ज़रा सोचिए… एक ऐसा पल, जब किसी कंपनी की हालत इतनी खराब हो कि उसका मालिक ही उसे बोझ समझने लगे। एक ऐसा समय, जब दिवालियापन और बंद होने की तलवार सिर पर लटकी हो। और ठीक उसी वक्त, वही कंपनी कुछ दशकों बाद भारतीय क्रिकेट टीम की नीली जर्सी पर अपने नाम का लोगो लगवाकर करोड़ों दिलों में जगह बना ले। यह किसी फिल्मी स्क्रिप्ट जैसा लगता है, लेकिन यह हकीकत है। यह कहानी है Apollo Tires की, जिसने मौत की कगार से वापसी कर इतिहास रचा। आज हम इसी विषय पर गहराई में चर्चा करेंगे।
Apollo Tires की नींव 1972 में रखी गई थी। यह दौर भारत में औद्योगिक बदलाव का था, जब देश आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रहा था। ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री धीरे-धीरे बढ़ रही थी, लेकिन टायरों का बाजार ज्यादातर विदेशी कंपनियों के कब्जे में था। ऐसे माहौल में अपोलो ने शुरुआत की। शुरुआती दिनों में कंपनी ने बड़ा सपना देखा—भारत के लिए भारत में बने टायर। यह सपना 1975 में तब हकीकत बना, जब केरल के पेरंब्रा में पहला कारखाना शुरू हुआ। यहां से निकलने वाले टायरों ने अपनी गुणवत्ता से नाम कमाना शुरू किया, लेकिन देश की राजनीति और आपातकाल ने अपोलो के कदमों को डगमगा दिया।
1975 की इमरजेंसी अपोलो के लिए सबसे बुरे दौर की शुरुआत थी। उत्पादन घटने लगा, बाज़ार में मांग गिरी, कर्ज़ बढ़ने लगा और कंपनी के सामने बंद होने का खतरा खड़ा हो गया। हालात इतने गंभीर हो गए कि संस्थापक रौनक सिंह को लगा—अब यह सफर यहीं खत्म होना चाहिए।
उन्होंने अपने बेटे ओंकार सिंह कंवर को बुलाया और कहा, “इस कंपनी का बोझ अब मेरे बस का नहीं। इसे ले लो, मैं इसे तुम्हें सिर्फ एक रुपये में सौंप रहा हूँ।” यह कोई सामान्य ऑफर नहीं था, यह उस दौर का सबसे बड़ा प्रतीक था कि कंपनी की हालत कितनी खराब हो चुकी थी। लेकिन बेटे ने पिता की तरह हार नहीं मानी। ओंकार ने इसे चुनौती के रूप में लिया और कहा—अगर यह डूब भी रही है, तो मैं इसे फिर से तैराऊँगा।
1980 में ओंकार कंवर ने कंपनी का नियंत्रण अपने हाथों में लिया। यह आसान सफर नहीं था। अपोलो के पास पूंजी कम थी, मशीनें पुरानी थीं, और कर्मचारियों का मनोबल टूटा हुआ था। लेकिन ओंकार ने रणनीति बदल दी। उन्होंने सोचा कि भारत की सड़कों पर सबसे ज्यादा किस चीज़ की ज़रूरत है। जवाब साफ था—ट्रक टायर। भारतीय ट्रांसपोर्ट व्यवस्था ट्रकों पर टिकी थी, और उन्हें ऐसे टायर चाहिए थे जो खराब सड़कों पर भारी बोझ सह सकें। ओंकार ने इसी पर ध्यान केंद्रित किया और अपोलो को धीरे-धीरे उस दिशा में ले गए, जो उसे बाकी कंपनियों से अलग करती थी।
उन्होंने सिर्फ प्रोडक्ट ही नहीं बदले, बल्कि कंपनी की कार्यप्रणाली भी बदली। कर्मचारियों की तनख्वाह को उनकी उत्पादकता से जोड़ दिया। इससे कर्मचारियों में जिम्मेदारी बढ़ी और वे कंपनी के साथ मिलकर खड़े हुए। यह अपोलो की उस नई शुरुआत का दौर था, जिसने आने वाले दशकों की नींव रखी।
1990 का दशक अपोलो के लिए सुनहरा युग साबित हुआ। देश में Economic liberalization हो रहा था, foreign investment आ रहा था और नई कंपनियां उभर रही थीं। ओंकार ने मौके को पहचाना और विस्तार की ओर कदम बढ़ाए। 1991 में गुजरात के लिमडा में दूसरा प्लांट खोला गया। फिर 1995 में उन्होंने प्रीमियर टायर्स लिमिटेड का अधिग्रहण किया और केरल में तीसरा प्लांट शुरू किया। यही वह समय था जब अपोलो भारतीय रेडियल टायर मार्केट में नेता बन गया। अब अपोलो न सिर्फ भारत की ज़रूरत पूरी कर रहा था, बल्कि विदेशों में भी टायर्स Export करने लगा।
