कल्पना कीजिए… दिल्ली की सड़कों पर शाम का धुंधलका है, संसद भवन के सामने रोशनी जगमगा रही है, और एक शख्स अपने ओजस्वी स्वर में ऐसा भाषण दे रहा है कि विपक्ष भी चुपचाप सुन रहा है। उस आवाज़ में इतना जादू है कि शब्दों के तीर सीधे दिल में उतर जाते हैं। राजनीति की दुनिया में ऐसा बहुत कम होता है कि कोई नेता अपने विरोधियों तक का सम्मान जीत ले, लेकिन Atal Bihari Vajpayee वही शख्स थे।
एक ऐसा इंसान जिसकी पहचान सिर्फ एक राजनेता की नहीं, बल्कि एक कवि, स्वतंत्रता सेनानी और दूरदर्शी विचारक की भी थी। लेकिन सवाल यह है कि आखिर ग्वालियर की गलियों से निकलकर एक साधारण युवक कैसे भारत के सबसे सम्मानित नेताओं में से एक बना? आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में जन्मे अटल का बचपन साधारण था, लेकिन उनके सपने असाधारण। उनके पिता एक शिक्षक थे और घर का माहौल विद्या और संस्कृति से भरा हुआ था। बचपन से ही अटल का रुझान पढ़ाई-लिखाई, कविताओं और वाद-विवाद में था। कहते हैं कि वे स्कूल में ही ऐसे भाषण दिया करते थे कि शिक्षक तक चौंक जाते थे।
लेकिन उनकी असली परीक्षा 1942 में आई, जब महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया। उस समय अटल महज 18 साल के थे, लेकिन उन्होंने बेखौफ होकर इस आंदोलन में भाग लिया। जेल गए, संघर्ष झेला, और तभी से उनकी आत्मा में यह अंकित हो गया कि जीवन केवल निजी सुख-सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि देश की सेवा के लिए है।
संघर्षों की आग में तपकर अटल ने अपने करियर की शुरुआत पत्रकारिता से की। वे “राष्ट्रधर्म” और “पांचजन्य” जैसे पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े, जहां उन्होंने कलम से समाज और राजनीति पर चोट की। उनकी लेखनी उतनी ही पैनी थी जितनी उनकी कविताएं कोमल। वे लिखते भी थे, बोलते भी थे, और दोनों ही रूपों में लोगों के दिलों तक पहुँचते थे। लेकिन किस्मत ने उन्हें सिर्फ पत्रकार बनाकर नहीं छोड़ा। राजनीति की पगडंडी उन्हें धीरे-धीरे उस रास्ते पर ले जा रही थी, जहां उनका असली मकसद था।
1950 के दशक में अटल भारतीय जनसंघ से जुड़े। 1957 में पहली बार बलरामपुर से सांसद बने और यहीं से उनकी राजनीतिक यात्रा ने नई उड़ान भरी। संसद में उनके भाषण इतने दमदार होते कि विपक्ष तक उनकी तारीफ करने पर मजबूर हो जाता। जवाहरलाल नेहरू ने खुद कहा था—“वाजपेयी जी एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनेंगे।” यह भविष्यवाणी उस समय एक असंभव सपना लगती थी, लेकिन आने वाले दशकों ने इसे सच साबित कर दिया।
1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो अटल विदेश मंत्री बने। यह पहला मौका था जब दुनिया ने भारत के इस नेता को बड़े मंच पर देखा। उनके भाषणों की गूंज संयुक्त राष्ट्र महासभा तक पहुँची, जहां उन्होंने हिंदी में भाषण देकर इतिहास रच दिया। यह वही पल था जब भारत ने दुनिया के सामने अपनी भाषा की गरिमा को स्थापित किया और अटल इसकी आवाज़ बने।
1980 में जब जनता पार्टी टूटी, तब अटल और उनके साथी लालकृष्ण आडवाणी ने भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी। अटल पहले अध्यक्ष बने। उस समय बीजेपी के पास न ताकत थी, न जनाधार, लेकिन अटल के व्यक्तित्व और दृष्टि ने धीरे-धीरे इसे एक राष्ट्रीय पार्टी बना दिया। वे सियासत के खिलाड़ी जरूर थे, लेकिन उनकी राजनीति कभी कटुता से भरी नहीं थी। वे विरोधियों का भी सम्मान करते थे, और यही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी।
अटल की खासियत यह थी कि वे नेता होने के साथ-साथ कवि भी थे। जब राजनीति का शोरगुल थम जाता, तो वे कविताओं में अपनी भावनाएं उड़ेल देते। उनकी पंक्तियाँ “हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा” आज भी लोगों को प्रेरणा देती हैं। यही कविता उनके जीवन का सिद्धांत बन गई थी। वे संघर्ष से भागते नहीं थे, बल्कि उसका सामना करते थे।
