Sanjeev Sanyal, जो भारत सरकार के एक वरिष्ठ आर्थिक सलाहकार हैं, उन्होंने हाल ही में एक पॉडकास्ट में जो कहा, वह केवल एक व्यक्तिगत राय नहीं, बल्कि एक ऐसी वास्तविकता है जिसे हमने अब तक नज़रअंदाज़ किया है। उनका कहना है कि भारत अब दुनिया का सबसे युवा देश नहीं है, और यह बात हमें जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना ही बेहतर है। हम जिस सोच में डूबे हैं, वह महज एक भ्रम बनती जा रही है, और इस भ्रम को अगर समय रहते नहीं तोड़ा गया, तो उसका मूल्य हमारी आने वाली पीढ़ियां चुकाएंगी। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।

हम सालों से यह सुनते आ रहे हैं कि भारत दुनिया का सबसे युवा देश है—हमारी औसत उम्र कम है, हमारे पास सबसे ज्यादा युवा जनसंख्या है, और यही हमें आर्थिक महाशक्ति बना देगा। यह कथन हमारे राजनीतिक भाषणों, विकास योजनाओं और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गर्व से दोहराया जाता है। लेकिन क्या यह सच है? सान्याल कहते हैं नहीं। अफ्रीका के कई देश, पाकिस्तान, यहां तक कि फिलीपींस भी हमसे अधिक युवा हैं।

पश्चिमी देशों या जापान जैसे विकसित देशों से हम निश्चित रूप से युवा हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम हमेशा ऐसे ही रहेंगे। भारत की जनसंख्या भी धीरे-धीरे उम्रदराज होती जा रही है, और यह परिवर्तन अब केवल आंकड़ों में नहीं, ज़मीनी हकीकत में भी दिखने लगा है। यदि हमने अब भी इसे नज़रअंदाज़ किया, तो आने वाले वर्षों में यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाएगी।

सान्याल बताते हैं कि भारत की कुल प्रजनन दर यानी टोटल फर्टिलिटी रेट अब गिरकर 1.9 पर पहुंच चुकी है। यह संख्या चिंताजनक है, क्योंकि एक स्थिर जनसंख्या के लिए यह दर कम से कम 2.1 होनी चाहिए। देश के कई हिस्सों, खासकर दक्षिण भारत और पश्चिम बंगाल में यह दर 1.6 या उससे भी कम है।

शहरी बंगाल में तो यह 1.2 तक जा पहुंची है, जो कि विलुप्ति की ओर ले जाने वाली स्थिति मानी जाती है। इस दर का अर्थ है कि अगली पीढ़ी में लोग खुद की जनसंख्या को भी रिप्लेस नहीं कर पा रहे हैं। यह केवल एक आंकड़ा नहीं, बल्कि उस सामाजिक संरचना की गिरावट का संकेत है, जो एक देश को जीवन शक्ति प्रदान करती है।

उन्होंने कहा कि बंगाली भद्रलोक—एक विशिष्ट शहरी, पढ़े-लिखे वर्ग—अब विलुप्त होने की कगार पर हैं। और इसका कारण सिर्फ पलायन नहीं, बल्कि खुद उनकी जन्म दर भी है। कोलकाता जैसे शहरों से लोग दूसरे राज्यों और विदेशों में जा रहे हैं, लेकिन उनके पीछे नई पीढ़ी नहीं आ रही। यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक संकट है, जिसमें परंपरा और भविष्य दोनों का संतुलन बिगड़ रहा है।

यही हाल केरल में भी देखा जा सकता है। त्रिशूर जैसे शहर, जो कभी केरल की Intellectual और Financial राजधानी हुआ करते थे, आज वहां के घर खाली हो रहे हैं। उन बंगलों में अब केवल बुज़ुर्ग दादा-दादी रह गए हैं, जिनके बच्चे या तो खाड़ी देशों में हैं या पश्चिमी देशों में बस गए हैं। इस तस्वीर को देखना भावनात्मक रूप से भी पीड़ादायक है, और नीति के स्तर पर चिंताजनक भी।

इसी तरह हिमाचल प्रदेश की स्थिति भी बद से बदतर होती जा रही है। यहां स्कूल बंद हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें चलाने के लिए न्यूनतम संख्या में बच्चे नहीं हैं। यह केवल शिक्षा की नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना के टूटने की भी कहानी है। जब एक समाज में बच्चों की संख्या इतनी कम हो जाए कि विद्यालय बंद होने लगें, तो वह समाज अपनी सांस्कृतिक और मानव संसाधन की निरंतरता खो बैठता है।

यह वही हिमाचल है जिसे कभी शिक्षा और विकास का रोल मॉडल माना जाता था, और आज वही राज्य Demographics संकट के मुहाने पर खड़ा है। यदि ये संकेत समय रहते नहीं समझे गए, तो अगला दशक हमारे लिए और भी चुनौतीपूर्ण होगा।