कंपनी का सफर यहीं नहीं रुका। 2009 में अपोलो ने यूरोप में कदम रखा और नीदरलैंड की कंपनी व्रेडेस्टीन को खरीद लिया। यह अधिग्रहण अपोलो के लिए ऐतिहासिक साबित हुआ, क्योंकि इसके बाद कंपनी की पहचान यूरोप के बाज़ार में भी मजबूत हो गई। आगे चलकर हंगरी में भी अपोलो ने बड़ा प्लांट लगाया और आज कंपनी के कारखाने भारत, नीदरलैंड और हंगरी में फैले हुए हैं। इनसे निकले टायर्स दुनिया के सौ से ज्यादा देशों में सड़कों पर दौड़ रहे हैं।
लेकिन अपोलो की असली जीत हाल ही में सामने आई, जब उसने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) से 579 करोड़ रुपये का करार किया। इस करार ने अपोलो को सीधे टीम इंडिया की नीली जर्सी तक पहुंचा दिया। अब साल 2027 तक जब भी भारतीय टीम मैदान में उतरेगी, खिलाड़ियों की जर्सी पर अपोलो का लोगो चमकेगा। यह सिर्फ एक स्पॉन्सरशिप नहीं, बल्कि उस सफर का प्रतीक है जो डूबने की कगार से शुरू होकर शिखर तक पहुंचा।
इस साझेदारी का असर हर जगह दिखा। खबर आने के बाद ही अपोलो के शेयरों में उछाल आ गया और कंपनी का मार्केट कैप 31 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया। सोचिए, जिस कंपनी को कभी सिर्फ एक रुपये में बेचने की बात हो रही थी, वही आज अरबों की कीमत वाली है और भारतीय क्रिकेट टीम का गर्व भी।
बीसीसीआई ने इस स्पॉन्सरशिप प्रक्रिया में साफ किया था कि कुछ इंडस्ट्रीज़ को बोली लगाने की इजाजत नहीं दी जाएगी। इनमें गेमिंग, ऑनलाइन सट्टेबाज़ी, क्रिप्टोकरेंसी और तंबाकू कंपनियां शामिल थीं। इसके अलावा स्पोर्ट्सवियर, बैंक, नॉन-अल्कोहलिक बेवरेजेज़ और घरेलू उपकरण बनाने वाली कंपनियों को भी बाहर रखा गया। इस पारदर्शिता ने अपोलो के ब्रांड को और मजबूत बनाया।
क्रिकेट भारत में धर्म की तरह है। जब करोड़ों फैन्स टीवी पर अपनी टीम को खेलते देखेंगे, तो जर्सी पर अपोलो का नाम उन्हें बार-बार याद दिलाएगा कि यह कंपनी सिर्फ टायर नहीं बनाती, बल्कि संघर्ष और सपनों की कहानी भी लिखती है। बीसीसीआई सचिव देवजीत सैकिया ने कहा कि यह साझेदारी सिर्फ व्यावसायिक नहीं, बल्कि दो भरोसेमंद संस्थाओं का मेल है। उपाध्यक्ष राजीव शुक्ला ने भी इसे भारतीय क्रिकेट और अपोलो की विरासत का संगम बताया।
भारत को आने वाले कार्यकाल में 141 मैच खेलने हैं, जिनमें से 121 द्विपक्षीय और 20 आईसीसी मुकाबले होंगे। इन सभी मैचों में अपोलो टायर्स का नाम हर खिलाड़ी की जर्सी पर होगा। यह न सिर्फ कंपनी के लिए मार्केटिंग का सबसे बड़ा अवसर है, बल्कि फैन्स के दिलों तक पहुंचने का भी सुनहरा मौका है।
अपोलो की यह कहानी हमें यही सिखाती है कि असफलता चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो, अगर हिम्मत और सही फैसले हों तो वापसी हमेशा संभव है। एक वक्त था जब पिता ने बेटे से कहा था—“यह कंपनी तुम्हारे किसी काम की नहीं।” और आज वही कंपनी भारतीय क्रिकेट टीम की ताकत का हिस्सा है। यह सफर हमें बताता है कि ज़िंदगी में गिरना अंत नहीं है, बल्कि उठकर आगे बढ़ना ही असली जीत है।
आज अपोलो टायर्स की पहचान सिर्फ एक टायर बनाने वाली कंपनी की नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी प्रेरणा है जो बताती है कि हालात चाहे कितने भी मुश्किल हों, सपनों और संघर्ष से सब बदला जा सकता है। अब जब टीम इंडिया मैदान में उतरेगी, तो खिलाड़ियों की जर्सी पर सिर्फ अपोलो का लोगो नहीं होगा, बल्कि एक पूरी कहानी लिखी होगी—एक रुपये से शुरू होकर करोड़ों दिलों तक पहुंचने वाली कहानी।
Conclusion
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