प्रधानमंत्री पद तक का सफर भी उनके लिए आसान नहीं था। 1996 में वे पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार सिर्फ 13 दिन चली। 1998 में वे दोबारा सत्ता में आए, लेकिन यह कार्यकाल भी 13 महीने का ही रहा। परंतु 1999 में वे तीसरी बार प्रधानमंत्री बने और इस बार उन्होंने पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। यह पांच साल अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन का सबसे गौरवशाली अध्याय साबित हुए।
13 मई 1998—वह दिन जिसने भारत को बदल दिया। पोखरण की रेत में अटल ने वह आग जलाई जिसने पूरी दुनिया को चौंका दिया। परमाणु परीक्षण करके उन्होंने यह साबित किया कि भारत किसी के दबाव में झुकने वाला नहीं है। अमेरिका समेत पूरी दुनिया ने प्रतिबंध लगाए, लेकिन अटल डटे रहे। उन्होंने कहा—“भारत एक संप्रभु राष्ट्र है और अपनी सुरक्षा के लिए जो जरूरी होगा, वह करेगा।” यह सिर्फ एक बयान नहीं था, बल्कि एक संकल्प था।
1999 में कारगिल युद्ध छिड़ा। दुश्मन ने विश्वासघात किया, लेकिन भारतीय सेना ने अटल की अगुवाई में ऐसा जवाब दिया कि पूरी दुनिया ने भारत के साहस को सलाम किया। उस समय अटल का निर्णय और सेना का शौर्य, दोनों ने मिलकर इतिहास रच दिया। कारगिल विजय दिवस आज भी उस गौरवगाथा का प्रतीक है।
अटल सिर्फ एक राजनेता नहीं थे, वे दूरदर्शी योजनाकार भी थे। उनके नेतृत्व में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना शुरू हुई, जिसने गाँव-गाँव को सड़कों से जोड़ा। “स्वर्णिम चतुर्भुज” यानी गोल्डन क्वाड्रिलेटरल प्रोजेक्ट ने भारत के बड़े शहरों को आपस में जोड़ा और देश की अर्थव्यवस्था को नई रफ्तार दी। वे जानते थे कि मजबूत भारत सिर्फ भाषणों से नहीं, बल्कि ठोस विकास से बनता है।
उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि विपक्ष भी उनका मुरीद था। संसद में जब वे बोलते थे, तो सन्नाटा छा जाता था। उनके शब्द तलवार नहीं, बल्कि मरहम की तरह असर करते थे। यही वजह थी कि वे देश के सबसे लोकप्रिय नेताओं में गिने गए।
उनकी जिंदगी का एक और पहलू था—उनका सादगीपूर्ण जीवन। वे अविवाहित रहे, लेकिन पूरे जीवन में देश को ही परिवार माना। उनकी दत्तक पुत्री नमिता और पोती निहारिका उनके निजी जीवन का हिस्सा रहीं, लेकिन वे हमेशा कहते—“मेरा असली परिवार हिंदुस्तान की जनता है।”
2015 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। यह सम्मान सिर्फ उनके राजनीतिक योगदान का नहीं, बल्कि उस कवि-हृदय का भी था जिसने राजनीति को संवेदनशीलता दी।
16 अगस्त 2018—जब अटल बिहारी वाजपेयी इस दुनिया को छोड़ गए, तो पूरे भारत ने उन्हें अपना नेता, अपना कवि और अपना प्रेरणास्त्रोत खो दिया। उस दिन संसद से लेकर गलियों तक, गाँव से लेकर शहरों तक हर आंख नम थी। उनका जाना एक युग का अंत था।
आज उनकी पुण्यतिथि पर जब लोग उन्हें याद करते हैं, तो सिर्फ एक प्रधानमंत्री के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसे इंसान के रूप में याद करते हैं जिसने राजनीति को कड़वाहट से ऊपर उठाकर काव्य और करुणा से जोड़ा। अटल बिहारी वाजपेयी का जीवन हमें यह सिखाता है कि इंसान की पहचान सिर्फ उसके पद से नहीं होती, बल्कि उसके विचारों, उसके शब्दों और उसकी संवेदनशीलता से होती है।
उनकी कविताएं आज भी गूंजती हैं, उनके भाषण आज भी प्रेरणा देते हैं, और उनका व्यक्तित्व आज भी भारतीय राजनीति के आकाश में ध्रुवतारा बनकर चमक रहा है। अटल सिर्फ अतीत नहीं हैं, वे वर्तमान और भविष्य की राजनीति की प्रेरणा हैं।
Conclusion
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