सान्याल कहते हैं कि हम शहरों की भीड़भाड़ को जनसंख्या वृद्धि से जोड़कर देखना बंद करें। असल में भारत के शहरों में भीड़ का कारण खराब प्रबंधन है, न कि अधिक जनसंख्या। उन्होंने उदाहरण दिया दक्षिण मुंबई का—जहां पिछले 10 सालों में ट्रैफिक की स्थिति सुधरी है। न तो वहां की जनसंख्या घटी है और न ही लोग कम हुए हैं।

लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर हुआ है, सी-लिंक और ऊंची इमारतों के कारण ट्रैफिक का दबाव घटा है। इसका मतलब है कि अगर आप योजना के साथ शहरों का विकास करें, तो अधिक जनसंख्या भी संभाली जा सकती है। सिंगापुर, टोक्यो और हांगकांग जैसे शहर इसका उदाहरण हैं, जहां प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या घनत्व भारत से कहीं ज्यादा है, लेकिन जीवन की गुणवत्ता कहीं बेहतर है।

यह बहस केवल भारत की नहीं है। दुनिया के कई देश इस Demographics बदलाव से जूझ रहे हैं। जापान और दक्षिण कोरिया इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं, जहां जन्म दर इतनी गिर चुकी है कि अब उसे पलटना लगभग असंभव है। एक बार जब कोई पीढ़ी छोटे परिवारों के साथ बड़ी होती है, तो अगली पीढ़ी भी उसी ढांचे को अपनाती है।

यह एक सामाजिक व्यवहार बन जाता है, जिसे बदलना बहुत मुश्किल होता है। चीन ने जब अपनी एक बच्चे की नीति खत्म की, तब भी जन्म दर में कोई बड़ा उछाल नहीं आया। और अगर कोई असर दिखे भी, तो उसमें 25 साल लग सकते हैं। इस दौरान अर्थव्यवस्था पर और सामाजिक संरचना पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

सान्याल इस खतरे को भारत के लिए वास्तविक मानते हैं। वे चेतावनी देते हैं कि अगर अभी इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो भविष्य में भारत को जनसंख्या की भारी कमी का सामना करना पड़ सकता है। और तब वह वही रास्ता अपनाएगा जो आज जापान अपना रहा है—दूसरे देशों से लोगों को बुलाकर आबादी को बनाए रखने का प्रयास।

लेकिन तब सामने आएंगे संस्कृति, भाषा और सामाजिक समरसता से जुड़े बड़े सवाल। उत्तर भारत के राज्य जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार, जहां अब भी जन्म दर अपेक्षाकृत अधिक है, वहां से लोगों को दक्षिण में बुलाया जाएगा। और तब क्षेत्रीय असंतुलन, सांस्कृतिक तनाव और राजनीति की एक नई लकीर खिंच जाएगी। ये केवल कल्पनाएं नहीं हैं, बल्कि एक संभावित सामाजिक विस्फोट की चेतावनी है।

भारत को अब गंभीरता से जनसंख्या नीति की समीक्षा करनी होगी। हमें यह मान लेना चाहिए कि हमारी जनसंख्या स्थायी रूप से बढ़ती नहीं रहेगी। और बढ़ती जनसंख्या ही हमें शक्ति नहीं देती—बल्कि उसका संतुलित प्रबंधन, शिक्षित युवा और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं ही देश को ताकतवर बनाती हैं। अब समय है कि सरकार, नीति निर्माता, शिक्षाविद और समाज मिलकर इस दिशा में काम करें। यह कार्य केवल आंकड़ों का नहीं, बल्कि सोच और दृष्टिकोण का है। जनसंख्या नीति अब एक चुनावी मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय प्राथमिकता बननी चाहिए।

हमारे स्कूलों को फिर से भरने के लिए हमें नीतिगत बदलाव चाहिए, हमारी हेल्थ केयर प्रणाली को बच्चों और माताओं के लिए फिर से केंद्र में लाना होगा, और सबसे बढ़कर—हमें यह समझना होगा कि सामाजिक बदलाव केवल कानून से नहीं, जागरूकता से आते हैं। अगर हम अब भी यह मानकर बैठे रहेंगे कि ‘भारत के लोग तो खुद ही बहुत हैं’, तो एक दिन यही संख्या हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बन सकती है। हमें यह तय करना होगा कि हम संख्या के भ्रम में जियेंगे या गुणवत्ता पर ध्यान देंगे। यह भारत के भविष्य की दिशा तय करने का समय है।

संजीव सान्याल की यह चेतावनी केवल एक तथ्य नहीं, बल्कि एक भविष्यवाणी है। यह हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम एक ऐसे देश बनेंगे जो अपनी आबादी को संभाल नहीं पाया, या एक ऐसा राष्ट्र जो समय रहते चेत गया और अपनी जनसंख्या को एक संपत्ति की तरह इस्तेमाल किया? यह निर्णय हमारे हाथ में है, और समय बहुत तेज़ी से फिसल रहा है। इस चेतावनी को नजरअंदाज करना अब केवल मूर्खता नहीं, बल्कि भविष्य के प्रति अपराध होगा।

Conclusion

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